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जब सड़क पर संघर्ष माने गांधी पार्क तक दो सौ गज दूरी नापना हो जाए तब कहते रहें ’24 घंटे 365 दिन लोगों के बीच रहेंगे..’

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CWC मीटिंग में खड़गे का मैसेज: ’24 घंटे 365 दिन लोगों के बीच रहना होगा’

बड़ा सवाल क्या उत्तराखंड के कांग्रेसी क्षत्रप एक दशक में पांच चुनावी हार झेलने के बाद संभालेंगे?

ADDA In-Depth: बीते लोकसभा चुनाव में 99 सीटों पर जीत हासिल करने और इंडिया गठबंधन के साथ बीजेपी को अकेले 272 का जादुई आंकड़ा छूने से रोकने में कामयाब रहने के बाद उत्साहित कांग्रेस की दिल्ली में आज पहली कार्य समिति (CWC) की बैठक हुई। बैठक में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने पार्टी नेताओं को साफ संदेश दिया,”सत्ता में हो या नहीं हमें 24 घंटे, 365 दिन लोगों के बीच रहना होगा।


कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने कहा कि आज जिस स्थिति में कांग्रेस पहुंची है यह पार्टी नेता राहुल गांधी द्वारा पिछले दो सालों में पहले 4000 किलोमीटर लंबी भारत जोड़ो यात्रा और फिर 6,600 किलोमीटर लंबी भारत जोड़ो न्याय यात्रा का ही प्रतिफल है। राहुल गांधी की यात्राओं ने पार्टी को जनता से सीधे जुड़ने और उनकी समस्याएं समझने तथा सरोकार और आकांक्षाओं को जानने का मौका दिया। उन्होंने कहा कि इसी के आधार पर कांग्रेस ने सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ अपने चुनाव अभियान को धार दी।

जाहिर है कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में उत्तराखंड कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा और नेता प्रतिपक्ष सहित तमाम दिग्गज भी शामिल हुए। सवाल है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने जो दो टूक संदेश दिया कि 24 घंटे, 365 दिन लोगों के बीच रहना होगा, वह पहाड़ प्रदेश के इन तमाम कांग्रेसी क्षत्रपों के कानों तक पहुंच पाया होगा?

आखिर कांग्रेस लगातार चुनावी हार झेलते झेलते हरियाणा से लेकर राजस्थान और महाराष्ट्र तक इस बार चुनावी जीत हासिल करने में कामयाब रही। यहां तक कि मोदी शाह के गृह राज्य गुजरात में भी कांग्रेस का खाता खुल गया लेकिन पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में पिछले एक दशक से कांग्रेस चुनाव दर चुनाव शिकस्त खाती आ रही है। 2014 में देश की सियासत में मोदी युग शुरू हुआ तो उत्तराखंड में बीजेपी ने पांचों लोकसभा सीटों पर जीत का प्रचंड पावर पंच लगाया।

हालांकि तब प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की अगुआई में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन लोकसभा चुनाव में जनता ने ग्रैंड ओल्ड पार्टी को ऐसा नकारा कि एक दशक बाद भी उसके हिस्से जीत का अंजुरी भर छांव नहीं आ सकी है। प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को एक बार खारिज किया तो ये सिलसिला चल निकला और 2017 में हरदा के नेतृत्व में पार्टी न केवल सत्ता से बाहर होती है बल्कि 70 विधायकों वाली विधानसभा में वह महज 11 सीटों पर सिमट जाती है। मुख्यमंत्री रहते हरीश रावत हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा, दो-दो सीटों से चुनाव हार जाते हैं।

