न्यूज़ 360

सीएम धामी की ‘कन्यादान’ से पहले ‘विद्यादान’ की अपील में छिपा सामाजिक बदलाव का बड़ा संदेश 

Share now

Uttarakhand News: उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने बागेश्वर में आयोजित मातृशक्ति उत्सव कार्यक्रम में लोगों से ‘कन्यादान’ से पहले ‘विद्यादान’ की संस्कृति अपनाने की अपील की है। सीएम पुष्कर सिंह धामी की ये अपील प्रगतिवादी सोच का परिचायक है और इससे समाज में व्यापक बदलाव लाया जा सकता है। वैसे भी सक्षम राजनीतिक नेतृत्व उसे ही कहा जाएगा जो जरूरत पड़ने पर अपने लोगों के बीच सामाजिक बदलाव का ध्वजवाहक भी नजर आए। युवा सीएम पुष्कर सिंह धामी द्वारा कपकोट से की गई सामाजिक बदलाव की यह अपील ना सिर्फ समय की मांग है बल्कि मौजूदा दौर में आधी आबादी के हक हकूक को लेकर समाज में आती जागरूकता को और संबल देने वाली भी है। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार ‘बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ’ के माध्यम से लड़कियों की शिक्षा और स्वावलंबन की झंडाबरदारी कर रहे हैं और अब मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने उसी दिशा समाज के जागरण का आह्वान किया है। वैसे भी उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन से लेकर जन जागरण और जनांदोलन के हर मोर्चे पर पहाड़ प्रदेश की आधी आबादी ने सिर्फ हिस्सेदारी नहीं बल्कि नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया है। इस लिहाज से सीएम धामी की ‘कन्यादान से पहले विद्यादान’ की अलख प्रदेश से निकलकर देश के लिए एक मिसाल बन सकती है। 

यह सच है कि प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में ‘कन्यादान’ को महादान माना गया है, लेकिन समय के साथ समाज बदलता रहता है। बदलती परिस्थितियों के अनुसार समाज की संस्कृति, रीति-रिवाज एवं परम्पराएं भी बदलती रहती हैं। जो समाज समय के साथ अपनी सोच को बदलता रहता है वो विकास के नए प्रतिमान स्थापित करता है और जो समाज समय के साथ अपने आपको नहीं बदल पाता वह समाज जड़ ही रह जाता है। एक समय भारतीय समाज में भी सती प्रथा, बाल विवाह एवं विधवा विवाह निषेध को भी सामजिक मान्यता थी लेकिन समय के साथ भारतीय समाज से इनको खत्म करने की कोशिश की गई। आज वास्तव में पूरे समाज को ‘कन्यादान’ से पहले ‘विद्यादान’ की सोच को अपनाने की जरूरत है। सरकारें लड़कियों की शिक्षा के महत्त्व को अच्छी तरह से समझती है इसीलिये केंद्र की मोदी सरकार भी ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का नारा देकर समाज को लड़कियों की शिक्षा के प्रति प्रोत्साहित कर रही है। आज लड़का एवं लड़की के बीच भेदभाव मिटाकर लड़कियों की शिक्षा पर भी निवेश की जरूरत है।एक सर्वे के मुताबिक लड़कियों की शिक्षा पर किया गया निवेश, लड़कों के मुकाबले अधिक प्रतिफल की गारंटी देता है। हर साल बोर्ड परीक्षाओं से लेकर आईएएस जैसी देश की सबसे कठिन परीक्षाओं के रिजल्ट उठाकर देख लीजिये उनमें टॉप करने वाली अधिकांश लड़कियां ही होती है।

हाल के वर्षों में महिलाओं ने हर प्रतियोगी परीक्षाओं में न केवल अपना स्थान ही बनाया है, बल्कि शुरुआती अनेक स्थानों पर दस्तक दी है, जो उनके सतत प्रयास और मेहनत को मिल रही सफलता की ओर इशारा करता हैं। प्रशासनिक सेवाओं समेत हर क्षेत्र में महिलाओं की बढती भागीदारी सामाजिक संतुलन के साथ व्यवस्था को नई सोच के साथ विकसित करने की दिशा में भी एक अच्छा कदम है। आम आदमी बढ़ते भ्रष्टाचार और प्रशासनिक लचरता से निराश है। ऐसे में प्रशासन में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी नई उम्मीद जगाती है। समाज में कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हुए अपनी हैसियत बनाती महिलाओं की तस्वीर आज वैसी निराशाजनक नहीं है जैसी पहले हुआ करती थी, पर यह भी एक कटु सत्य है कि महिलाएं लैंगिक पूर्वाग्रहों के कारण तमाम क्षेत्रों में अब भी पुरुषों से पीछे हैं। भारत में महिलाओं के लिए कुछ ज्यादा ही समस्याएँ हैं। भारत में जन्म से लेकर ताउम्र लड़कियों के साथ भेदभाव किया जाता है। घर-परिवार में लड़कों को ज्यादा तरजीह दी जाती है। कामकाजी महिलाओं को भी कार्यक्षेत्र में हर वक्त उपेक्षाओं का दंश झेलना पड़ता है।

