देहरादून: उत्तराखंड की चुनावी लड़ाई में 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर 2019 तक हार की हैट्रिक बना चुकी कांग्रेस को 22 बैटल से बड़ी उम्मीदें हैं। लेकिन जिस तरह से कांग्रेस की दूसरी सूची आई है उसने कांग्रेस के भीतर और बाहर कईयों को सोचने मजबूर किया है कि कांग्रेस को बड़ी जीत का मुग़ालता पालने की ख़ुशफ़हमी से बाहर निकलना चाहिए क्योंकि टिकट बँटवारे की दूसरी लिस्ट आते-आते अब वह 2012 यानी 31-32 जैसे चुनाव नतीजे की तरफ बढ़ रही है।
सत्ताधारी भाजपा ने जहां 59 प्रत्याशियों की पहली लिस्ट बेहद संतुलित रखी तो वहीं कांग्रेस ने भी 53 प्रत्याशियों की अपनी पहली लिस्ट से उसी अंदाज में जवाब दिया। लेकिन सोमवार शाम आई कांग्रेस की 11 नामों की दूसरी लिस्ट कई तरह के सवाल खड़े करती है। एक सवाल तो यही उठ रहा कि कहीं युवा, कहीं महिला और कहीं ऊपर से आए नाम एडजेस्ट करने के चक्कर में कांग्रेस ने जीत के समीकरण से समझौता कर लिया?
बहरहाल इस सवाल के भीतर का सच समझना होगा तो शुरुआत ऊपर से ही यानी राहुल गांधी और हरीश रावत के स्तर से करनी होगी। राहुल गांधी ने एक संदेश दिया है कि चाहे बड़ा नेता हो या छोटा लेकिन एक परिवार एक टिकट फ़ॉर्मूला अपनाया जाए। जबकि भाजपा में भी यही फ़ॉर्मूला चला है लेकिन 2017 में जब कांग्रेस ने तत्कालीन कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य के बेटे को टिकट देने से इंकार कर दिया तब हारकर आर्य ने भाजपा का रुख किया और आसानी से दो टिकट दे दिए गए। जबकि उसी चुनाव में नौ विधायक लेकर गए पूर्व सीएम विजय बगुगुणा को अपनी सीट देकर बेटे सौरभ बहुगुणा को टिकट दिलाई थी। यानी भाजपा ने सियासी समीकरण भांपकर आर्य पिता-पुत्र पर फैसला लिया।
ऐसे में सवाल है कि क्या कांग्रेस को भी हार-जीत के सियासी समीकरण ध्यान में नहीं रखने चाहिए! अब जब कांग्रेस में घर वापसी कर आर्य पिता-पुत्र को टिकट मिल चुके हैं तब क्या राहुल गांधी को पार्टी को सावधानीपूर्वक सियासी गणित देखकर इस फ़ॉर्मूले पर नहीं आगे बढ़ना चाहिए! आखिर राजनीति में किसी परिवार के दूसरे एक्टिव सदस्य को सिर्फ इस बिना पर तो टिकट से वंचित नहीं किया जा सकता कि उस परिवार से कोई पहले से राजनीति में सक्रिय है। हरीश रावत के साथ यही हो रहा है। हरदा के दो बेटे वीरेन्द्र रावत और बेटी अनुपमा रावत राजनीतिक क्षेत्र मे सक्रिय है और कांग्रेस की सांगठनिक इकाइयों में काफी समय से पदाधिकारी रहते सक्रिय हैं। वैसे भी एक परिवार से एक टिकट देकर भी परिवारवाद को राजनीति में ज़िंदा रखने की आसान कवायद ही क्यों न माना जाए! अगर आज हरक सिंह रावत की जगह उनकी बहू टिकट पा गई तो क्या अब हरक घर बैठ जाएंगे?
