देहरादून: भाजपा की विजय संकल्प यात्रा का समापन कराने उत्तरकाशी पहुँचे देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने बड़ा बयान दिया है। कांग्रेस के ‘ये भाजपा वाले क्या चुनाव लड़ेंगे ये तो पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदल चुके’ के आरोप पर पलटवार करते राजनाथ ने कहा, ”अरे, हम पांच साल में 10 बार मुख्यमंत्री बदलें, आपको क्या लेना-देना! अगर हमने किसी को प्रोजेक्ट करके चुनाव लड़ा होता तो हम पांच साल में एक बार भी मुख्यमंत्री नहीं बदलते। पार्टी ने चुनाव लड़ा, ये पार्टी का अंदरुनी मामला था। हमको जब लगा तो पार्टी ने फैसला किया और हमने मुख्यमंत्री बदल दिया। हमारा कोई भी मुख्यमंत्री बुरा नहीं था। चाहे त्रिवेंद्र सिंह रावत रहा हो या तीरथ सिंह रावत रहा हो। बड़ी पार्टी होती है उसको कई चीज़ों को सोच विचार कर फैसले करने होते हैं, किसको कहां लगाना होता है, किसको संगठन में लगाना है, किसको संसद में भूमिका निभानी पड़ती है। कब क्या जरूरत पड़ जाए किसकी, यह सब सोच कर फैसले लेने पड़ते हैं..।”
जाहिर है यह भाजपा या किसी भी सत्ताधारी दल का अंदरूनी मामला ही होता है कि वह सत्ता में आने पर जिसे चाहे मुख्यमंत्री बना लें और उसे लगे तो हटा भी दे। लेकिन जब कोई दल ताश के पत्तों की तरह एक सूबे में मुख्यमंत्री के चेहरे फेंटने लगे या जब-जब सत्ता मिले तब-तब मुख्यमंत्री बनाने और हटाने का खेल खेले तो सवाल उठने लाज़िमी हैं। बाइस बैटल जीतने को जनता के बीच जा रही भाजपा को आजकल इसी सवाल का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन इस सवाल पर अपने नेतृत्व की नाकामी की ईमानदार स्वीकारोक्ति की बजाय जब राष्ट्रीय नेता इसे लेकर सीना ठोककर उलटे हड़काने लगें कि हम पांच साल में 10 मुख्यमंत्री बदलें इससे विपक्ष या जनता को क्या हर्ज तो इस सोच को उत्तराखंड की 20-22 साल की राजनीतिक अस्थिरता का निचोड़ क्यों न समझा जाए! क्या दिल्ली दरबार का यह रुख बताता नहीं कि सुबाई सत्ता की बिसात पर किस मोहरे के लिए कौनसी चाल और किसके हिस्से शह-मात आनी है, यह दिल्ली में हाईकमान के हंटर से ही तय होना है। फिर चाहे छोटे से युवा होते राज्य को राजनीतिक अस्थिरता का घुन गहरे से खोखला ही क्यों न कर जाए।
यूपी के जमाने से पहाड़ पॉलिटिक्स में दखल रखने वाले दिग्गज नेता राजनाथ सिंह क्या नहीं जानते कि भाजपा की रिमोट कंट्रोल सियासत ने उत्तराखंड बनने के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी को फुटबॉल बनाकर रख दिया है! क्या राज्य के अस्तित्व में आने पर बनी चंद माह की अंतरिम सरकार में ही दो-दो मुख्यमंत्री देकर भाजपा ने उत्तराखंड को मुख्यमंत्री गढ़ने की फ़ैक्टरी बनाकर नहीं छोड़ दिया! 50 साल का पड़ोसी पर्वतीय राज्य हिमाचल प्रदेश में छह मुख्यमंत्री बन पाए और यहां 20-21 सालों में ही 11 मुख्यमंत्री बना दिए गए। इस राजनीतिक अस्थिरता ने सूबे की सरकार के मुखिया का इक़बाल और हैसियत कितनी गहरी गर्त में धकेल दी क्या इसका अहसास भी होगा राजनाथ सिंह को! यूपी की राजनीति में सक्रिय रहते भाजपा को जिस तरह से गुटबाजी का घुन लगाकर गर्त में धकेलने वालों में रहे राजनाथ सिंह यह कैसे भूल जाते हैं कि अगर मोदी-शाह का उदय भाजपाई राजनीति में नहीं हुआ होता तो आज भी पार्टी देश के सबसे बड़े सूबे में सपा-बसपा के बीच छिड़े सत्ता के फुटबॉल मैच में खेल के मैदान से दूर दर्शक दीर्घा में तमाशबीन से अधिक न होती।
