देहरादून: सीएम रहते हरीश रावत सत्रह के संग्राम में भल दो-दो विधानसभा सीटों से चुनाव हार गए हों लेकिन वे बाइस बैटल में फिर से चुनावी जंग लड़ने की पूरी तैयारी में है और सियासी बिसात पर आखिरी बाजी खेलने उतर रहे हरदा पर हर हाल में जंग जीतने का दबाव भी है। हरीश रावत की राजनीति को समझने वाले बखूबी जानते भी है कि चौतरफा चुनौतियों के बीच रिजल्ट देने को लेकर कांग्रेसी दिग्गज ज्यादा पसीना बहाते हैं। बाइस बैटल उत्तराखंड में न केवल कांग्रेस बल्कि खुद हरीश रावत की राजनीति के लिहाज ‘करो या मरो’ वाली है। ऐसे में भले खुद हरीश रावत कह रहे हों कि उनकी चुनावी दावेदारी के चांस पचास फीसदी भी नहीं हैं। हरदा ने अपने चुनाव का फैसला पार्टी आलाकमान पर छोड़ दिया है। दरअसल, यह हरीश रावत की सियासी गुगली भी है और मौजूदा हालात की राजनीतिक मजबूरी भी। लेकिन असल में टीम हरदा की आधा दर्जन सीटों पर न केवल नजर है बल्कि संभावित विरोधियों की जन्मकुंडली और खतरे खंगाले जा रहे हैं।
हरीश रावत नहीं चाहेंगे कि वे बैठे-बिठाए सत्ताधारी बीजेपी को उनको ‘रणछोड़’ कहने का अवसर दें। आखिर बीजेपी की सारी चुनावी व्यूहूरचना हरीश रावत की घेराबंदी को लेकर ही होने वाली है जैसी बंगाल में ममता बनर्जी को लेकर रही थी। लेकिन ममता बनर्जी ने बीजेपी के आक्रामक चुनाव अभियान का जवाब उसी के अंदाज में देकर नंदीग्राम गँवाकर पूरा पश्चिम बंगाल जीत लिया। क्या हरीश रावत के लिए आसान होगा चुनाव न लड़कर पार्टी को लड़ाना, जब लड़ाई का सारा दारोमदार उन्हीं के कंधों पर रहेगा!
वैसे भी भले मोदी सुनामी में हरीश रावत ने 2017 में ऊधमसिंहनगर की किच्छा और हरिद्वार जिले की हरिद्वार ग्रामीण सीट गँवा दी हो लेकिन 2022 के चुनाव एक बार फिर हरीश रावत के लिए मौक़ा होगा इन्हीं सीटों से सियासी बदला चुकाने का भी और पहाड़ चढ़कर भाजपाई घेराबंदी की व्यूह रचना करने का भी। रावत के रणनीतिकार अंदरूनी तौर पर आधा दर्जन सीटों को बाइट बैटल के लिए मुफ़ीद मान रहे। हरीश धामी हरदा के लिए धारचूला सीट ख़ाली कर बड़ा संदेश दे चुके और यह सीट आगे भी उनके लिए सुरक्षित क़िले जैसी है। लेकिन यह चुनाव कांग्रेस जब अपनी एक एक सीट बढ़ाने के लिए लड़ेगी तब हरदा भी चाहेंगे कि सीट बीजेपी से छिनी जाए।
ऐसे में हरदा डीडीहाट सीट से लेकर सल्ट पर भी समीकरण तलाश सकते हैं जबकि उसी से लगती रामनगर, किच्छा, काशीपुर जैसी सीटों पर भी माहौल पक्ष में समझा जा रहा। वैसे तो इंदिरा ह्रदयेश के बाद सुमित ह्रदयेश के लिए हल्द्वानी सीट पक्की मानी जा रही लेकिन यहाँ भी कुछ हरदा समर्थक संभावना तलाश रहे। ज़ाहिर है हरीश रावत अभी भले चुनावी ताल न ठोकने की गुगली फेंक रहे हों लेकिन जब संघर्ष बड़ा भीषण होना है और राष्ट्रीय राजनीति में अब कांग्रेस में न स्पेस है और न निकट भविष्य में संभावना तब एक एक सीट को तरसती कांग्रेस के लिए हरदा क्यों न चाहेंगे सियासी समर में कूदना!