ADDA Explainer: चुनाव आयोग के हरियाणा विधानसभा चुनाव की तारीखों के ऐलान को चौबीस घंटे भी नहीं गुजरे कि लोकसभा चुनावों से पहले तक बीजेपी के साथ राज्य की सत्ता चला रही जननायक जनता पार्टी (JJP) को झटके पर झटका लग रहा है। विधानसभा में दस विधायकों वाली पार्टी JJP आज मात्र तीन विधायकों तक सिमट गई है। बीते चौबीस घंटों में JJP के चार विधायकों ने पार्टी से इस्तीफा देकर हरियाणा की राजनीति में तहलका मचा दिया है।
बहरहाल ऐसे समय जब दुष्यंत चौटाला की पार्टी में उनकी मां नैना चौटाला को जोड़कर कुल जमा तीन ही एमएलए बचे हैं,तब यह सवाल कितना मौजूं है कि क्या इस बार के विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियां गेमचेंजर साबित होंगी? भले JJP से तमाम विधायक एक के बाद भाग खड़े हुए हों लेकिन हमने छोटी पार्टियों की बड़ी भूमिका को लेकर जो सवाल आपके सामने रखा है उसकी एक मजबूत पृष्ठभूमि दिखलाई पड़ती है।
छोटी पार्टियों की भूमिका क्यों अहम ?
यूं दिल्ली को तीन तरफ से घेरे पहलवानों के प्रदेश हरियाणा के सियासी दंगल में सत्ताधारी बीजेपी और मुख्य विपक्षी कांग्रेस आमने सामने नजर आ रही हैं और बीते दो दशक में इन्हें ही बारी बारी सत्ता भागीदारी का सुख मिलता आया है। बावजूद इसके अगर आज सूबे के समूचे राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो कई छोटी पार्टियां डार्क हॉर्स साबित हो सकती हैं। यह तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब पता चलता है कि पिछले चुनाव नतीजों में नई नवेली JJP किंगमेकर बनकर उभरती है और बीजेपी चुनाव प्रचार में धुर विरोधी दिख रहे दुष्यंत चौटाला को उपमुख्यमंत्री बनाने को मजबूर होती है।
छोटी पार्टियों पर नजर इस लिहाज से भी बनाकर रखनी होगी,जब यह पता चलता है कि हाल में हुए लोकसभा चुनावों में राज्य की दस में से आधी आधी सीटें बीजेपी कांग्रेस के बंट जाती हैं। भले इस बड़ी लड़ाई के छोटी पार्टियों के हाथ कुछ न लगा हो लेकिन जब विधानसभा चुनाव में निर्वाचन क्षेत्रों का आकार सिमट जाएगा तो इन्हीं गैर असरदार दलों के हिस्से सत्ता की चाबी लग सकती है।
छोटी पार्टियां
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ इंडिया गठबंधन के घटक के तौर पर कुरुक्षेत्र सीट से चुनाव लड़ी आम आदमी पार्टी अपने नेता व दिल्ली सीएम अरविंद केजरीवाल के गृह प्रदेश में अकेले दम मैदान मारने उतर रही है। फिर विधायकों को रोकने में नाकाम दिख रही JJP भी तो फिर किंगमेकर बनने का ख्वाब लेकर उतर चुकी है। दुष्यंत चौटाला के दादा ओम प्रकाश चौटाला और चाचा इंडियन नेशनल लोकदल यानी इनेलो (INLD) के झंडे तले पार्टी और खुद के राजनीतिक अस्तित्व को बचाने उतर रहे हैं। इनेलो को मायावती की बसपा का साथ भी मिल चुका है। जबकि गोपाल कांडा की हरियाणा लोकहित पार्टी (HLP) भी कांग्रेस और बीजेपी के सामने ताल ठोकने को रेडी है।
बीजेपी कांग्रेस के सामने कौनसी चुनौतियां ?