दरअसल भारत मे महिलाओं को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। समाज में आमतौर पर लड़कियों को बोझ माना जाता रहा है। इस मान्यता को तमाम विकास के बावजूद भी आज पूरी तरह से नहीं बदला जा सका है। लड़कियों को पराया धन समझा जाता है। माना जाता है कि शादी के बाद वह दूसरे घर चली जायेगी। इसी सोच के चलते उनके साथ हर कदम पर भेदभाव होता है। उन पर होने वाले खर्च को धन की बर्बादी माना जाता है। इसीलिए समाज में उनकी पढ़ाई -लिखाई के बजाए जल्द से जल्द उनकी शादी कर देने पर जोर दिया जाता है। समाज की यही मानसिकता लड़कियों के समक्ष कई मुश्किलें खड़ी कर देती है। इसी के चलते बाल विवाह को बढ़ावा मिलता है। वैसे तो भारत में 1929 से ही बाल विवाह पर कानूनी रोक है, लेकिन आज के समय भी आधी लड़कियों का विवाह 18 वर्ष से कम उम्र में हो जाता है, जिसके चलते वे कम उम्र में ही माँ बन जाती है। इस दौरान वे अपने साथ अपने बच्चे के भविष्य को भी खतरे में डालती है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार भारत में 19 साल से कम उम्र में माँ बनने के दौरान हर वर्ष तकरीबन 6000 लड़कियां दम तोड़ देती हैं। देश में ज्यादातर महिलाओं में शिक्षा के अभाव के चलते जागरूकता की कमी होती है, लिहाजा वे स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलों का सामना ठीक ढंग से नहीं कर पाती। देश में कई प्रकार की स्वास्थ्य सम्बन्धी योजनायें चल रही है लेकिन अधिकांशतः जानकारी के अभाव में योजनाओं का लाभ नहीं ले पाती हैं। हालाँकि व्यवस्थागत खामियाँ भी मौजूद है और सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार भी, लेकिन असल समस्या जागरूकता से जुड़ी है। जब तक आम महिलाएँ जागरूक नहीं होंगी, तब तक इन समस्याओं से छुटकारा नहीं पाया जा सकता है।

 बहरहाल, महिलाओं की मुश्किलें काफी हद तक कम हो सकती है, लेकिन हमें उन्हें शिक्षित बनाने पर जोर देना होगा। यूनिसेफ के मुताबिक यदि किशोरावस्था में लड़कियों की शिक्षा और जागरूकता का ध्यान रखा जाए तो हम कम से कम अगली पीढ़ी को ज्यादा सशक्त कर सकेंगे। देश की लगभग एक चौथाई आबादी 10-19 आयु वर्ग की है। यदि इस आबादी की लड़कियों को हम शिक्षित बनायें तो निश्चित तौर उनका भविष्य कहीं बेहतर स्थिति में होगा। गौरतलब है कि देश में न्यायोचित समाज की परिकल्पना तभी साकार हो सकती है जब लैंगिक भेदभाव खत्म हो। महिलाओं को सार्वजनिक जीवन के विविध क्षेत्रों में पुरूषों के समान अधिकार प्राप्त हों। यदि ऐसा होता है तो निश्चित रूप से महिलाओं के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव नजर आयेगा। 

विगत कुछ सालों से महिलाओं के लिए नए-नए अवसर खुल रहे हैं जिसका उन्होंने फायदा भी उठाया है। महिलाओं को जहां मौका मिला है उन्होंने खुद को साबित भी किया है। अध्ययन से पता चलता है कि अपेक्षाकृत कम शिक्षित तथा कम अनुभव होने के बावजूद भारत में प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं का प्रदर्शन अपने पुरूष समकक्षों की तुलना में बेहतर है। आज पहले के मुकाबले ज्यादा महिलाएं घरों से निकलकर महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को संभाल रहीं हैं। इससे हमारा सामाजिक जीवन भी कई स्तरों पर प्रभावित हुआ है। महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक भी हुई हैं लेकिन अभी ये सब पुरूष और स्त्री को समान पायदान पर खडे करने के लिए नाकाफी है। इसके लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।

Show More

The News Adda

The News अड्डा एक प्रयास है बिना किसी पूर्वाग्रह के बेबाक़ी से ख़बर को ख़बर की तरह कहने का आख़िर खबर जब किसी के लिये अचार और किसी के सामने लाचार बनती दिखे तब कोई तो अड्डा हो जहां से ख़बर का सही रास्ता भी दिखे और विमर्श का मज़बूत मंच भी मिले. आख़िर ख़बर ही जीवन है.

Related Articles

Back to top button
error: Content is protected !!