देहरादून (पवन लालचंद): 2014 के बाद दिल्ली में हुए मोदी-शाह उदय ने बीजेपी में एक अलिखित नियम बना दिया था कि अब राज्यों में बार-बार मुख्यमंत्री नहीं बदले जाएंगे। इसकी वजह थी कि 2014 के बाद बीजेपी शासित राज्यों में मुख्यमंत्री बनाए गए चेहरे जमीन पर जनाधार भले न रखते हों लेकिन वह मोदी-शाह की पसंद होते थे। वैसे दलों के केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा राज्यों में पैराशूट या अपनी पसंद के मुख्यमंत्री थोपने की लकीर मोदी-शाह दौर में हीं नहीं शुरू हुई थी बल्कि यह कांग्रेस से लेकर अटल-आडवाणी के बीजेपी दौर से आगे तक चलती आ रही परिपाटी थी।
बस अब फर्क यह आ गया था कि मोदी-शाह ने जिसे चुनकर भेज दिया उसे काम करने का पूरा मौका मिला फिर चाहे क्षेत्रीय स्तर पर पार्टी नेता नाराज होते रहें या यहां तक कि संघ के स्थानीय नेता कुढ़ते रहें। प्रधानमंत्री मोदी और शाह फैसला लेकर उसे पलटने की राजनीति का ककहरा सीखकर गुजरात से दिल्ली नहीं पहुँचे थे। महाराष्ट्र में देवेन्द्र फड़नवीस, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर से लेकर असम मेॉ सर्बानंद सोनोवाल सहित कई मुख्यमंत्री मोदी-शाह ने थोपे और राज्यों के स्तर पर हुए तमाम विरोध और दबाव को दरकिनार कर अपने मुख्यमंत्रियों को संरक्षण जारी रखा। महाराष्ट्र में तो फड़नवीस के कारण नाराज शिवसेना छिटककर चली भी गई। हरियाणा में चुनाव बाद पार्टी का बहुमत भी चला गया और उसे चौटाला के पोते की पार्टी जेजेपी की बैसाखी लेने को मजबूर होना पड़ा लेकिन मुख्यमंत्री दोबारा मनोहर लाल खट्टर को ही बनाया।
फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि 2019 में 2014 से ज्यादा ताकतवर होकर देश की सत्ता पर क़ाबिज़ हुए मोदी-शाह अचानक मुख्यमंत्री पद को ताश के पत्ते समझकर फेंटने लगे! क्या यह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस के फीडबैक और समझाइश का असर है या फिर PM मोदी को अपने आभामंडल के सुराख़ चौड़े होते दिखने लगे हैं! क्या पश्चिम बंगाल की चुनावी लड़ाई ने मोदी-शाह और संघ को फिर से इस निष्कर्ष पर लौटने का संकेत दिया कि संगठन को सर्वोच्च रखकर ही बीजेपी देश की राजनीति में यहाँ तक पहुँची है और उस मंत्र को कम से कम मोदी-शाह भी राज्यों के स्तर पर याद रखने की आदत डालें।
ऐसी ही बदली रणनीति का यह पहला असर था कि उत्तराखंड में तमाम पार्टी-संघ पदाधिकारियों की नाराजगी मोल लेकर भी मजबूत बने हुए त्रिवेंद्र सिंह रावत का सिंहासन रेत के महल की तरह ऐसे ढहा कि उनसे बीच बजट सत्र कुर्सी छुड़ा ली गई और चार साल पूरा करने से नौ दिन पहले ही भूतपूर्व बना दिया गया। त्रिवेंद्र के बाद लाए गए तीरथ सिंह रावत भी जब फटी जिंस से लेकर तमाम मुद्दों पर बाइस बैटल के रास्ते का रोड़ा लगने लगे तो मोदी-शाह और संघ ने राजनीतिक अस्थिरता के आरोप की परवाह किये बिना कोरोना और उपचुनाव न होने से संवैधानिक संकट की स्थिति उत्पन्न होने का हवाला देकर महज 115 दिन में दूसरा मुख्यमंत्री बदल दिया।
असम में चुनाव जीतने के बावजूद मोदी-शाह ने सिटिंग सीएम सर्बानंद सोनोवाल को रिपीट नहीं किया और उनकी जगह हिमंत बिस्वा सरमा की ताजपोशी करा दी। अब कर्नाटक में दक्षिण भारत में पार्टी के पहले मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को दो साल बाद ही हटाकर बोम्मई को लाया गया है। अभी भी कुछ और राज्यों में नेतृत्व पर संकट के बादल देखे जा रहे हैं।
मोदी-शाह अभी तक यूपी में तमाम कोशिश के बावजूद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर कोई बड़ा फैसला नहीं ले सके भले गुज़रे दिनों में खूब उठापटक की चर्चाएं आती रही। योगी ही इकलौते मुख्यमंत्री हैं जिनके नाम प भले 2017 का चुनाव न लड़ा गया हो लेकिन अब मोदी-शाह और संघ उनको बदलने की ठान लेने पर भी चुप बैठने को मजबूर दिखता है। यह अलग बात है कि संघ का तरफ से योगी को भी मैसेज दिया गया है लेकिन वे दिल्ली की पसंद बनाकर थोपे गए मुख्यमंत्रियों में अकेले हैं जो टिके रह पा रहे फिर यूपी चुनाव के नतीजे जैसे भी रहें।
मोदी-शाह सिर्फ मुख्यमंत्री ही नहीं बदल रहे बल्कि संगठन को ही व्यक्ति पर तवज्जो देने की संघ की समझाइश का असर है कि अभी से कहा जाने लगा है कि न छत्तीसगढ़ में तीन बार के मुख्यमंत्री चेहरा होंगे और न राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को खुली छूट मिलेगी। शिवराज चौहान को मध्यप्रदेश सौंपा है तो वह मोदी-शाह ने अपनी कृपा के पद का अहसास देकर सौंपा है।
सवाल है कि क्या राज्यों में बिखरते मोदी मैजिक खासकर बंगाल के झटके ने संघ को फिर से यह हिम्मत दे दी कि मोदी-शाह को याद दिला दिया गया कि संगठन को आगे करके ही चलना बीजेपी के हित में होगा। इसी का नतीजा है कि फैसला लेकर न पलटने की मोदी-शाह शैली शीर्षासन करती दिख रही है और राज्यों में संघ और पार्टी संगठन के फीडबैक पर फैसले लिए जाने लगे हैं। फिर चाहे मुख्यमंत्री ताश के पत्तों की तरह फेंटे जा रहे हों.