देहरादून: अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर कन्या गुरुकुल परिसर देहरादून के हिंदी विभाग एवं प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के संयुक्त तत्वावधान में ‘व्यक्तित्व विकास में सहायक मातृभाषाएँ’ विषय पर वाद-संवाद किया गया, जिसमें छात्राओं, पीएचडी शोधार्थियों एवं प्राध्यापकों ने अपने विचार प्रस्तुत किए।
कार्यक्रम के दौरान प्रो. रेनु शुक्ला ने बताया कि भाषा का संरक्षण सिर्फ भाषा तक ही सीमित न होकर वह एक जाति, समुदाय व उससे जुड़ी संस्कृति का भी संरक्षण है और इसके लिए आवश्यक है कि हमें अपनी दैनंदिनी में मातृभाषाओं को शामिल करना होगा।
डॉ अर्चना डिमरी ने शोधार्थियों व छात्राओं को बताया कि अपनी मातृभाषा से कटने का अर्थ है कि अपनी जड़ों से कट जाना एवं साथ ही उन्होंने छात्राओं के साथ गढ़वाली में संवाद किया और छात्राओं के साथ मिलकर गढ़वाली लोकगीतों का गायन भी किया। कार्यक्रम के दौरान लोककथाओं ने किस तरह मातृभाषाओं को जीवंत रखा इस पर भी प्रकाश डाला गया।
असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ निशा यादव ने मातृभाषाओं को लेकर कहा कि आज हम आधुनिकता की दौड़ में कहीं न कहीं मातृभाषाओं को पीछे छोड़ते जा रहे हैं और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हम अपनी लोक परम्पराओं से कटते जा रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप हम उन परम्पराओं से जुड़ी शब्दावली को अपनी आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित नहीं कर पाते हैं और हमारी लोक संस्कृति से जुड़ी शब्दावली धीरे-धीरे लुप्तप्राय होती जा रही है।
उन्होंने कहा कि हमें मातृभाषाओं से शिक्षा को जोड़ना होगा ताकि देश का प्रत्येक बच्चा अपनी प्रतिभा को सामने ला सके और भाषा उनके सामने बाधक न बने बल्कि साधक बने।
इसी का परिणाम है कि आज हम वैश्विक स्तर पर मातृभाषाओं के संरक्षण के लिए एकजुट होने के लिए प्रयासरत हैं। संयुक्त राष्ट्र ने इसकी गम्भीरता को समझते हुए ही 2022-32 को स्वदेशी भाषाओं का अंतरराष्ट्रीय दशक घोषित किया है।
इसके साथ ही कार्यक्रम में शोधार्थियों व छात्राओं ने भी मातृभाषा से सम्बन्धी अपने विचार प्रस्तुत किए।