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संसाधनों से भरपूर उत्तराखंड नीतियों के अभाव में नियति के भरोसे अब और कब तक? 

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Your कॉलम (दुर्गा प्रसाद नौटियाल): उत्तराखंड एक ऐसा प्रदेश है, जिसे प्रकृति ने अपना भरपूर आशीर्वाद दिया है—ऊँचे पर्वत, निर्मल नदियाँ, धार्मिक आस्था के केंद्र, जैव-विविधता, और कठोर मेहनत करने वाली जनता। राज्य निर्माण को ढाई दशक हो गया है, लेकिन आज भी हमें यह सवाल कचोटता है- क्या हमने इस राज्य की असाधारण क्षमताओं का सही दोहन किया है? या फिर हम सिर्फ़ घोषणाओं, रिबन काटने और प्रतीकात्मक विकास की राजनीति में उलझकर रह गए हैं?

उत्तराखंड की विकास यात्रा आज भी नीति से ज़्यादा नियति के भरोसे चलती प्रतीत होती है। राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र दो अलग दिशाओं में चलते हैं, और समन्वय के अभाव में न तो ठोस योजना बन पाती है और न ही उसका ज़मीनी क्रियान्वयन होता है। ब्यूरोक्रेसी पर आधारित विकास का सपना देखना, बिना जनता की भागीदारी के, किसी मृगमरीचिका से कम नहीं।

राज्य के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं- सेब, आलू, बुरांश, मंडुवा, जड़ी-बूटियाँ, ऑर्गेनिक खेती की संभावना, धार्मिक व सांस्कृतिक धरोहर, और अपार टूरिज़्म की शक्ति। फिर भी इनका समुचित और वैज्ञानिक दोहन आज तक नहीं हो पाया। किसानों को न प्रोसेसिंग यूनिट्स मिलती हैं, न बाज़ार, न ही सप्लाई चेन का समर्थन। हर्बल इंडस्ट्री के लिए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार तैयार है, पर राज्य के पास कोई ब्रांड नहीं। ऑर्गेनिक खेती सिर्फ भाषणों में है, नीति और योजना के स्तर पर यह अभी भी अनछुआ क्षेत्र बना हुआ है।

टूरिज़्म की बात करें तो चारधाम यात्रा, नैसर्गिक स्थल, ट्रैकिंग रूट्स, और धार्मिक पर्यटन को यदि इको-टूरिज़्म के साथ जोड़कर विकसित किया जाए, तो यह न केवल राजस्व का बड़ा स्रोत बन सकता है बल्कि पहाड़ के युवाओं के लिए रोज़गार का भी स्थायी साधन हो सकता है। लेकिन आज भी राज्य इसी सीमित सोच में बंधा है कि पर्यटन सिर्फ़ मंदिरों तक ही सीमित है।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उत्तराखंड के गुदड़ी के लाल हमारे युवा देश और विदेश में बेहतरीन कार्य कर रहे हैं, लेकिन राज्य के पास उनके लिए न कोई मंच है, न योजना। न रिसर्च की सुविधा है, न स्टार्टअप्स को प्रोत्साहन। इससे पलायन बढ़ता है, और पहाड़ खाली होते जा रहे हैं।

इस पूरे परिदृश्य में सबसे ज़रूरी है- एक दूरदर्शी, सशक्त और स्थानीय समझ वाली टीम का गठन, जो राज्य के प्रत्येक जिले की विशेषता के आधार पर विकास का मॉडल तैयार करे। योजनाएं कागज़ पर नहीं, धरातल पर बनें और समयबद्ध तरीक़े से लागू हों। एक पारदर्शी और भागीदारी आधारित शासन तंत्र ही उत्तराखंड को सही मायनों में प्रगति की राह पर ले जा सकता है।

अब समय आ गया है कि हम केवल ‘घोषणाओं’ की राजनीति से बाहर आएँ। उत्तराखंड की असली ताक़त—गंगा जल, चारधाम यात्रा, ऑर्गेनिक खेती, हर्बल इंडस्ट्री और धार्मिक व इको-टूरिज़्म को समेकित रूप से एक नीति के अंतर्गत लाना होगा, जिसमें पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ स्थानीय लोगों की समृद्धि का स्पष्ट रोडमैप हो।

आज ज़रूरत है एक ऐसे उत्तराखंड की कल्पना करने की, जो अपने संसाधनों को पहचान कर, उन्हें आत्मनिर्भरता और रोज़गार में तब्दील कर सके। जो अपने युवाओं को अवसर दे, अपने किसानों को बाज़ार दे, और अपने प्राकृतिक वैभव को टिकाऊ रूप से उपयोग में लाए। घोषणाओं से नहीं, ज़मीनी परिणामों से उत्तराखंड की तस्वीर बदलेगी—और उसके लिए अब और देर नहीं की जा सकती..क्योंकि अब देर हुई तो बहुत देर हो जाएगी। 

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