
देहरादून(@pawan_lalchand): 2014 से लगातार पहाड़ पॉलिटिक्स में चुनाव दर चुनाव कामयाब हासिल करती आ रही बीजेपी, 22 बैटल में जीत को लेकर जरा भी अति आत्मविश्वास का शिकार होने का जोखिम मोल नहीं लेना चाहती है। पार्टी को बखूबी पता है कि चुनाव के चंद माह पहले सरकार के मुखिया के तौर पर युवा विधायक पुष्कर सिंह धामी की ताजपोशी के बावजूद उसके रास्ते की दुश्वारियां कम नहीं हुई हैं। कांग्रेस के क़द्दावर हरीश रावत को कुमाऊं के किले में ही घेरने को लेकर धामी को सरकार का सुबेदार जरूर बनाया गया है लेकिन 2017 की मोदी आँधी के बावजूद थोड़े से अंतर से खटीमा जीते पुष्कर सिंह धामी की क्षमता का बीजेपी नेतृत्व को बखूबी अहसास है।
अलबत्ता धामी के ज़रिए बीजेपी आलाकमान ने लगातार गढ़वाल में बने रहे साढ़े चार के पॉवर सेंटर( दो-दो सीएम और केन्द्रीय मंत्री निशंक) को धामी-अजय भट्ट के ज़रिए कुमाऊं शिफ्ट कर बाइस की बिसात को नए सिरे से खेलने का दांव खेला है। मक़सद हरीश रावत की घर में घेराबंदी के साथ-साथ नए सिरे से बिसात बिछाकर राजनीतिक विरोधियों की तमाम तैयारियों को नए सिरे से बदलने को मजबूर कर देना भर रहा है। इसलिए बीजेपी नेतृत्व धामी का चेहरा उतना ही आगे बढ़ाएगा जितना मुख्यमंत्री के नाते सहज लगेगा और तमाम चुनावी व्यूह रचना सामूहिक नेतृत्व के ज़रिए ही आगे बढ़ेगी। इसी कड़ी में आगे बढ़ते हुए बीजेपी नेतृत्व ने चुनाव प्रभारी के रूप में केन्द्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी को तैनात कर उनके साथ सह प्रभारी के नाते सरकार आरपी सिंह और सांसद लॉकेट चटर्जी को लगाया है।
मैजेस ‘लाउड एंड क्लेयर’ है कि बीजेपी चुनाव की ऐसी टीम तैयार कर रही जिसमें हैवीवेट्स होंगे और सामाजिक समीकरण साधने के लिहाज से आरपी सिंह और लॉकेट चटर्जी जैसे चेहेरे भी रखे जाएंगे ताकि वोटर्स के हर तबके को अपनी ओर करने का हर दांव आज़माया जाए। प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के बेहद करीबी ब्राह्मण चेहेरे प्रह्लाद जोशी को लाकर पार्टी ने प्रदेश के मजबूत और प्रभावशाली वोटर तबके पर काम करना शुरू कर दिया है, जो चारधाम देवस्थानम बोर्ड से लेकर कई मुद्दों के चलते आजकल बीजेपी से बहुत खुश नहीं दिखाई दे रहा। सरदार आरपी सिंह तराई से लेकर किसान आंदोलन के चलते प्रदेशभर में नाराज सिख और पंजाबी वोटर तबके को लेकर चुनावी प्रबंधन में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
दरअसल 2017 की जंग में कुछ बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा उत्तराखंड के चुनाव प्रभारी रहे लिहाजा राज्य के क्षेत्रीय संतुलन से लेकर कास्ट इक्वेशन और वरिष्ठ नेताओं की धड़ेबाजी से लेकर हर समीकरण की पूरी समझ है। इसी के चलते जैसे जैसे चुनाव करीब आएगा बीजेपी नेतृत्व कुछ और केन्द्रीय और राज्य के हैवीवेट चेहरों को पहाड़ पॉलिटिक्स में जीत के लिए झोंकेगा।
पॉवर कॉरिडोर्स में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के नाम इसी नज़रिए से चर्चा में बने हुए हैं क्योंकि बीजेपी नेतृत्व जानता है कि 2017 के चुनाव से पहले बगावत का जो जख्म पार्टी ने विरोधी दल कांग्रेस को दिया था, काऊ-हरक के बदले सुरों के बहाने उसे बखूबी अहसास है कि अबके यह जख्म उसका ही सीना छलनी न कर दे लिहाजा अभी से इसकी काट बननी शुरू हो गई है। इस रणनीति पर प्रीतम पंवार महज शुरूआत है, आगे एक और निर्दलीय विधायक से लेकर एक कांग्रेस विधायक और एक-दो ताकतवर पूर्व विधायक रडार पर हैं। नए राज्यपाल के तौर पर पूर्व सैन्य अधिकारी लेफ़्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह की राजभवन में एंट्री के अपने गहरे सियासी निहितार्थ समझें जा सकते हैं। यानी बीजेपी ने बाइस बिसात पर अपने पत्ते खेलने अब शुरू कर दिए हैं और वह अकेले नए युवा सीएम को मैदान में छोड़कर कतई सियासत का अभिमन्यु बनने देना चाहेगी।
