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Adda Analysis हारे हुए सिपहसालार जिताएंगे कांग्रेस को 2022 की जंग! गणेश गोदियाल प्रदेश अध्यक्ष, बेहड़, जीतराम, रंजीत और कापड़ी कार्यकारी अध्यक्ष, 2017 में सब हारे क्या 22 में साबित होंगे इक्कीस!

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दिल्ली/देहरादून: 2014 के बाद से पहाड़ पॉलिटिक्स में हर चुनाव में शिकस्त खा रही कांग्रेस के अस्तित्व के लिए 2022 की बैटल जीतना बेहद जरूरी है। पार्टी के लिए यह चुनाव ‘करो या मरो’ जैसे हालात लेकर आया है क्योंकि 2017 में महज 11 विधायकों पर सिमटी कांग्रेस राज्य बनने के बाद के अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है। यही वजह है कि कांग्रेस आलाकमान ने नेता प्रतिपक्ष डॉ इंदिरा ह्रदयेश के आकस्मिक निधन के बाद नए CLP Leader का चुनाव करने के लिए मैराथन मंथन किया है और पंजाब फ़ॉर्मूले को उत्तराखंड में दोहराने का फैसला किया है। लेकिन चुनावी जंग में उतरने के लिए जिन चेहरों पर सारा दारोमदार डाला जा रहा है उनके नाम जैसे जैसे सामने आ रहे वह 2022 को लेकर कांग्रेस की स्थिति पर कई तरह के प्रश्नचिह्न खड़े करता है।

कांग्रेस आलाकमान चुनाव से ठीक पहले उलटफेर करते हुए प्रीतम सिंह से प्रदेश अध्यक्ष पद लेकर उनको नेता प्रतिपक्ष यानी सीएलपी लीडर बना दिया है। अब गणेश गोदियाल नए प्रदेश अध्यक्ष और उनके साथ पंजाब फ़ॉर्मूला अपनाते हुए चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए हैं । तराई और पंजाबी तबके को साधने को तिलकराज बेहड़, दलित चेहरे के तौर पर पहाड़ से प्रो० जीतराम, कुमाऊं से एक जमाने में हरदा के हनुमान और आज धुर विरोधी रंजीत रावत और युवा चेहरे भुवन कापड़ी यानी यह चार कार्यकारी अध्यक्ष के तौर पर चुनावी समीकरण साधने वाले चेहरे होंगे। गौर करिए नए प्रदेश अध्यक्ष और उनके सहयोगी चार कार्यकारी अध्यक्षों में से एक भी 2017 की मोदी लहर में टिक नहीं पाया था। अब जब बीजेपी फिर कह रही कि चुनाव में चेहरा प्रधानमंत्री मोदी ही होंगे तब 2017 में ‘ढेर’ हुए नेता 2022 में जिताऊ ‘शेर’ साबित होंगे इसके लिए कांग्रेस आलाकमान, महामंत्री (संगठन) केसी वेणुगोपाल और प्रभारी देवेन्द्र यादव के कॉन्फ़िडेंस की दाद दी जानी चाहिए। इनमें कुछ तो ऐसे चेहरे हैं जो दो बार से चुनावी जंग में ढेर होते आ रहे और सीट बदलकर सियासत बचाए रखने के अलावा उनके लिए तीसरी बार भी कोई बहुत मजबूत संभावना नहीं दिख रही!

ताज्जुब है कि न युवाओं को आकर्षित करने के लिए मनोज रावत और हरीश धामी जैसे विधायक नजर नहीं आए। न उपनेता करण माहरा जैसे तेज़तर्रार को किसी चुनावी ज़िम्मेदारी लायक समझा गया। दलित महिला चेहरे के तौर पर न विधायक ममता राकेश नजर आई। चार-चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाते हुए भी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भूल गया कि उत्तराखंड 52 फ़ीसदी मातृशक्ति के संघर्ष की ही देन है। और एक महिला नेत्री के आकस्मिक निधन से ही सीएलपी लीडर का पद रिक्त हुआ है, उसके बावजूद इन चुनावी चेहरों की ताजपोशी में किसी महिला को जगह नहीं मिल पाई। शायद नारी शक्ति को महिला कांग्रेस तक महदूद रहने का साफ संकेत दिया गया है।


अब आप कांग्रेस का सियासी सीन समझिए! प्रीतम सिंह चार साल पीसीसी चीफ रहे तो अब जाकर एक डेढ़ साल से थोड़ा रंग-ढंग सड़क पर निकलकर दिखाने लगे थे अब हरदा वर्सेस प्रीतम जंग में हारकर हासिल हुए नेता प्रतिपक्ष पद पर वे कितना दमदारी से प्रदर्शन करेंगे कांग्रेसी राजनीतिक गलियारे की जरा भी समझ रखने वाला जान सकता है।


अब सारा दारोमदार कैंपेन कमेटी के कमांडर हरदा यानी पूर्व सीएम हरीश रावत के कंधों पर पार्टी नेतृत्व ने डाल दिया है। आखिर प्रीतम सिंह और रंजीत रावत और थोड़ा बहुत भुवन कापड़ी को अलग कर दें तो गोदियाल, जीतराम और बेहड़ उनकी ही सियासी बिसात पर बैटिंग करते नजर आ सकते हैं। किशोर उपाध्याय को किनारे रखा गया है जबकि बनिया वोटर्स को लुभाने को दिनेश अग्रवाल को जगह चुनाव प्रचार समिति में जगह दी गई है। दलित चेहरे के तौर पर हरदा के साथी प्रदीप टम्टा उपाध्यक्ष भी कैंपेन कमेटी में रखे गए हैं।


पहले हरदा के करीबी राजपाल खरोला का नाम भी कार्यकारी अध्यक्ष के लिए चला पर लगता है आखिरी दौर में हरदा की तरफ पूरी तरह झुकते पलड़े को थोड़ा बैलेंस करने को आखिरी दौर में प्रीतम को वज़न देने को रंजीत रावत को शामिल किया गया है।

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