देहरादून: बाइस बैटल का बिगुल बजा नहीं लेकिन एक-दूसरे के गढ़ में सेंधमारी का खेल शुरू हो गया है। बीजेपी छोड़कर पूर्व दर्जामंत्री रविन्द्र जुगरान पहले ही AAP के हो चुके हैं। बीजेपी अध्यक्ष मदन कौशिक के क़रीबी नरेश शर्मा भी AAP का झंडा थाम चुके हैं। अब संघ, विश्व हिन्दू परिषद के साथ-साथ बीजेपी से जुड़े रहे महेन्द्र सिंह नेगी ‘गुरुजी’ ने कांग्रेस का दामन थामा है। लेकिन क्या ऐसी छुट-पुट पॉलिटिकल पॉचिंग से सियासी दल एक-दूसरे को चुनावी तौर पर डैमेज कर पाएँगे? शायद ऐसी टूट से बहुत असर किसी भी दल पर नहीं पड़ने वाला है।
पालाबदल से बदल गई पहाड़ पॉलिटिक्स
असर तो हवा का रुख़ बदलने का माद्दा रखने वाले कुछ नेताओं के इधर-उधर होने से पड़ सकता है। लेकिन वह नेता हैं कौन जो बीजेपी या कांग्रेस किसी की भी हार-जीत में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। इसके लिए लौटना पड़ेगा 2014 में, जब कांग्रेस नेता हरीश रावत मुख्यमंत्री बने और उसके बाद हालात 18 मार्च 2016 तक इस स्तर तक पहुँच गए कि कांग्रेस में एक बड़ा विभाजन हो गया। क़द्दावर नेता सतपाल महाराज पहले ही बीजेपी जा चुके थे और पूर्व सीएम विजय बहुगुणा की अगुवाई में नौ विधायकों ने एक झटके में कांग्रेस छोड़कर प्रदेश मे सबसे बड़ी टूट को अंजाम दिया। फिर तो स्टिंग, राष्ट्रपति शासन से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट होते विधानसभा में फ़्लोर टेस्ट तक कई तरह के उलटफेर और अभूतपूर्व राजनीतिक नाटक देखने को मिले।
दरअसल 2016 का सियासी पालाबदल ऐसा था कि उससे आज तक कांग्रेस उबर नहीं पाई है, तो बीजेपी के भीतर भी खांटी पार्टी नेता-कार्यकर्ता बनाम कांग्रेसी गोत्र नेता-कार्यकर्ता का मसला अंदरूनी तौर पर ही सही पर उठता रहा है। फिर चाहे कांग्रेसी गोत्र के मंत्रियों का सरकार में बहुमत या वर्चस्व जैसा बातें हों लेकिन पॉलिटिकल कॉरिडोर्स में ऐसी चर्चा कभी थमी भी नहीं है। भले बीजेपी नेतृत्व कहता रहे कि जो आ गया वो हमारा हुआ।
हवा का रुख़ बदलने वाले चार चेहरे
अब जब 2022 का चुनाव सामने है लिहाज़ा बीजेपी और कांग्रेस में अंदर ही अंदर जोड़-तोड़ की बिसात बिछाई जाने लगी है। बीजेपी की नज़र कांग्रेस के कई असंतुष्ट नेताओं पर हैं जिनमें कुछ पूर्व विधायक भी हो सकते हैं। तो कांग्रेस की नज़र सत्ताधारी दल के कई असंतुष्ट नेताओं के साथ-साथ उन विधायकों पर भी है जिनकी टिकट कट सकती है। लेकिन बाइस बैटल की हवा का रुख़ चार नेताओं पर खासा निर्भर करेगा। जिधर ये नेता रुख़ करेंगे माहौल बनने में बड़े मददगार साबित होंगे। इन चार नेताओं में तीन धामी सरकार में शामिल तीन कैबिनेट मंत्री शामिल हैं जिनमें सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, यशपाल आर्य और पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा शामिल हैं । बहुगुणा, महाराज, आर्य और हरक का चुनाव में रुख कई मायनों में ख़ास रहने वाला है। यह सवाल इसलिए भी उठ रहा कि क्या छुट-पुट सेंधमारी के आगे भी बाच बढ़ेगी और अगर बढ़ती है तो कांग्रेसी गोत्र वाले ये नेता जिधर भी खड़े रहेंगे उसी दल का पलड़ा भारी दिखाई देगा।