पहले बात अगर सत्ताधारी बीजेपी की करें तो पिछले दस साल से सूबे में सरकार चला रहे कमल कुनबे को एंटी इनकंबेंसी से दो दो हाथ करते हुए जीत की हैट्रिक लगानी होगी। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे और गृह मंत्री अमित शाह के राजनीतिक चातुर्य के बावजूद 2014 में लोकसभा चुनाव के ठीक बाद हुए विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत हासिल करने वाली बीजेपी 2019 आते-आते दोबारा बहुमत का आंकड़ा छूने से कुछ कदम पहले ही हांफने लगती है और JJP व निर्दलियों की बैसाखी लेनी पड़ती है। रही सही कसर 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों ने पांच-पांच देकर पूरी कर दी। भले मनोहर लाल खट्टर को हटाकर नायब सिंह सैनी को ओबीसी चेहरा प्रोजेक्ट कर चीफ मिनिस्टर बनाया हो तथा ब्राह्मण चेहरे के तौर पर लोकसभा चुनाव हार गए मोहन लाल बडौली को प्रदेश पार्टी अध्यक्ष की कमान सौंपी हो लेकिन सत्ता विरोधी लहर का कितना डैमेज कंट्रोल कर पाएगी देखना होगा।
हालात कांग्रेस के भी बहुत अच्छे नजर नहीं आ रहे थे लेकिन लोकसभा की लड़ाई में मुकाबला बराबरी पर छूटने के बाद अब विपक्षी दल के नेताओं के हौसले बुलंद हैं। लेकिन यह अभी भी उतना ही कटु सत्य है कि किरण चौधरी बेटी श्रुति चौधरी के साथ पार्टी छोड़कर बीजेपी जा चुकी हैं। पिता पुत्र भूपेंद्र सिंह हुड्डा और दीपेंद्र सिंह हुड्डा कैंप की कुमारी शैलजा व रणदीप सिंह सुरजेवाला कैंप के साथ पटरी बैठ नहीं रही है। इस सियासी शीत युद्ध का नजारा पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी की मौजूदगी में दिल्ली में हुई बैठक में भी दिख गया था।
सवाल है कि बीजेपी और कांग्रेस अपनी आंतरिक कमजोरियों से कितना अधिक उभर पाएंगे और जनता में कितना स्थान बना पाएंगे यह नतीजों में दिखेगा। लेकिन पहले से चुनाव लड़ती आ रही इनेलो और JJP जैसी छोटी पार्टियों के साथ साथ अब कुरुक्षेत्र में मात्र 29021 वोटों से बीजेपी के नवीन जिंदल से पिछड़कर सुशील गुप्ता को जिताने से चूक गई आम आदमी पार्टी गुरुग्राम, रोहतक, हिसार और फरीदाबाद आदि शहरी क्षेत्रों/जिलों में कितना और किस किस दल के नुकसान पर अपना आधार मजबूत करती है यह चुनाव नतीजो में बड़ा उलटफेर होता दिखा सकता है। हालांकि 2019 के विधानसभा चुनावों में AAP के हिस्से कुछ नहीं आया था लेकिन पंचायत और जिला परिषद चुनाव में कुछ पॉकेट्स में उसने अपनी प्रेजेंस दिखाई है।
वैसे देखें तो आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस की तर्ज पर बीजेपी के खिलाफ भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और खेती किसानी से जुड़े मुद्दे उठा रही यानी बीजेपी विरोधी वोट बंटने का खतरा कांग्रेस के लिए हो सकता है।
उधर बीजेपी ने जब से जेजेपी को दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका उसके बाद से दुष्यंत चौटाला फिर से अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में कोर वोटर्स से कनेक्ट बनाने की कोशिश कर रहे। जाहिर है पिछली बार 10 विधायक जिताकर किंगमेकर बनी जेजेपी इस परफॉर्मेंस को दोहराना चाहेगी और जाट वोटों में कभी अच्छा दखल रखने वाली ये पार्टी मजबूत होगी तो कांग्रेस को नुकसान भी पहुंचा सकती है।
कभी हरियाणा के अपनी सरकार बनाने वाला दल इनेलो इस बार अपने राजनीतिक वजूद की लड़ाई लड़ेगा। हालांकि बीएसपी के साथ गठबंधन कर जाट वोटों के साथ दलित वोटों का गठजोड़ बनाने की रणनीति बनाई गई है लेकिन असर कितना होगा कहा नहीं जा सकता है।
वोट बैंक
90 सदस्यों वाली हरियाणा विधानसभा में सत्ता के शिखर पर पहुंचने के लिए सूबे की सबसे बड़ी आबादी जाट वोटों का सहारा सबसे महत्वपूर्ण माना जाता रहा है लेकिन दो चुनावों से बीजेपी ने गैर जाट वोटों को अपने साथ लाकर सत्ता हासिल की है। लेकिन अब यमुना में बहुत पानी बह चुका है और किसान आंदोलन से लेकर बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के साथ सत्ता विरोधी माहौल ने बीजेपी को कमजोर विकेट पर पहुंचा दिया है। लोकसभा चुनाव में पांच सीटों पर उसकी हार यही संदेश देती है।
हरियाणा में जाट वोटों के अलावा ओबीसी वोटर निर्णायक हैं और नायब सिंह सैनी को ओबीसी चेहरा प्रोजेक्ट कर मुख्यमंत्री बनाने का दांव बीजेपी ने इसी वर्ग को टारगेट कर खेला है। दलित, यादव,सैनी, गुर्जर, ब्राह्मण, पंजाबी और मेव वोटर प्रभावी हैं।
जाहिर है बीजेपी और कांग्रेस में सत्ता का भीषण कुरुक्षेत्र छिड़ना है लेकिन छोटी पार्टियों को पूरी तरह से नजरंदाज करना जोखिम भरा साबित हो सकता है। आखिर पिछली बार JJP और निर्दलियों के हिस्से बड़े नंबर आना साबित करता है कि कांग्रेस और बीजेपी में लड़ाई चाहे जितनी प्रचंड हो जाए, इन छोटे दलों के लिए उम्मीदें फिर भी कायम रहेंगी। क्योंकि बड़े दलों के टिकट से चूक जाने वाले नेताओं का ठिकाना भी ये छोटी पार्टियां हो सकती हैं तो जिन सीटों पर मल्टी कॉर्नर चुनावी फाइट होगी वहां इन छोटे दलों के उम्मीदवार डार्क हॉर्स साबित हो सकते हैं।
बहरहाल जो भी हो हरियाणा की सत्ता की बिग फाइट में छोटे दलों को फिलहाल तो खारिज नहीं ही किया जा सकता है।