अब अगर बात कांग्रेस की करें तो पौने पांच साल की सत्ताधारी बीजेपी की ख़ामियाँ विपक्षी पार्टी के सियासी तरकश के सबसे मजबूत और धारदार तीर साबित हो सकते हैं। 70 विधायकों की असेंबली में 57 विधायकों की प्रचंड ताकत या कहें कि तीन चौथाई बहुमत देकर डबल इंजन रफ्तार से विकास की जो आस आम जनता ने की थी वह गुज़रे वक्त में बीच रास्ते कहीं हाँफती, दम तोड़ती नजर आई है। बड़े बहुमत की सरकार होकर भी वह न लोकायुक्त पर अपना वादा निभा पाई और न दिल्ली-देहरादून में दौड़ती डबल इंजन सरकार रोजगार के नए रास्ते खोलने में कामयाब रही।
इनवेस्टर्स समिट से आस बँधी जरूर थी लेकिन वह सब भी धराशायी हो गया और रही सही कसर कोरोना महामारी ने पूरी कर डाली है। इसलिए इस सरकार के पहले मुख्यमंत्री 7 लाख नौकरियाँ बांटने की बयान बहादुरी दिखाकर चलते बने और अल्पकाल के लिए फ़िलर बनकर आए दूसरे सीएम भी दो लाख नौकरियां और 22-24 हजार सरकारी नौकरियों की जुमलेबाजी करके चले गए। अब चुनावी मुख्यमंत्री का सारा फोकस 22 हजार सरकारी नौकरियाँ बाँटने पर है जरूर लेकिन क्या चार माह में 24 हजार नौकरियों के ज्वाइनिंग लेटर आचार संहिता से पहले डिलिवर करा दिए जाएंगे इस पर संदेह है। यानी विपक्ष की मुख्य ताकत कांग्रेस के लिए अवसर तो है लेकिन राजनीतिक तौर पर आपसी झगड़ों और खेमों में बँटकर खोखली होती कांग्रेस बीजेपी की सत्ता विरोधी लहर का लाभ उठा पाएगी भी? या फिर बीजेपी से नाराजगी के वोट के नए खिलाड़ी आम आदमी पार्टी के साथ बाँटकर अंतत: बीजेपी को ही सियासी नफ़े में रहने का एक और मौका दे देगी!
दरअसल, पहाड़ पॉलिटिक्स में पिछले चार चुनावों में हर बार सत्ता का रंग बदल जाने के अतीत के बावजूद अगर कांग्रेस का राजनीतिक भविष्य सुनहरा नहीं दिख रहा, तो उसके पीछे पार्टी का टुकड़ों में बँटा वर्तमान आड़े आ रहा है। आलम यह है कि कांग्रेस ने नई टीम बनाते सबको साधने किसी को नाराज होने का मौका न देने के मक़सद से एक अध्यक्ष के साथ चार-चार कार्यकारी अध्यक्ष लगाए ताकि कई समीकरण तो सधे हीं और किसी के कोपभवन में चले जाने की गुंजाइश भी न रहे। परिवर्तन यात्रा इसी जोश के साथ कांग्रेस ने शुरू भी की और भीड़ ने पार्टी को जमीनी टैम्पेरचर का फ़ीलगुड भी कराया लेकिन कांग्रेस में कलह न हो ऐसा भला कहां होता! खटीमा में मुख्यमंत्री धामी को दो-दो हाथ करने के आह्वान से शुरू हुई परिवर्तन यात्रा रामनगर तक आते-आते खेमों में परिवर्तित होने लगी।
बात यही नहीं रुकती है, प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल कहते हैं कि सिटिंग विधायकों सहित 37 टिकट फाइनल हैं लेकिन 24 घंटे बीते नहीं और नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह ने यह कहकर गोदियाल के बयान की हवा निकाल दी कि अभी कोई टिकट फाइनल नहीं हुए हैं और टिकट तय करने की पार्टी में एक प्रक्रिया हैं। अब इसी से कांग्रेसी कलह समझी जा सकती है जहां प्रदेश अध्यक्ष कहते हैं 37 टिकट तय हैं और नेता प्रतिपक्ष खारिज करते हैं कि अभी कोई टिकट तय नहीं हो पाए हैं। इससे पहले हरदा रसोई गैस में 200 रु की सब्सिडी बांटने से लेकर बिजली मुफ्त बांटने जैसे वादे कर रहे थे तब भी प्रीतम सिंह ने चुनावी घोषणा पत्र से पहले तमाम वादों को फिजूल बताया था।
बहरहाल ऐसा नहीं कि सत्ताधारी बीजेपी के भीतर कलह या उसकी ख़ामियां नजर नहीं आ रही! विधायक उमेश शर्मा काऊ की दहाड़ और हरक सिंह रावत का खुलकर समर्थन बताता है कि हालात बिगड़ते वहाँ भी देर नहीं लगेगी। साथ ही तीन-तीन सीएम बदलनी भी बीजेपी की अंदरूनी कमजोरी की स्वीकारोक्ति ही समझी जा सकती है लेकिन इन सब चुनौतियों के बावजूद बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व की प्रदेश पर सीधी निगरानी और लगातार जेपी नड्डा से लेकर तमाम राष्ट्रीय नेताओं की दिल्ली-दून भागदौड़ बिगड़ते हालात संभाल लेने का दम दिखाती है। परन्तु कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व तो खैर चुनावी रैलियों के अलावा कभी पहाड़ चढ़ता ही नहीं प्रदेश के हैवीवेट भी आपस में उलझकर पार्टी की उम्मीदों पर पानी फेरने से गुरेज़ नहीं कर रहे।