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जाति जाती क्यों नहीं! हार पर हॉकी खिलाड़ी वंदना कटारिया के घर के बाहर आतिशबाज़ी, जातिसूचक गालियां,पीवी सिंधु जीतीं तो खोज रहे जाति, लवलीना बोरगोहेन का धर्म

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देहरादून: भारतीय समाज आधुनिक होने का लाख दम भरे लेकिन शिक्षित-साक्षर और तकनीक पसंद सोसायटी जाति और धर्म के खाँचों में गहरे तक ऐसी धंसी है कि जब तब सोच के स्तर पर भेदभाव का यह मवाद फूट पड़ता है।
ऑलिंपिक स्पर्धा में हैट्रिक लगाकर इतिहास रचने वाली भारतीय हॉकी खिलाड़ी वंदना कटारिया के घर के बाहर पड़ोसी सिर्फ इसलिए आतिशबाज़ी नहीं करते कि भारत सेमीफ़ाइनल मैच हार गया और पड़ोसी वंदना के परिवार से जलन में ये कर बैठते हैं। दरअसल आतिशबाज़ी और जातिसूचक गालियां इस सोच के साथ दी जाती हैं कि दलित खिलाड़ी जब देश का नेतृत्व करेंगी तो जीत कहां से मिलेंगी। यह व्यवहार उस खिलाड़ी के साथ होता है जो हैट्रिक गोल कर न केवल देश का नाम रोशन करती हैं बल्कि ऑलिंपिक में यह कारनामा करने वाली देश कि पहली महिला खिलाड़ी बनने का गौरव भी हासिल करती हैं।
यह इकलौता मामला होता तो बात उतनी गंभीर नहीं होती और दोषी लड़कों को पुलिस पकड़कर सजा दिला देती, परिवार को भी न्याय मिल जाता। लेकिन बात तो समाज के भीतर के जाति-धर्म भेद की गहरी जड़ों को लेकर है जो चिन्ता पैदा करती है।
इसी ऑलिंपिक में यह दूसरा मौका है जब समाज का जातीय नज़रिया सामने आया है। जाति को लेकर भारतीय समाज का आग्रह पीवी सिंधु को लेकर गूगल सर्च पर उनकी जाति सर्च करना टॉप ट्रेंड करना और लवलीना बोरगोहेन के धर्म का पता लगाने की खोज साबित करती है कि समाज मेडल नहीं जाति की जंग में ही उलझा है।
25 जुलाई से एक अगस्त के बीच शटलर पीवी सिंधु की जाति की खोज गूगल सर्च इंजन पर सबसे ज्यादा हुई। आन्ध्रप्रदेश और तेलंगाना से लेकर झारखंड, यूपी और बिहार में सिंधु की जाति खोजी जा रही थी। एक अगस्त को पीवी सिंधु ने कांस्य पदक जीता तो उनकी जाति की सर्च गूगल पर 700 फीसदी ज्यादा हुई।
इसी तरह बॉक्सर लवलीना बोरगोहेन वे जैसे ही भारत के लिए पदक पक्का किया गूगल पर उनके धर्म की खोज शुरू हो गई। यानी लोग लवलीना के खेल-प्रदर्शन और उस वक्त तक गोल्ड जीतने की संभावनाओं को जानने की बजाय धर्म खोज लेना चाह रहे थे।
यह बताता है कि उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के रोशनाबाद गांव में जिन पड़ोसियों ने भारतीय महिला हॉकी टीम की हार पर वंदना कटारिया के घर के बाहर पटाखे फोड़े और जाति सूचक गालियाँ दी, वह दरअसल, समाज के भीतर गहरे तक धँसे जातीय दंभ और नक़ली घमंड की अंधेरी कोठरी से रूबरू कराता है। फिलहाल समाज यहाँ से निकलने को हरगिज तैयार भी नहीं दिखता है। तभी तो ऑलिंपिक मंच की पदकतालिका में तलहटी में खड़े सवा अरब का भारत अभी भी खिलाड़ियों के मेडल नहीं बल्कि जातीय पहचान के अंधेरे में ही गुम रहना चाहता है।

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