2019 में पुलवामा की घटना के बाद देश में राष्ट्रवाद के ज्वार पर सवार बीजेपी कांग्रेस को 2014 के मुकाबले और बुरे तरीके से रौंद देती है। लेकिन कांग्रेस को असल सदमा 2022 के विधानसभा चुनाव में लगता है जब लगातार दो बार से लोकसभा चुनाव हारती आ रही पार्टी दोबारा विधानसभा के दंगल में भी चित हो जाती है। कांग्रेस को बीजेपी के 47 विधायकों के मुकाबले 19 सीटों पर ही जीत हासिल होती है। हरदा एक बार फिर लालकुआं से शिकस्त खा बैठते हैं लेकिन उनके जख्मों पर शायद इस तथ्य से कुछ मरहम जरूर लगी होगी कि उन्हीं की तरह सिटिंग सीएम रहते पुष्कर सिंह धामी भी खटीमा से चुनाव हार गए थे।

दरअसल, लोकसभा चुनाव में लगातार दूसरी हार से कई गुणा ज्यादा उत्तराखंड कांग्रेस को लहूलुहान किया 2022 में विधानसभा चुनाव नतीजों ने, क्योंकि पहाड़ पॉलिटिक्स में इससे पहले कांग्रेस और बीजेपी में ‘बारी-बारी भागीदारी से सत्ता की साझेदारी’ का अघोषित, अलिखित फॉर्मूला चला आ रहा था, जो अबकी बार टूट चुका था। इस हार ने कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के वापसी करने के हौसलों को पूरी तरह से तोड़ दिया और अब चार जून को आए 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों में बनी हार की हैट्रिक ने रही-सही कसर पूरी कर दी है।

भले कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने 24 घंटे, 365 दिन लोगों के बीच रहने का मैसेज दिया हो लेकिन उत्तराखंड कांग्रेस के क्षत्रपों के साथ समस्या यह है कि वे राहुल गांधी की तर्ज पर पैदल यात्रा निकालकर सीधे लोगों के बीच पहुंच सकें, यह तो कदापि संभव है ही नहीं, विडंबना यह है कि प्रदेश के तथाकथित दिग्गज नेताओं को एक छत के तले बिठाना भर तराजू में मेंढक तोलने सरीखा है।
कांग्रेस के लिए ज्यादा चिंताजनक यह है कि एक दशक में लगातार पांच चुनावों की हार के बावजूद प्रदेश में वो नेता जिनके कंधों पर पार्टी को पुनर्जीवित करने का जिम्मा है वह सभी क्षत्रप अपने-अपने खेमों की ऐसी किलेबंदी में कैद होकर रह गए हैं, जहां से पार निकलना मानो कंटीली झाड़ियों से होकर गुजरना हो।

आज आलम यह है कि 2022 के विधानसभा चुनाव की हार के बाद गणेश गोदियाल को हटाकर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए करन माहरा 2024 का चुनाव बीतने तक अपनी एक मजबूत टीम खड़ी नहीं कर पाए। नतीजा यह रहा कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आखिरी बजट सत्र के दौरान फरवरी में संसद से ऐलान किया कि बीजेपी 370 पार तथा एनडीए 400 पार पहुंचेगा, तो करीब एक डेढ़ साल से चुनावी ताल ठोकते दिखाई दे रहे उत्तराखंड कांग्रेस के क्षत्रप दुबकने के लिए बहानेबाजी के नित नए बिल खोजने लगे।

यहां तक कि हरीश रावत, जिन्हें हार जीत से बेखबर चुनावी मैदान की कभी न थकने वाली राजनीतिक मशीन कहा जाता था,उनके हौसले भी जवाब देने लगे और वे आलाकमान के सामने अड़कर बेटे वीरेंद्र रावत को हरिद्वार का टिकट दिलाकर सारथी की सुरक्षित सीट कब्जाकर बैठ गए। इतना ही नहीं कभी अपने समर्थकों के बीच खुद को ‘शेर ए गढ़वाल’ कहलवाना पसंद करने वाले डॉ हरक सिंह रावत भी सीबीआई, ईडी की एक दस्तक के बाद खुद को घर में नजरबंद कर बैठ जाते हैं।

