देहरादून: 9 मार्च को त्रिवेंद्र सिंह रावत के इस्तीफे के बाद 10 मार्च को बीजेपी नेतृत्व ने उसी पौड़ी जिले से तीरथ सिंह रावत के रूप में मुख्यमंत्री का नया चेहरा देकर जता दिया कि वह जोखिम लेने से क़तरा गई है। लेकिन महज 115 दिनों में गंगा में इतना पानी बह चुका था कि तीन जुलाई को फिर नए मुख्यमंत्री के चुनाव की घड़ी आ खड़ी हुई तो बीजेपी नेतृत्व ने न केवल चाल बदली बल्कि पूरी बिसात ही नई बिछा दी। ये महज हरीश रावत की घेराबंदी के लिए उसी कुमाऊं से किसी ठाकुर चेहरे को ले आने भर जैसा नहीं है बल्कि ये मोदी-शाह के भीतर बंगाल बैटल के बाद उपजी बेचैनी का संकेतक भी है। ऐसी बेचैनी, जिसमें अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से चार अपनी सत्ता वाले राज्यों में हर हाल में वापसी करने की चिन्ता है। साथ ही सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत से लेकर अपने खांटी नेताओं को पार्टी के बदले मिज़ाज से रूबरू भी कराना मक़सद है।
यूपी की बैटल पहले ही चुनौतीपूर्ण है लिहाजा बीजेपी उत्तर भारत के इस राज्य को किसी भी क़ीमत पर हाथ से नहीं जाने देना चाहती। लिहाजा उसने चाल बदलने की बजाय पूरी बिसात ही नए सिरे बिछाना बेहतर समझा है। इसी रोशनी में 3 जुलाई और 7 जुलाई के देहरादून और दिल्ली के बदलाव देखने होंगे। यहाँ तीरथ को हटाकर धामी की ताजपोशी और वहां निशंक की छुट्टी कर अजय भट्ट को मंत्री बनाना बता रहा है कि बीजेपी पहाड़ प्रदेश में 2022 बैटल को लेकर नए सिरे से बिसात बिछा रही है। इसके पीछे चार साल से उपेक्षा झेल रहे कुमाऊं को साध लेने का मक़सद तो है ही, साथ ही गढ़वाल में अपने खांटी और कांग्रेस गोत्र के हल्ला मचाते नेताओं को जमीन दिखाने की कोशिश भी नजर आती है।
युवा पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी नेतृत्व ने महाराज और हरक सिंह रावत जैसे कांग्रेसी गोत्र के दिग्गज बीजेपी नेताओं को अवगत कराया है कि दरअसल, 2014 से लेकर 18 मार्च 2016 के जो भी सियासी कमिटमेंट थे उनकी मियाद एक्सपायर कर चुकी है। खास तौर पर अब उन हिलोरे मारते सपनों को समझाइश देनी होगी जो, महाराज को रात-दिन उम्मीद दिए रहे कि बस अबके मुख्यमंत्री बनने की बारी आ ही गई। धामी के चुनाव के ज़रिए पार्टी ने संदेश दे दिया है कि ऐसे तमाम नेता बीजेपी में अपना अधिकतम हासिल कर चुके हैं। यही मैसेज त्रिवेंद्र, तीरथ और निशंक जैसे पार्टी नेताओं के लिए भी दीवार पर लिखी इबारत जैसा पढ़ा जा सकता है। यहाँ तक कि अनिल बलूनी भले दिल्ली में महाराज, हरक से लेकर उमेश काऊ जैसे नेताओं को बुलाकर टी-पार्टी महफ़िल सजाते रहे लेकिन प्रदेश की कमान संभालने का उनका वक्त भी या तो निकल चुका है या फिर अभी बहुत लंबे इंतजार की जरूरत है।
दरअसल बीजेपी ब्रांड मोदी के ढलान से पहले केन्द्र-राज्यों में नए नेतृत्व की पौध तैयार करने का जोखिम उठा सकती है और फेरबदल के बाद जवां होता केन्द्रीय मंत्रिमंडल और राज्यों के युवा मुख्यमंत्रियों की बढ़ती तादाद बताती है कि पार्टी अपनी सियासी किताब के कुछ पन्ने पलट चुकी है और यहां से पीछे लौटने की गुंजाइश बहुत कम है। प्रदेश में धामी के बहाने नाराजगी दिखाकर एक-एक मलाईदार विभाग पा गए मंत्री महाराज और हरक से लेकर दूसरे दिग्गज टीस छिपाकर इसे अपनी जीत करार जरूर दे सकते हैं लेकिन बदलती बीजेपी में भविष्य की सियासी तस्वीर उन्हें भी दिखाई दे रही है।