देहरादून: यह सिर्फ हरीश रावत जैसे नेता की ही राजनीतिक कुव्वत है कि ठीक पांच साल पहले चुनाव में जिस नेता को भाजपा ने सीएम होने के बावजूद न केवल दो-दो सीटों से हराया, कांग्रेस का भी सूपड़ा साफ कर दिया और वह महज 11 सीटों पर सिमट गई। लेकिन आज जब फिर चुनाव की रणभेरी बज चुकी है तब देवभूमि दंगल में भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व से लेकर प्रदेश नेता जिससे सबसे ज्यादा घबराए हैं वह हरीश रावत ही हैं। इसका अहसास केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के चुनावी दौरों में बार-बार और लगातार निशाने पर हरीश रावत के लिए जाने से समझा जा सकता है। अब तो आलम यह है कि भाजपा नेताओं से प्रेस वार्ताओं में बाकायदा सवाल के तौर पर पूछा जाने लगा है कि सत्ताधारी भाजपा अकेले हरीश रावत से इतनी ख़ौफ़ज़दा क्यों हैं।
दरअसल, हरीश रावत ने जिस तरह से पूरे चुनाव को उत्तराखंडित के मुद्दे पर लाकर टिका दिया है और मैसेज दे दिया है कि अब जनता ही भाजपा से चुनावी मुकाबला कर रही है, उसने भाजपा थिंकटैंक को बेचैन कर दिया है। भाजपा थिंकटैक लगातार इसी पर मंथन कर रहा है कि आखिर हरीश रावत को न केवल विधानसभा चुनाव 2017 में बल्कि लोकसभा 2019 में भी शिकस्त दी गई लेकिन महज दो ढाई साल बाद वहीं नेता विधानसभा चुनाव में जीत दोहराने के भाजपा के इरादों के सामने ढाल बनकर खड़ा हो गया है! आखिर हरीश रावत के मुकाबले कुमाऊं कार्ड और युवा ठाकुर सीएम चेहरे का दांव भी बेअसर क्यों लग रहा है? ऐसा इसलिए कहा जा रहा क्योंकि तमाम सर्वेक्षणों में कुमाऊं से सीएम पुष्कर सिंह धामी और केन्द्रीय रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट के बावजूद भाजपा बुरी तरह पिछड़ती दिखाई जा रही है।
पिछले पांच सालों में भाजपा की सियासत का एक दौर ऐसा भी रहा कि गढ़वाल से त्रिवेंद्र-तीरथ के रूप में न केवल दो-दो सीएम बनाए गए बल्कि केन्द्र सरकार में हरिद्वार सांसद रमेश पोखरियाल निशंक पर भारी भरकम शिक्षा मंत्रालय का ज़िम्मा भी रहा। लेकिन हरीश रावत के पक्ष में कुमाऊं में कांग्रेस को लेकर भारी लहर और भाजपा पर इस मंडल की उपेक्षा का आरोप न लगे इसलिए धामी-भट्ट को कुर्सी सौंपी गई थी। बावजूद इसके भाजपा अभी भी अंदरूनी तौर पर कुमाऊं की 29 सीटों पर खुद को कमजोर मान रही है। खासतौर पर कुमाऊं के पर्वतीय जिलों की विधानसभा सीटों पर उसकी हालत ज्यादा खराब बताई जा रही है। कांग्रेस के मुकाबले बगावत और भितरघात का खतरा भी भाजपा की नींद उड़ा रहा है।
हरीश ने पिछले पांच सालों में दो-दो चुनावी शिकस्त खाकर भी मैदान नहीं छोड़ा और उत्तराखंडियत को बड़ा मुद्दा बनाकर भाजपा के डबल इंजन ड्रीम को धोखा करार देने की रणनीति अपनाई। महंगाई, बेरोज़गारी और बार-बार मुख्यमंत्री बदलकर खुद ही नेतृत्व की नाकामी पर भाजपाई मुहर हरीश रावत की राह आसान करती गई है। यह भाजपा के लिए किसी राजनीतिक विडंबना से कम नहीं कि जहां मोदी सरकार के रेल से लेकर रोड के अनेक प्रोजेक्ट उत्तराखंड में बताने को हैं लेकिन वहीं तीन-तीन मुख्यमंत्रियों के बावजूद राज्य सरकार के अपने पांच साल के ठोस काम गिनाने में उसके पसीने छूट रहे। देवस्थानम बोर्ड का गठन करने और फिर उसे खत्म करने और गैरसैंण कमिश्नरी बनाकर पलट जाने से लेकर लोकायुक्त को गैर जरूरी करार देने और भू क़ानून जैसे मुद्दे पर जनता में संदेह के घेरे में उसकी छवि क़ैद है।
यही वजह है कि पिछले चुनाव में स्टिंग प्रकरण जैसे इस्तेमाल किए गए मुद्दों को तीर बनाकर भाजपा फिर चुनावी प्रत्यंचा पर चढ़ा रही लेकिन वह भूल जा रही कि आज सत्ता में कांग्रेस नहीं है लिहाजा जवाब देने का ज़िम्मा भी भाजपा का ही है। ऐसे हालात में जब जनता को विकास की कहानी बेमानी लग रही तब आईटी सेल एक अदने से कांग्रेस नेता की मुस्लिम यूनिवर्सिटी की मांग के सहारे हरीश रावत के खिलाफ सोशल मीडिया में अभियान चलाने में जुट गई है। रावत की फोटो को एडिट कर मुस्लिम चेहरा दिखाकर अपनी कमज़ोरियों पर पर्दा डालने को वोटर्स को भरमाने का दांव खेल रही है लेकिन क्या जनता आईटी सेल के व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी प्रोपेगंडा में फंस जाएगी!