अब हरीश रावत चाहते हैं कि उनके एक बच्चे को तो कम से कम टिकट मिल ही जाए। लेकिन राहुल गांधी अपने फ़ॉर्मूले से किसी को भी राहत देने के मूड में नहीं लिहाजा रावत भी अभी तक निराश हैं और दो सूची जारी हो चुकी लेकिन अनुपमा रावत जहां से दावेदारी कर रहीं उस हरिद्वार ग्रामीण सीट का निपटारा नहीं हो पा रहा। जाहिर है इस पेंच ने रावत को मायूस किया ही होगा और इसका असर दूसरी जगह दिखना लाज़िमी है। रावत की रामनगर च्वाइस को देखकर भी इसे समझा जा सकता है।
पहले राहुल के एक परिवार एक टिकट फ़ॉर्मूले वाली जिद की बात की और अब बात करते हैं हरदा की जिद की। दरअसल इसे हरदा जैसे वरिष्ठ नेता जिनको अघोषित तौर पर कांग्रेस का सीएम चेहरा ही माना जा रहा है, की जिद ही कहा जाएगा कि उन्होंने उस सीट से दावेदारी करके टिकट हासिल की है जहां से भले एक समय उनके शिष्य रहे हों लेकिन अब धुर विरोधी रणजीत रावत दावेदारी कर रहे थे। इसमें किसी को रत्ती भर भी संदेह नहीं था कि अगर रावत रामनगर सीट माँगने पर आ जाएंगे तो न प्रीतम और न ही रणजीत रोक पाएंगे। लेकिन इस जिद के दुष्प्रभाव कांग्रेस की एकजुटता मुहिम पर तो लाज़िमी तौर पर पड़ेंगे ही चुनावी नतीजे भी प्रभावित हो सकते हैं।
जबकि रावत के पास सल्ट जैसी सीट पर चुनाव लड़ने का आसान विकल्प मौजूद था लेकिन उन्होंने इसे रणजीत की तरफ धकेल दिया है। अब अगर रणजीत ने जीत नहीं छोड़ी तो सल्ट और रामनगर दोनों सीटों पर नुकसान हो सकता है। इतना ही नहीं हरदा के लिए उनके कुछ शुभचिंतकों ने लालकुआं सीट भी सुझाई थी जहां से मौजूदा हालात में चुनाव जीतना उतना कठिन भी न होता और संध्या डालाकोटी को टिकट देकर हरीशचन्द्र दुर्गापाल और हरेन्द्र वोरा के बागी होने का जो खतरा मोल लिया गया है वह भी तब शायद नहीं होता।
अगर हरदा लालकुआं आते तो कल तक महेश शर्मा के चलते मजबूत समझी जा रही बगल की कालाढूंगी सीट भी संकट में नहीं फंसती। बंशीधर भगत के सामने महेन्द्र पाल के मुकाबले महेश शर्मा कहीं ज्यादा बेहतर चुनाव लड़ रहे होते लेकिन जब हरदा को लालकुआं भी रास नहीं आया तो ठाकुर-ब्राह्मण कॉम्बिनेशन में सल्ट से गंगा पंचोली को हटाया गया तो लालकुआं में ब्राह्मण महिला प्रत्याशी संध्या डालाकोटी आ गई और कालाढूंगी में महेश शर्मा की जगह ठाकुर चेहरे डॉ महेन्द्र पाल आ गए।
साफ है कुमाऊं की रामनगर सीट को लेकर हरदा की चाहत ने सल्ट, लालकुआं और कालाढूंगी को लेकर भी सियासी समीकरण उलझा दिए हैं।
कुछ इसी अंदाज में यूथ कोटे के नाम पर डोईवाला और ऋषिकेश जैसी टक्कर वाली सीटों पर वॉक ऑवर हालात बना दिए गए हैं। वैसे अभी तीसरी लिस्ट का इंतजार है। देखना होगा उसमें हरदा-प्रीतम अदावत में नरेन्द्रनगर में भी कुछ ऐसा ही होता है या ओम गोपाल रावत की कांग्रेस में एंट्री हो जाती है। हरिद्वार ग्रामीण को लेकर फिल्डिंग ने लक्सर और दूसरी सीटों पर भी असर डाला हुआ है। टिहरी और चौबट्टाखाल में भी नजर रखनी होगी।
चौबट्टाखाल में भी राहुल-हरदा की जिद का नतीजा है कि हरक सिंह रावत जैसे नेता को उनकी मांग के बावजूद भाजपा के दिग्गज सतपाल महाराज से दो-दो हाथ करने का मौका नही दिया जा रहा। सिर्फ इसलिए कि एक परिवार एक टिकट के नाम पर हरक की बहू को लैंसडौन से टिकट मिल चुका है। जबकि हार और जीत से दूर अगर महाराज जैसे दिग्गज के सामने कांग्रेस किसी यूथ कोटे जैसा समीकरण साधने की बजाय हरक जैसा लड़ैया उतारती है तो इसका असर उस सीट के मुकाबले से आगे कई सीटों पर दिख सकता है। आखिर चुनावी लड़ाई में मोदी-शाह सिर्फ जीत के समीकरण पर फोकस करते हैं तभी तो मुलायम परिवार की बहू अपर्णा बिष्ट यादव भी स्वीकार है और जीत न दिखे तो जनरल खंडूरी की बेटी ऋतु खंडूरी का टिकट काटने से भी गुरेज़ नहीं। लेकिन हरदा-प्रीतम की जंग थमे तब शायद बीजेपी से जीतने के समीकरण पर बात हो फिलहाल तो जंग से पहले घर के विरोधी टिकट बँटवारे के बहाने निपटाए जा रहे!