देहरादून: काफी ऊहापोह और कसरत के बाद कांग्रेस ने चंपावत उपचुनाव में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के खिलाफ पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष निर्मला गहतोड़ी को उम्मीदवार बनाकर महिला कार्ड खेल दिया है। पार्टी के रणनीतिकार नारी सशक्तिकरण का राग अलापते हुए निर्मला गहतोड़ी की उम्मीदवारी को शीर्ष नेतृत्व का बड़ा दांव भी ठहराने से नहीं क़तरा रहे हैं। मानो निर्मला गहतोड़ी को टिकट देने के साथ ही पहाड़ की आधी आबादी के ‘अच्छे दिन’ आने का ऐलान हो गया हो!
जबकि कांग्रेस को आईना देखने के लिए ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं बल्कि पार्टी को फरवरी-मार्च में हुए विधानसभा चुनाव 2022 में अपने महिला प्रत्याशियों की संख्या पर नजर डाल लेनी चाहिए। वैसे तो उत्तराखंड की दो दशक की चुनावी लड़ाई में महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी देने के वक्त सभी दल कंजूस हो जाते हैं लेकिन कांग्रेस का ट्रैक रिकॉर्ड तो कुछ ज्चादा ही खराब ठहरा। भाजपा ने बीते विधानसभा चुनाव में आठ महिलाओं को टिकट दिया, AAP ने सात तो कांग्रेस ने महज पांच महिलाओं को ही टिकट देकर महिला सशक्तिकरण को लेकर अपना पॉलिटिकल कमिटमेंट साबित कर दिया। उसमें भी महिला उम्मीदवारों में एक टिकट पूर्व सीएम हरीश रावत की बेटी अनुपमा रावत, दूसरा टिकट पूर्व मंत्री हरक सिंह रावत की पुत्रवधू को दिया गया। तीसरा टिकट ममता राकेश का था जो खुद दिवंगत सुरेन्द्र राकेश की राजनीतिक विरासत संभाल रही हैं।
ज्वालापुर सुरक्षित सीट पर बरखा रानी और हरदा की चुनावी कश्ती रामनगर में रणजीत रावत से उलझकर फंसी तो लालकुआं में टिकट देने के बावजूद संध्या डालाकोटी को ‘शहीद’ करना पड़ा था। यानी महिला सशक्तिकरण को लेकर कांग्रेस के दाँत खाने के और दिखाने के और! ज्यादा पड़ताल करनी हो तो 2002 से 2017 के चुनावों में महिलाओं को टिकट का औसत देखा जा सकता है। आंकड़े कांग्रेस के लिए बहुत गर्व करने वाले तो कतई नहीं कहे जा सकते हैं।
कांग्रेस को सीधे सीधे उस कड़वे सच को स्वीकार लेना चाहिए कि लगातार दो विधानसभा चुनाव हारने के बाद अब पार्टी और उसके नेताओं में वो माद्दा नहीं कि शक्तिशाली भाजपा से जीत तो दूर टक्कर भी दे पाएँ! इसे पहाड़ कांग्रेस नेताओं की सुविधा की राजनीति ही कहा जाएगा कि प्रकाश पंत के निधन के बाद पिथौरागढ़ में उपचुनाव होगा तो परम्परागत दावेदार मयूख महर बहाना बनाकर पीछे हट जाएंगे और महिला सशक्तिकरण का नारा बुलंद कर दिया जाएगा। फिर 2022 का विधानसभा चुनाव आएगा तो महिला सशक्तिकरण जेब में और मयूख महर चुनावी मैदान में उतर जाएंगे।
सल्ट विधायक सुरेन्द्र सिंह जीना के निधन के बाद उपचुनाव होगा तो कांग्रेस का कोई दिग्गज सामने नहीं आएगा और पार्टी महिला सशक्तिकरण का नारा बुलंद करेगी गंगा पंचोली को सियासी शहादत के लिए उपचुनाव में उतार दिया जाएगा। फिर 2022 का दंगल छिड़ेगा और महिला सशक्तिकरण का मुद्दा कांग्रेसी दराज़ में चला जाएगा और हरदा वर्सेस रणजीत रावत की जंग में सल्ट में गंगा पंचोली और लालकुआं में संध्या डालाकोटी को ‘शहीद’ कर दिया जाएगा। नैनीताल में संजीव आर्य लड़ेंगे तो महिला कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष सरिता आर्य को ‘शहीद’ कर दिया जायेगा वो अलग बाद की भाग्यशाली रही सरिता भाजपा में जाकर टिकट पा जाती हैं और जीत भी जाती हैं। लैंसडौन सीट पर पांच साल से धक्के खा रही ज्योति रौतेला को हरक सिंह रावत की पुत्रवधू को टिकट देने के लिए बैठना पड़ता है। शुक्र है टिकट हरक को नहीं मिला वरना कांग्रेस का महिला सशक्तिकरण यहाँ भी ढेर होता नजर आता।
साफ है कांग्रेस के मठाधीशी नेता आम चुनावों में अपनी अपनी राजनीतिक कब्जेदारी बरक़रार रखना चाहते हैं लेकिन उपचुनाव में ‘शहीद’ होने का वक्त आएगा तो चुनाव खर्च के नाम पर कुछ ‘कमाई’ लुटानी न पड़ जाए इसलिए ऐसी महिला को खोजकर लाएँगे जो सालों से टिकट की आस में दरी बिछाने से लेकर झंडे-डंडे उठाए फिर रही होती हैं और हार निश्चित देखकर भी इस आस में टिकट थाम लेती हैं कि चलो विधायकी का चुनाव लड़ने का मौका उपचुनाव के बहाने ही सही मिला तो! फिर चाहे पैसे ख़र्चे का सितम अकेले ही क्यों न सहना पड़े!
अगर ऐसा नहीं तो कल्पना करिए 5 चुनाव में 2 बार विधायक और 3 बार हारे हेमेश खर्कवाल उपचुनाव लड़ने के लिए आगे क्यों नहीं आए होंगे! और क्या 2027 में फिर विधानसभा उपचुनाव होगा तो महिला सशक्तिकरण का झंडा उठाकर निर्मला गहतोड़ी के टिकट पर पुनर्विचार भी हो पाएगा या चम्पावत सीट को स्वाभाविक तौर पर हेमेश खर्कवाल द्वारा दो दशक में सींची गई राजनीतिक जमीन मान लिया जाएगा?
जाहिर है चुनाव चुनाव होता है और जनता जनार्दन होती है लिहाजा किसी भी चुनाव के नतीजे से पहले किसी को भी खारिज नहीं किया जा सकता है। चंपावत उपचुनाव के नतीजे से पहले कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर निर्मला गहतोड़ी को लेकर भी हार या जीत की भविष्यवाणी करना जनता-जनार्दन के अपमान सरीखा ही होगा। लेकिन सियासत में बहुत कुछ कहे बिना भी समझ लिया जाता है। ऐसे में अगर आज महिला सशक्तिकरण का झंडा बुलंद कर हरदा-प्रीतम से लेकर करन माहरा-यशपाल आर्य तक चुनावी नतीजे में चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैं तो यह उम्मीद महिला उम्मीदवार को ही उतारकर क्यों जागती है….पिथौरागढ़, सल्ट से लेकर चंपावत तक…!