देहरादून: मोदी राज के पिछले सात सालों में 31 अगस्त 2015 के बाद 19 नवंबर 2021 दूसरी तारीख है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र की सरकार ने यू-टर्न लिया है। 31 अगस्त 2015 को मोदी सरकार ने देश की सत्ता पर क़ाबिज़ होने के सवा साल के भीतर ही भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर मचे बवाल के बीच कदम पीछे खींचे और क़ानून वापस ले लिया था। उसके बाद से लगातार ताकतवर होते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किसी फैसले को पलटना गंवारा नहीं किया लेकिन 19 नवंबर 2021 वह दूसरा दिन आया जब सुबह-सुबह देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने माफी मांगते हुए तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने का ऐलान करने को मजबूर होना पड़ा। जाहिर है मोदी राज के इस दौर में बेहद मजबूत सरकार का 12-14 महीने के हठ के बाद सरेंडर करने को मजबूर होना भारतीय राजनीतिक इतिहास के लिए बेहद अहम दिन है।
सवाल है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि 19 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसे ताकतवर नेता, जो पिछले 14 महीनों में किसानों के प्रचंड आंदोलन के बावजूद झुकने की बजाय अपने स्टैंड पर अड़ते नजर आए? क्या चंद माह बाद होने वाले यूपी-उत्तराखंड और पंजाब सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों ने मजबूत मोदी सरकार को यू-टर्न के लिए मजबूर कर दिया? खासतौर पर क्या सियासी तौर पर देश के सबसे बड़े और दिल्ली सरकार के लिए बेहद अहम राज्य यूपी के विधानसभा चुनाव ने मोदी सरकार को किसानों के आगे झुकने को मजबूर कर दिया?
ऐसे में सबसे अहम सवाल यह है कि क्या मोदी-शाह तक यह फीडबैक आ गया था कि एक तो महंगाई की मार और ऊपर से किसान आंदोलन का प्रसार यूपी में भाजपा के हाथों से सत्ता की कमान छीनने जा रही है? दरअसल, मोटे तौर पर यह माना जाने लगा था कि अगर तीन कृषि बिलों पर मोदी सरकार पीछे नहीं हटी तो किसान आंदोलन पश्चिमी यूपी में गौतमबुद्धनगर, ग़ाज़ियाबाद से लेकर मेरठ, बागपत, मुज़फ़्फ़रनगर,मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, आगरा, बिजनौर, सहारनपुर से लेकर उत्तराखंड के हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर तक भाजपा को भारी राजनीतिक नुकसान देकर जाएगा। यहाँ तक कि पंजाब-हरियाणा से निकलकर राजस्थान तक भाजपा को गहरी चोट पहुंचा सकता है।
जाहिर है प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह मुकम्मल आकलन कर चुके कि पहले ही बहुत देर हो चुकी है और अब अगर किसानों से झगड़ा जारी रखा गया तो न केवल यूपी, उत्तराखंड और पंजाब में भाजपा को चंद माह बाद होने वाले चुनावों में सियासी संकट झेलना पड़ सकता है ही, साथ ही उसके बाद गुजरात से लेकर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ और हरियाणा तक भाजपा को सियासी घाटा उठाना पड़ सकता है। जाहिर है मोदी-शाह इस सियासी घाटे को उठाने को कतई तैयार नहीं थे क्योंकि इसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर पड़ सकती थी।
अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या जिसे मोदी का मास्टरस्ट्रोक बताया जा रहा, वह वाकई सियासी नुकसान को नफ़े में तब्दील कर पाएगा? क्या किसान जमात दोगुना आय करने के मोदी सरकार के दिखाए सपने को और आत्मसात कर पाएगी? जाहिर है अभी ऐसे सवालों के जवाब आसान नहीं लेकिन इतना तय है कि चुनावी दहलीज़ पर खड़ी मोदी सरकार ने किसानों के आगे घुटने टेककर यह संदेश जरूर दे दिया है कि चुनावी हार के डर के आगे वह जिन्हें कल कर ऐतिहासिक रिफॉर्म बताकर चेहरा चमका रही थी, उनको किसी भी सुबह अचानक तिलांजलि देने से गुरेज़ नहीं करेगी।