देहरादून: अगर आप 2017 के चुनाव से पहले की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों के भाषण सुनेंगे तो विकास के लिए उत्तराखंड में डबल इंजन सरकार की उनकी चाहत के पीछे अनेको वजहें पा जाएंगे। मसलन, केन्द्र और राज्य में एक दलीय सरकार बनने से बेहतर समन्वय और साझेदारी बनेगी जिसका फायदा राज्य की जनता को मिलेगा। वैसे यह सौ फीसदी सही भी है कि एक दल की केन्द्र और राज्य में सरकार होने से राजनीतिक दुराग्रह जैसे आरोपों की गुंजाइश शेष नहीं रहती है और तुलनात्मक रूप से विकास की रफ्तार तेज हो सकती है। लेकिन साढ़े चार साल सरकार चलाने के बाद सत्ताधारी दल को क्यों ऐसा लग रहा है कि चुनाव में डबल इंजन सरकार की उपलब्धियाँ कम और भड़काऊ मुद्दे ज्यादा कारगर साबित होंगे।
तभी तो करीब पांच साल सत्ता में रहने के बाद अगर डबल इंजन सरकार ठीक चुनाव से पहले इंटेलीजेंट इनपुट को ढाल बनाकर कहे कि राज्य के कुछ खास हिस्सों में डेमोग्राफिक चेंज यानी जनसांख्यिकी बदलाव के संकेत मिल रहे हैं और इससे पलायन होने की बात भी सामने आई हैं, तब इस ख़ुफ़िया रिपोर्ट के मायने क्या समझें जाए? ये अलग बात है कि इस ख़ुफ़िया इनपुट पर कोई आला अधिकारी मुंह खोलने को तैयार नहीं लेकिन सत्ताधारी भाजपा ने इसका वेलकम कर अपने सियासी मंसूबे बता दिए हैं। विपक्षी कांग्रेस से लेकर AAP ने इसे भाजपा का सांप्रदायिक कार्ड लेकर चुनाव में कूदना करार दिया है।
जाहिर है चुनाव सिर पर हैं और पांच साल की सत्ता का हिसाब देने से बचने के लिए ऐसे मुद्दे हमेशा भाजपा के लिए कवच का काम करते हैं। सवाल है कि पर्वतीय क्षेत्र से रोज़ी-रोटी और बेहतर शिक्षा-चिकित्सा के लिए लोगों का पलायन हो रहा है, इसी सच के सहारे डबल इंजन सरकार के उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने पलायन आयोग गठित किया था। सवाल है कि क्या हुआ उस पलायन आयोग का? टीएसआर सरकार चार साल तक पलायन रोकने के नाम पर जिस आयोग से रिपोर्ट दर रिपोर्ट छपवाती रही और इन रिपोर्टों में वजह बताते कहा गया कि बेहतर शिक्षा-चिकित्सा और रोजगार की आस में स्थानीय लोग पलायन को मजबूर हो रहे।
आखिर अब बताया तो जाए कि लोग पहाड़ न खाली करें, घर भूतहा न हों, इसे लेकर कौन-कौनसे ठोस कदम उठाए गए ? पहाड़ में रह रहे लोगों के बच्चे भी बेहतर स्कूलों से शिक्षा हासिल कर सकें और बीमारी में समय पर जीवनदायी उपचार पा सकें इसके लिए कौनसा इंफ़्रास्ट्रक्चर खड़ा किया गया? आखिर चार-साढ़े चार साल में सरकार कोई तो क्षेत्र पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर लेकर बदलाव की शुरूआती तस्वीर दिखा सकती थी?
सवाल यह भी है कि जब मोदी सरकार देश की संसद में सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दों पर बहस कर रही थी तब लगातार यह कहा जा रहा था कि देश के कुछ हिस्सों में रोहिंग्या और बांग्लादेशी फ़र्ज़ी वोटर आईडी और राशन कार्ड बनाकर छिपे हो सकते हैं। खुद भाजपा के खानपुर विधायक कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन ने तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से शिकायत की थी कि उनके क्षेत्र और हरिद्वार जिले में रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठिए हो सकते हैं। राज्य सरकार बताए कि भाजपा विधायक की शिकायत के बाद हरिद्वार जिले में किस तरह का सत्यापन अभियान चलाकर रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुसलमान खोजे गए? ऐसी ही शिकायतें लगातार ऊधमसिंहनगर से लेकर देहरादून और पर्वतीय क्षेत्रों को लेकर आती रही सरकार बताए गुज़रे साढ़े चार साल में कितने कदम उठाए गए?
पहाड़ी जिलों से लगातार होते पलायन और मेहनत-मज़दूरी के लिए वहां नेपाली मूल और यूपी और अन्य जिलों से बाहरी लोगों खासकर मुस्लिमों के आने की बातें भी नई नहीं हैं लेकिन पहाड़ की डेमोग्राफी न बदले और गांव भूतहा न रहें इसे लेकर सरकार विकास के किस खाँचे को साढ़े चार साल में खींच पाई इसे सार्वजनिक करना चाहिए। जब चुनावी दहलीज़ पर खड़ी कोई सरकार ऐसी बातें करे तब क्यों न आरोप लगे कि सत्ताधारी पार्टी ‘समुदाय विशेष’ के नाम पर एक तबके को संदेह के घेरे में रखकर वोट की फसल काटना चाह रही है?
पहाड़ से पलायन एक गंभीर समस्या है और इसका समाधान खोजने की चिन्ता दलीय राजनीतिक से ऊपर उठकर सबकी होनी चाहिए। सिर्फ इसीलिए नहीं कि स्थानीय लोगों को रोजी-रोजगार, घर-गांव के आसपास मिले बल्कि इसलिए भी कि सिर पर दुश्मन देश बैठा है और अन्तर्राष्ट्रीय सीमाएं साझा करते राज्य के सीमांत क्षेत्रों का आबाद रहना देश की संप्रभुता के लिए अत्यावश्यक है। लेकिन साढ़े चार साल सरकार चलाने के बाद जनसांख्यिकी बदलाव जैसी बातें चुनावी राजनीति के औजार हो सकते हैं लेकिन असल समस्या के समाधान की कोशिश हरगिज नहीं।
आखिर देहरादून, हरिद्वार जैसे तमाम शहरी क्षेत्रों में वोट की फसल काटने को मलिन बस्तियों की बसावट कराकर किस तरह की जनसांख्यिकी तस्वीर बना दी गई है और इसके पीछे कौन-कौन चेहरे हैं यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन इस मुद्दे के ज़रिए सत्ताधारी दल ने साफ संकेत दे दिए हैं कि जैसे-जैसे चुनाव करीब आएंगे इन मुद्दों को और धार दी जाएगी। आखिर साढ़े चार साल में तीन-तीन मुख्यमंत्री ताश के पत्तों की तरह बदल देने, सौ दिन में बन जाने वाला लोकायुक्त साढ़े चार साल से लापता है और सत्ता पाते ही तमाम सरकारी पद भरने जैसे अनगिनत कठिन सवालों से बचने का आसान रास्ता ऐसे ही किसी समाज में आग लगाऊ मुद्दे से मिल पाता है।