Backdoor Recruitment in Uttarakhand Assembly: उत्तराखंड विधानसभा में विचलन से तदर्थ भर्ती को इतिहास काफी पुराना है। या यूं कहिए कि राज्य बनने के बाद से ही इस रोग ने विधानसभा सचिवालय, विधानसभा अध्यक्ष और हरेक मुख्यमंत्री को अपनी चपेट में ले लिया था। विचलन से तदर्थ नियुक्तियां देने के इतिहास पर गौर करें तो इसकी शुरुआत
अंतरिम सरकार यानी सूबे के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी के दौर में ही हो गई थी। फिर 2002 में पहली निर्वाचित सरकार कांग्रेस की बनी और एनडी तिवारी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए तो विचलन से तदर्थ नियुक्तियों को लेकर मानो रिकार्ड ही बन दिया गया।
विचलन से तदर्थ नियुक्तियों के मामले में खंडूरी सरकार भी पीछे नहीं रही। 2007 में कांग्रेस के हाथ से सत्ता गई और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मेजर जनरल बीसी खंडूरी काबिज हुए तो खंडूरी ने भी सरकार की कमान संभालते ही विचलन से नियुक्तियों को मंजूरी दी। फिर हरीश रावत सरकार में भी विचलन से तदर्थ नियुक्तियों का गोविंद सिंह कुंजवाल ने नया रिकॉर्ड ही बना डाला।
हालांकि, मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने सिर्फ एक साल के लिए मंजूरी देकर स्पीकर के अधिकार को नियंत्रित करने की कोशिश की। जाहिर है उत्तराखंड बनने के बाद समय समय पर विभिन्न मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में विचलन से तदर्थ नियुक्तियों को मंजूरी मिलती रही।
दरअसल जिस तरह से विधानसभा में बैकडोर भर्तियों को लेकर पिछले दिनों सूबे की सियासत में बवंडर उठा और फिर सीएम धामी ने स्पीकर ऋतु खंडूरी भूषण को पत्र लिखकर कड़े एक्शन का अनुरोध किया। उसके बाद स्पीकर ने करीब 250 तदर्थ नियुक्तियों को अवैध ठहराया, जिस फैसले पर अब हाई कोर्ट की डबल बेंच की मुहर भी लग चुकी है। हालांकि इससे पहले हाई कोर्ट को सिंगल बेंच ने जरूर स्पीकर ऋतु खंडूरी के फैसले को गलत ठहराते हुए नियुक्तियां बहाल कर दी थी। जाहिर है यह मामला अब जब देश की शीर्ष अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट में जाएगा उसके बाद ही इस पर कोई अंतिम निर्णय हो सकेगा।
इस बहाने उत्तराखंड विधानसभा सचिवालय में विचलन के रास्ते चलते आए तदर्थ नियुक्तियों के सिलसिले पर बहस छिड़ी हुई है। सवाल उठ रहे हैं कि किस मुख्यमंत्री ने विचलन से तदर्थ नियुक्तियों की फाइल को मंजूरी देने में तेजी दिखाई और किस मुख्यमंत्री के कार्यकाल में इस पर काबू पाने की कोशिश हुईं। ज्ञात हो कि उत्तराखंड विधानसभा में तदर्थ भर्ती को विचलन से मंजूरी कोई 2022 में पहली बार नहीं दी गई। राज्य गठन के बाद करीब करीब हर मुख्यमंत्री के कार्यकाल में ये मंजूरियां दी जाती रही हैं।
ऐसा हम अपनी तरफ से दावा नहीं कर रहे हैं बल्कि स्पीकर ऋतु खंडूड़ी भूषण द्वारा डीके कोटिया के नेतृत्व में गठित एक्सपर्ट जांच समिति की रिपोर्ट कह रही है और खुद विधानसभा सचिवालय द्वारा नैनीताल हाई कोर्ट में दाखिल किए गए काउंटर में इस हकीकत का विस्तार से जिक्र किया गया है।
राज्य बनने के बाद सबसे पहली बार वर्ष 2001 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी ने 53 पदों पर तदर्थ भर्ती को विचलन से मंजूरी देकर इस सिलसिले का आगाज किया था। इसके बाद सूबे की पहली चुनी हुई सरकार कांग्रेस की बनी तो मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने विचलन से तदर्थ भर्तियों को मंजूरी देने के मामले में रिकॉर्ड ही बना डाला। कांग्रेस के पांच साल के तिवारी राज में वर्ष 2002 में 28, वर्ष 2003 में 5, वर्ष 2004 में 18, वर्ष 2005 में 8 और वर्ष 2006 में भी जाते जाते 21 पदों को मंजूरी दी। जाहिर है तिवारी राज की बंपर बैकडोर भर्तियों के रिकॉर्ड के मुकाबले अंतरिम सरकार में हुई भर्तियां कम पड़ गई।
इसके बाद वर्ष 2007 में बीजेपी सत्ता में लौटी तो मुख्यमंत्री बने मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी ने कुर्सी संभालने के महज कुछ महीने के भीतर ही 27 पदों पर तदर्थ नियुक्तियों को मंजूरी देकर स्वामी और तिवारी सरकार के सिलसिले को बदस्तूर जारी रखा।
ज्ञात हो कि खंडूरी राज में हुई इन्हीं बैकडोर भर्तियों में सीएम खंडूरी ने अपने पर्यटन सलाहकार प्रकाश सुमन ध्यानी की बेटी, अपने खासमखास महेश्वर बहुगुणा के बेटे, त्रिवेंद्र रावत के करीबी अनिल नेगी की पत्नी, मेयर सुनील उनियाल गामा की पत्नी, केंद्रीय राज्य मंत्री अजय भट्ट के साले समेत कई करीबियों को विधानसभा में बेकडौर से भर्ती कराया।
विधानसभा सचिवालय से बनकर दौड़ रही विचलन से तदर्थ भर्तियों की फाइल हरदा राज में भी नहीं थमी। वर्ष 2014 में 7 और 2016 में 149 पदों पर तदर्थ भर्ती की विचलन से मंजूरी तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत द्वारा ही दी गई थी। जाहिर है यही परंपरा 2022 में भी धामी राज में भी जारी रही। विचलन से सीएम की ओर से दी मंजूरी का अर्थ ये नहीं की कुछ भी कर लिया जाए।
दरअसल विधानसभा में बैकडोर भर्तियों को लेकर अकेले मुख्यमंत्री या सरकार को दोषी ठहराने की बजाय यह तथ्य भी समझना होगा कि भर्ती को लेकर जो भी प्रक्रिया अपनाई जाती है, वो स्पीकर के स्तर पर ही होती है। पहली बार सीएम पुष्कर सिंह धामी ने ही स्पीकर की इस मनमानी को नियंत्रित किया। धामी सरकार में सख्त व्यवस्था बनाई गई कि पदों की मंजूरी सिर्फ एक साल के लिए दी गई जिसे दिसंबर 2022 में ही समाप्त हो जाना था।
जाहिर है अगर उत्तराखंड विधानसभा में विचलन के जरिए तदर नियुक्तियों का इतिहास देखें तो इस हमाम में अधिकतर नंगे ही नजर आएंगे। कम से कम मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने विधानसभा सचिवालय में स्पीकर के तदर्थ भर्ती के अधिकार नियंत्रित करने की कोशिश कर औरों से अलग खड़ा होने की कोशिश करते नजर आए हैं। विवाद उठने के बाद खुद पहल कर स्पीकर ऋतु खंडूरी भूषण को पत्र लिख एक्शन का उनका अनुरोध भी यही संदेश देता है।