बेहतर होता राजनाथ सिंह गंगोत्री में साहसपूर्वक साफ़गोई से यह सच स्वीकारते कि इस राज्य की महान जनता ने 2017 के संग्राम में डबल इंजन सरकार बनाने के लिए प्रचंड बहुमत दिया लेकिन भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व ही सूबे में सरकार की चाबी सही हाथों में सौंपने में चूक गया। और युवा पुष्कर सिंह धामी के चयन के साथ ही इस चूक को अब दुरुस्त कर लिया गया है। लेकिन शायद राजनाथ सिंह ऐसा कहने का जोखिम मोल नहीं लेना चाहते थे लिहाजा 2022 के बाद भी सत्ता मिलने पर राजनीतिक अस्थिरता का दौर दोहराने का इशारा कर गए! आखिर अभी भी भाजपा कहां अकेले मुख्यमंत्री धामी के नाम पर वोट मांग रही है।
पार्टी का अंदरूनी मामला बताकर पांच साल में 10 मुख्यमंत्री बदलने का दम दिखाते राजनाथ सिंह क्या बताएंगे कि पहाड़ी राज्य की आकांक्षाओं के प्रतीक गैरसैंण में विधानसभा के बजट सत्र के ठीक बीच में वित्त मंत्री की भूमिका में बजट पारित कराते मुख्यमंत्री को अचानक क्यों बदल दिया गया? आखिर आज अगर बताया जा रहा कि न त्रिवेंद्र सिंह रावत बुरे थे और न तीरथ सिंह रावत। तो फिर विधानसभा का बजट सत्र पूरा होने देने भर का सब्र भी भाजपा नेतृत्व क्यों नहीं दिखा पाया? आखिर ऐसा कौनसा अपराध मुख्यमंत्री रहते त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कर दिया था कि सरकार के चार साल के जश्न की 70 की 70 विधानसभा सीटों पर की गई भव्य तैयारियाँ धरी की धरी रह गई और नौ दिन पहले ही उनकी छुट्टी हो गई।
क्या पार्टी का अंदरूनी मामला संसदीय परम्परा और मर्यादा के तक़ाज़े पर भी भारी पड़ जाएगा और एक मुख्यमंत्री को बीच विधानसभा सत्र चलता कर दिया जाएगा?
अगर तीरथ सिंह रावत भी बुरे नहीं थे उनको कुर्सी सौंपकर बेवजह अचानक चलता क्यों कर दिया गया? जिस भावी संवैधानिक संकट की हल्की आड़ लेकर तीरथ को मुख्यमंत्री की कुर्सी से बड़े बेआबरू होकर हटने को मजबूर किया गया वह आज तक न किसी भाजपाई नेता-कार्यकर्ता के गले उतरा है और न ही जनता के ही। अब जब पुष्कर सिंह धामी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर क़ाबिज़ हैं तब यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि चुनाव उन्हीं के चेहरे पर लड़ा जा रहा या फिर 2017 की तर्ज पर पार्टी ही लड़ रही! यह सवाल इसलिये भी जरूरी है वरना भाजपा के सत्ता पाने पर राजनीतिक अस्थिरता के नए दौर के दोहराव को लेकर तैयार रहना चाहिए।
जिस राज्य के बनते ही एक पार्टी अंतरिम सरकार में दो-दो मुख्यमंत्री बना देती हैं और पांच साल विपक्ष में सरकार फिर सत्ता पाती है तो राजनीतिक अस्थिरता का पुराना दौर फिर दोहरा देती है। इतना ही नहीं राज्य की 80 फीसदी सीटों पर जीत हासिल कर बनी डबल इंजन सरकार में भी तीन-तीन मुख्यमंत्री एक के बाद बदल दिए जाएँ तो क्या इसे महज पार्टी का अंदरूनी मामला मानकर बच निकलने का आसान रास्ता दे देना जायज होगा? और क्या कोई भाजपा का राष्ट्रीय नेता आकर इसे उपलब्धि की तरह पेश करने लगेगा तो जनता इस ढोल का पोल नहीं समझ पाएगी?
भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व और राजनाथ सिंह जैसे केन्द्रीय नेताओं को दीवार पर लिखी इबारत को अच्छे से पढ़ लेना चाहिए कि उत्तराखंड को राजनीतिक अस्थिरता के दौर में धकेलने का दोष कर किसी के सिर है तो इस सूची में सबसे पहला नाम सत्ताधारी दल का ही दर्ज है। पांच साल में तीन-तीन मुख्यमंत्री बदलने को महज भाजपा का अंदरूनी मामला बताकर नज़रें फेर लेने से बात नहीं बनेगी बल्कि जनता को बताना होगा कि त्रिवेंद्र रावत हटाए क्यों गए और तीरथ आए तो फिर बड़े बेआबरू होकर रुखसत कैसे कर दिये गए और अब धामी हैं तो सत्ता मिली तो भी रहेंगे कि अतीत का दोहराव होता रहेगा