देहरादून: ऐसा लगता है जैसे दिल्ली के सीएम और AAP संयोजक अरविंद केजरीवाल पहाड़ पॉलिटिक्स के ठहरे हुए सियासी तालाब में एक कंकड़ फेंक गए हों और पानी के नीचे ठहरी तूफ़ानी लहरें ज्वारभाटा बनकर फूट पड़ना चाह रही हों। सबसे पहला अटैक प्रदेश काग्रेस के भीष्म पितामह यानी पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने किया। हरदा ने केजरीवाल के दिल्ली से देहरादून दस्तक देने से पहले ही ताक़ीद किया कि वे अपना दिल्ली मॉडल बस्ते में ही बंद रखें क्योंकि एक तो देश पहले से ही गुजरात मॉडल से दुखी है और अब केजरीवाल मॉडल पड़े पर दो लात साबित होगा। लेकिन AAP के चुनावी एजेंडे से परदा हटाते हुए केजरीवाल 300 यूनिट फ्री बिजली समेत चार गारंटी दे गए। फिर क्या था हरदा ने भी कांग्रेस सरकार बनी तो पहले साल 100 यूनिट फ्री बिजली फिर दूसरे साल 200 और दिल्ली के बराबर सालाना बजट होने पर 400 यूनिट तक बिजली बिल माफ का ऐलान कर ताल ठोक दिया।
अब बीजेपी की तरफ से तो ताजा-ताजा ऊर्जा मंत्रालय पाए अति उत्साही डॉ हरक सिंह रावत ने पहले ही 100 यूनिट फ्री 200 तक 50 फीसदी सब्सिडी का करंट दौड़ा ही रखा था।हालांकि घोषणा से पहले न कैबिनेट में प्रस्ताव और न सीएम पुष्कर सिंह धामी से सलाह-मशविरा लिहाजा पार्टी और सरकार ने सीधे-सीधे न सही पर ‘हरक के हीरोइज्म’ से किनारा करना बेहतर समझा। अब दिल्ली से राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी और देहरादून से प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक ने एक ही लाइन लेकर हमला बोला कि दिल्ली में सरचार्ज की लूट, टैंकर से पानी और मोहल्ला क्लिनिक कोरोना फेल वगैरह वगैरह। बलूनी ने कहा देवभूमि में दिल्ली जैसा झूठ नहीं चलेगा तो कौशिक ने तंज कसा कि केजरीवाल ने फ्री का चुग्गा डाला है। गोया उत्तराखंड की जनता मुर्गा-बकरी हो कि चुग्गा डाला जाए!
अब सवाल है कि या तो ये माना जाए कि केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को सत्ताधारी बीजेपी और मुख्य विपक्षी कांग्रेस अपने-अपने लिए खतरा मान चुके हैं? अगर ऐसा है तब तो बेचैन होना लाज़िमी है कि कहीं बारी-बारी की सत्ता भागीदारी में कोई तीसरा खेल न कर जाए। और अगर आम आदमी पार्टी दिल्ली के बाहर न कांग्रेस के लिए खतरा है और ना बीजेपी के लिए तब फिर केजरीवाल की पहली चुनावी पर्ची पर इतना फ़साद क्योंकर!
आखिर एक ऐसी राजनीतिक पार्टी प्रदेश में 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ना चाह रही जिसने न पहले यहां कमाल दिखाया और न अभी उसके मंच पर बीजेपी-कांग्रेस के मुकाबले बड़े नेता जुट पाए हैं। फिर ऐसा क्या कि केजरीवाल की पहली गुगली में दोनों दल फंस गए। या फिर इसे मानिए कि साढ़े चार साल की सत्ता के चलते बीजेपी के कंधे इतना दुहरा गए कि दो-दो मुख्यमंत्री पैदल कर उसे तीसरा चेहरा देना पड़ा है और बावजूद इसके उसे सत्ता विरोधी लहर का डर सता रहा। कांग्रेस भी ये स्वीकार करे कि हरदा-प्रीतम झगड़े ने उसे साढ़े चार सालों में अंदर तक पहले से अधिक खोखला कर दिया है। इतना खोखला कि उसे महज केजरीवाल की जरा सी सियासी चहलक़दमी 2022 के हाथ से निकल न जाए इस चिन्ता में डाल दे रही