देहरादून: त्रिपुरा में बिप्लब कुमार देब के इस्तीफे के बाद नये मुख्यमंत्री बन रहे माणिक साहा न तो आरएसएस ये निकलकर यहां तक पहुँचे हैं, न ही खाँटी जनसंघी-भाजपाई ही हैं। दरअसल, पेशे से डेंटिस्ट माणिक साहा ने छह साल पहले 2016 में भाजपा ज्वाइन की थी और 2020 में उनको त्रिपुरा भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया था। इस साल बीते अप्रैल में ही वे त्रिपुरा की इकलौती राज्यसभा सीट से संसद पहुँचे थे और महीनाभर भी हुआ नहीं कि उनको राज्य का अगला मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिल रहा है। हैं न अपने आप में माणिक साहा की भाजपा में कामयाबी की रफ़्तार वाली कहानी!
माणिक साहा आज त्रिपुरा भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं, राज्यसभा सांसद हैं और अब ठीक चुनाव से सालभर पहले अगले मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। यानी भाजपा ने उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी को ठीक चुनाव से आठ माह पहले मुख्यमंत्री बनाकर जो सफल दांव खेला था उसे अब त्रिपुरा में भी दोहरा दिया है।
असल सवाल यह है कि आखिर माणिक साहा ने इतने कम समय में कैसे इस धारणा को पलट दिया कि भाजपा में आकर कोई भी तुरत-फुरत सत्ता की शीर्ष कुर्सी नहीं पा सकता? या फिर गौर से देखें तो मोदी-शाह दौर में बदलती भाजपा का वो चेहरा नजर आ जाता है जो न संघ का बैकग्राउंड देखता है न खांटी भाजपाई होना खोजता है बल्कि चुनावी चुनौती में जीत का माद्दा जिसमें दिखता है वो ही सत्ता सिरमौर बन जाता है।
आखिर मौजूदा दौर की भाजपाई राजनीति में माणिक साहा इकलौता नाम नहीं जिन्हें बिना परम्पारगत भाजपाई हुए ही मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल रही है। आज कम से कम पांच भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री ऐसे हैं जो दूसरे दलों से आकर सीएम बन बैठे। कांग्रेस से भाजपा में आकर मुख्यमंत्री बनने वालों में सबसे बड़े चेहरा असम सीएम हिमंत बिस्वा सरमा का है , जो 2015 में कांग्रेस छोड़ते हैं और 2021 में असम में भाजपा की दोबारा जीत के नायक बनकर सीधे मुख्यमंत्री बनते हैं।
कर्नाटक में पिछले साल बीएस येदियुरप्पा को हटाकर सीएम बनाए गए बसवराव बोम्मई ने राजनीति में एंट्री जनता दल से की थी। 2008 में भाजपा ज्वाइन की और 2021 में मुख्यमंत्री बन गए। मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने 2016 में कांग्रेस छोड़ी और 2017 में भाजपा से विधायक बनकर सीएम बने और अब विधानसभा चुनाव 2022 जीतकर फिर मुख्यमंत्री बने हैं। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू भी कांग्रेस छोड़कर 2016 में भाजपा ज्वाइन करते हैं और आज बतौर मुख्यमंत्री क़ाबिज़ हैं।
अब इस लिस्ट में नया नाम त्रिपुरा मुख्यमंत्री के तौर पर माणिक साहा का जुड़ने जा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है कि जो भी चंद साल पहले भाजपा में आया और कामयाबी की नई सीढ़ियाँ चढ़ते चला गया। उत्तराखंड भाजपा में भी कांग्रेस छोड़कर 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री बनने का सपना लेकर कांग्रेस सांसद सतपाल महाराज आए थे। सतपाल महाराज 2014 के लोकसभा चुनाव में तो टिकट नहीं ही पा सके बल्कि मुख्यमंत्री की रेस में भी लगातार दो चुनावों में चार मौकों पर नाकाम रहे।