हरदा और हरक की ही लाइन पर चलते हुए पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व नेता प्रतिपक्ष जैसे जिम्मे संभाल चुके प्रीतम सिंह टिहरी लोकसभा सीट से चुनावी ताल ठोकने की बजाय करीब करीब राजनीतिक रिटायरमेंट ले चुके पूर्व विधायक जोत सिंह गुनसोला को आगे कर परे हट जाते हैं। नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य को पार्टी सुरक्षित सीट अल्मोड़ा से लड़ाना चाहती थी लेकिन वे सामान्य सीट नैनीताल-उधमसिंहनगर लोकसभा सीट का राग बजाकर साफ बच निकलते हैं। जब यशपाल आर्य ही तैयार नहीं हुए तब प्रदीप टम्टा से चमत्कार की उम्मीद बेमानी थी।

ऐसे हालात में गढ़वाल लोकसभा सीट पर इकलौते कांग्रेस के बद्रीनाथ विधायक राजेंद्र भंडारी से लेकर 2019 के पार्टी प्रत्याशी मनीष खंडूरी जैसे तमाम चेहरे जब भगवा पटका पहने नजर आए तब भला अकेले गणेश गोदियाल क्या कर सकते थे। लेकिन गणेश गोदियाल बीजेपी के प्रचंड चुनावी वेग के सामने सीना तानकर खड़े होते नजर आए और उसी का नतीजा रहा कि गढ़वाल में जो मुद्दे गोदियाल ने उठाए वे प्रदेश कांग्रेस के तरकश के तीर बनते गए और आसानी समझी जा रही गढ़वाल सीट की लड़ाई बीजेपी के लिए सबसे कठिन चुनौती बन गई। यही वजह रही कि ऋषिकेश में अनिल बलूनी के लिए प्रधानमंत्री मोदी गरजे तो गौचर में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और कोटद्वार में तो गृह मंत्री अमित शाह ने जीत के एवज में गढ़वाल के विकास का जिम्मा अपने ऊपर ही ले लिया।

सवाल है कि जिस प्रदेश में कांग्रेस के लिए सड़क पर उतरकर संघर्ष करने के मायने राजीव गांधी भवन (प्रदेश मुख्यालय) से दो मीटर दूर गांधी पार्क तक प्रोटेस्ट करना या अधिकतम तीन सौ मीटर दूर घंटाघर तक कैंडल मार्च निकाल देना भर हो चुका हो, वह प्रदेश इकाई चुनावी लड़ाई में इलेक्शन मशीन में तब्दील हो चुकी बीजेपी को कैसे शिकस्त दे सकती है। वरना एक दशक में मुद्दों का अभाव रहा न जनता की तकलीफों में कमी आई लेकिन क्षत्रपों की खेमेबाजी कांग्रेस पर भारी पड़ती गई। यही वजह है कि एक जमाने में उत्तराखंड में बीजेपी पर मित्र विपक्ष की तोहमत लगती थी लेकिन अब इससे एक दर्जे नीचे का कोई विशेषण कांग्रेस के लिए खोजा जा सकता है।

बहरहाल देखना दिलचस्प होगा कि हार की समीक्षा को लेकर मल्लिकार्जुन खड़गे कौनसी टीम को और कब तक उत्तराखंड भेजते हैं जैसा कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने हार वाले राज्यों में कारणों की समीक्षा के लिए निर्णय लिया है। अंत में कांग्रेस नेतृत्व को भी सोचना चाहिए कि ठीक चुनाव से पहले कुमारी शैलजा जैसे राज्य प्रभारी भेजकर वे किस तरह के अप्रत्याशित नतीजों का इंतजार कर रहे थे।


आखिर लोकसभा चुनाव की हार के बाद कांग्रेसी क्षत्रपों के लिए जंग का नया मैदान तैयार है। जहां बीजेपी से बद्रीनाथ सीट भी बचाने की चुनौती है और बीएसपी से मंगलौर छीन लेने का कठिन टास्क भी। वैसे 2027 की सियासी झांकी निकाय चुनाव भी दिखा सकते हैं। सवाल है कि कांग्रेस में कोई देख भी रहा है?

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