ADDA IN-Depth: उत्तराखंड की पहली महिला स्पीकर के रूप में ऋतु खंडूरी भूषण ने विधानसभा में बैकडोर भर्तियों के नाम पर चल आ रहे संगठित और संस्थागत भर्ती भ्रष्टाचार पर मारक प्रहार करते हुए कुंजवाल-अग्रवाल स्पीकर राज में ‘अर्जी पर मर्जी’ की नौकरी पाए 228 लोगों को बर्खास्त कर दिखाया। जाहिर है ऐसा साहसिक और जोखिम भरा कदम, जिससे पराए तो छोड़िए अपनों के भी नाराज होने का खतरा मोल लेना था, ऋतु खंडूरी जैसी कोई दमदार स्पीकर ही उठा सकती थी।
लेकिन अब यह क्या कि एक बड़ी लकीर खींचने के बाद 2016 से पहले रहे तमाम विधानसभा अध्यक्षों द्वारा बैकडोर भर्तियों के नाम पर की गए उसी तरह के संगठित और संस्थागत भर्ती भ्रष्टाचार पर प्रहार करने में ऋतु खंडूरी भूषण के कदम डगमगाने क्यों लगे हैं? क्या नैतिकता और न्याय का जो मानदंड ऋतु खंडूरी भूषण ने स्पीकर के नाते स्थापित किया था, वह सिलेक्सटिव ही था, जैसा कि उनके विरोधियों के आरोपों में बताया जा रहा?
अगर नहीं तो विधानसभा में 2016 से पहले हुई तमाम अवैध भर्तियों को लेकर विधिक राय क्यों? और अगर महाधिवक्ता ने विधिक राय दे ही दी तो फिर उसे दबाने की भरसक कोशिश क्यों?
क्या पूर्व नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह का आरोप सही नहीं कि जब महाधिवक्ता 9 जनवरी को ही अपनी विधिक राय विधानसभा को दे चुके तब एक पखवाड़ा बीतने के बावजूद उस पर एक्शन क्यों नहीं ले पा रही हैं स्पीकर ऋतु खंडूरी भूषण?
क्या 228 अस्थाई कर्मचारियों को हटाते समय विधिक राय ली गई थी? अगर नहीं तो अब स्थाई नियुक्तियों को लेकर इतनी हिचक क्यों दिख रही? जब स्पीकर की बनाई डीके कोटिया एक्सपर्ट कमेटी ने भी उत्तराखंड विधानसभा में की गई इन तमाम नियुक्तियों को एक तराजू में रखा है। फिर घबराहट कैसी या फिर विरोधियों के आरोप गलत नहीं कि अब स्थाई नियुक्तियां पर गए कुछ अपने खास लोगों के कारण सबको बचाया जा रहा है?
जाहिर है अगर विधिक राय के बावजूद स्पीकर ऋतु खंडूरी भूषण अपनी ही खींची बड़ी लकीर मान रखने में विफल रहती हैं तो नैतिक मूल्यों और न्याय के उच्च पायदान से कहीं अधिक गहरी होगी पतन की खाई!