सतपाल महाराज की आध्यात्मिक गुरु की छवि और उत्तर भारत के यूपी, एमपी, हरियाणा, छत्तीसगढ़, गुजरात से लेकर कई राज्यों में अच्छी-खासी फ़ैन फॉलोइंग (भक्तों की संख्या) न केवल भाजपा-संघ बल्कि प्रधानमंत्री मोदी को भी सूट करती हैं। लेकिन महाराज 2017 और 2022 यानी दो-दो विधानसभा चुनावों के बाद भी मंत्रीपद तक सिमटने को मजबूर हैं। ऐसा नहीं है कि सत्रह में त्रिवेंद्र सिंह रावत के हाथों मुख्यमंत्री रेस में मात खाने के बाद महाराज को मौके नहीं मिले। 2021 में चुनाव से सालभर पहले टीएसआर को हटाया तो महाराज मोदी-शाह को प्रभावित नहीं कर पाए और तीरथ सिंह रावत को कुर्सी मिल गई।
चार महीने बीते नहीं और महाराज के पास फिर मुख्यमंत्री बनने का मौका था लेकिन महाराज फिर पुष्कर सिंह धामी के हाथों मात खा बैठे। धामी सीएम रहते 2022 का विधानसभा चुनाव हारे तो यह महाराज की महत्वाकांक्षाओं के लिए किसी सुनहरे अवसर से कम न था। लेकिन महज 7-8 माह के छोटे से कार्यकाल में अपनी सहज सुलभ छवि और लोगों से जुड़ाव की कोशिश ने धामी का कद महाराज जैसे प्रतिद्वंद्वी से इतना बड़ा कर दिया कि मोदी-शाह ने उनकी दोबारा ताजपोशी पर मुहर लगा दी।
दरअसल, ऐसा नहीं है कि भाजपा में सतपाल महाराज के रास्ते कांग्रेसी गोत्र के होने के चलते या संघ बैकग्राउंड न होने से बंद हुए बल्कि पॉलिटिकल कॉरिडोर्स में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को तो महाराज का शुभचिंतक करार दिया जाता रहा है। इतना ही नहीं मोदी-शाह से लेकर जेपी नड्डा तक महाराज की आध्यात्मिक छवि का सम्मान करते हैं। लेकिन एक राजनेता के तौर पर महाराज भाजपा नेतृत्व पर छाप छोड़ने में नाकाम दिखते हैं।
इसकी वजह भी साफ नजर आती हैं। सतपाल महाराज की विराट छवि के नीचे का असल सच यह है कि वे जमीन से कटे नजर आते हैं। पिछले पांच साल के पर्यटन मंत्री के अपने कार्यकाल में सतपाल महाराज टिहरी झील में ग्लास बोट चलाने से लेकर हर पखवाड़े नित नए इंटरनेशनल आइडिया बेचते रहे लेकिन जमीनी हक़ीक़त यह है कि सूबे के टूरिज्म सेक्टर की बुनियाद मजबूत करने को वे एक भी नई ईट नहीं रख पाए।
महाराज की राजनीतिक चतुराई का सारा निचोड़ इस एपिसोड से समझा जा सकता है कि जब चारधाम यात्रा पर इस बार देश-विदेश से इतनी बड़ी तादाद में श्रद्धालु आ रहे कि सरकार-प्रशासन के लिए संभालना कठिन हो रहा, तब वे अरेबियन ट्रैवल मार्केट (ATM) में शिरकत करने के नाम पर खुद सैर-सपाटा करने निकल पड़े। नतीजा ये रहा कि मुख्यमंत्री को चारधाम यात्रा के नोडल विभाग यानी पर्यटन मंत्री की जगह दो-दो मंत्रियों को केदारनाथ-बदरीनाथ यात्रा का ज़िम्मा सौंपने को मजबूर होना पड़ा है।
सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जिस चारधाम यात्रा की मॉनिटरिंग खुद प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हों उसे बीच में छोड़कर महाराज नए टूरिस्ट लाने को महाराज दुबई सैर-सपाटा करने निकल पड़े। फिर उत्तराखंड का हिमंत बिस्वा सरमा बनने का सपना तो सपना ही रहेगा न!