कई मौक़ों पर यह चर्चा चली है कि कांग्रेसी गोत्र के नेता अब बीजेपी में ही बने रहेंगे या फिर माहौल बनता है तो कांग्रेस में घरवापसी करेंगे। सियासी गलियारे में चर्चा रहती है कि अब शायद ही विजय बहुगुणा और उनके करीबी सुबोध उनियाल कांग्रेस की तरफ जाने की सोचें। लेकिन टीएसआर एक से लेकर लगातार ख़फ़ा से दिख रहे कैबिनेट मंत्री डॉ हरक सिंह रावत को लेकर गाहे-बगाहे खूब हल्ला मचता रहा है कि वे बाइस बैटल में कोटद्वार में कंफरटेबल नहीं लग रहे और बीजेपी रुद्रप्रयाग, लैंसडौन या कोई और सीट देने से रही। जबकि अगर डॉ हरक सिंह रावत की कांग्रेस के साथ फिर से पटरी बैठी तो उनके लिए वहाँ कई मुफीद सीट हो सकती हैं और कांग्रेस को भी गढ़वाल में एक जनाधार वाले नेता मिल जाएंगे।
बीजेपी में एक सीट पर सिमट गए हरक सिंह रावत कांग्रेस के लिए कई सीटों पर समीकरण बदलवाने की स्थिति में होंगे। इसी तरह कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य अगर कांग्रेस की तरफ रुख करते हैं तो कुमाऊं से लेकर तराई तक कई सीटें प्रभावित करने की हैसियत में होंगे। यशपाल आर्य सात साल कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहते एक दलित नेता के तौर पर मजबूत पहचान बना चुके थे और कांग्रेस में भले हरीश रावत के सबसे करीबी दलित चेहरे राज्यसभा सांसद प्रदीप टम्टा हों लेकिन आर्य के मुकाबले टम्टा कहीं नहीं टिकते हैं।
जबकि मुख्यमंत्री बनने की धुन में बीजेपी ‘पत्तल उठाने’ पहुँच गए सतपाल महाराज कांग्रेस में पौड़ी गढ़वाल संसदीय सीट के नेता के तौर पर टिकटें बाँटते थे, पर अब बाइस बैटल में बीजेपी से चौबट्टाखाल से चुनावी जंग लड़ेंगे या नहीं लड़ेंगे इसे लेकर चर्चाएं होती रहती हैं। टीएसआर राज में सबसे अधिक कोपभवन में रहने वाले मंत्री सतपाल महाराज ही रहे और पुष्कर सिंह धामी के मुख्यमंत्री बनते ही महाराज की बीजेपी में मुख्यमंत्री बनने की हसरत अब सियासी गलियारे में हसरत ही मानी जा रही है। ऐसे में कांग्रेस छोड़ते भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर हमेशा सीधे हमले से बचते रहे महाराज की मूड बदला तो चुनावी बंयार में अंतर साफ दिख सकता है।
जाहिर है बाइस बैटल का रुख इन चार नेताओं की सियासी चाल पर बहुत हद तक निर्भर करेगा। आखिर इन चार नेताओं के पीछे कई चेहरे और भी हैं जो बदलाव के रुख को भाँपने में देरी नहीं करेंगे। वैसे इस सियासी कवायद के रास्ते पेंचोखम भी कम नहीं हैं। न बीजेपी इतनी आसानी से इन दिग्गजों का मन बदलने देना चाहेगी और न ही ‘हरदामय’ हो चुकी पहाड़ कांग्रेस ऐसे बदलाव को आसानी से पचा पाएगी। लेकिन कहने हैं न सियासत संभावनाओं का खेल है और सत्ता आने-जाने के बीच बहुत हसरतें करवटें लेती रहती हैं।