ADDA स्पेशल: नौ नवंबर 2000 में उत्तरप्रदेश से अलग होकर अस्तित्व में आए उत्तराखंड ने आर्थिक तरक्की के मोर्चे पर कई कामयाबी हासिल की हैं लेकिन राजनीतिक मोर्चे पर दलबदल के दलबल से लेकर बार बार मुख्यमंत्री बदलने की परिपाटी भी बनती दिखी है। प्रदेश की सत्ता में सबसे लंबे समय तक रही बीजेपी (फिलहाल भी) पर राजनीतिक अस्थिरता का ठीकरा ज्यादा फूटता है क्योंकि अंतरिम सरकार में दो मुख्यमंत्री बनाने से लेकर 2007 में दोबारा सरकार बनने पर खंडूरी निशंक खंडूरी का खेल और तीसरी बार सत्ता मिली तो त्रिवेंद्र तीरथ से लेकर धामी तक तीन बार मुख्यमंत्री बदलने का सिलसिला चला।
इस मामले में कम से कम कांग्रेस का ट्रैक रिकॉर्ड बीजेपी से बेहतर कहा जा सकता है क्योंकि एनडी तिवारी पांच साल मुख्यमंत्री बने रहकर राज्य में सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड बना देते हैं क्योंकि बीजेपी का हाल तो पहले ही बता चुके लेकिन प्रदेश में दोबारा सरकार बनी तो कांग्रेस को भी कुर्सी की अदला बदली के रोग से मुक्त नहीं रह पाई और विजय बहुगुणा के बाद हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया।
यह तो तस्वीर रही प्रदेश की सत्ता में रही कांग्रेस और बीजेपी की लेकिन नेताओं ने भी राजनीतिक अवसरवाद के चलते दल बदलने में कसर नहीं छोड़ी। अगर प्रदेश के दलबदलु नेताओं का जिक्र आयेगा तो पूर्व कैबिनेट मंत्री डॉ हरक सिंह रावत का नाम सबसे ऊपर गिना जा सकता है। एक जमाने में पहाड़ पॉलिटिक्स में मुहावरा चल निकला था कि हरक से पड़ता है फरक (फर्क)। लेकिन बीजेपी से बीएसपी फिर कांग्रेस से बीजेपी और फिर कांग्रेस यानी दलबदल की सांप सीढ़ी बनाते आज कभी अपने चहेतों में “शेर ए गढ़वाल” कहलवाना पसंद करने वाले ‘मिलिट्री साइंस के प्रोफेसर’ डॉ हरक सिंह रावत आज सियासत की उस घायल अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं जहां वापसी किसी मृगमरीचिका सरीखी प्रतीत होती है।
बावजूद इसके ऐसा लगता है कि डॉ हरक सिंह रावत ने आसन्न केदारनाथ उपचुनाव देखकर खुद को एक बार और आजमाने का मन बनाया है, बशर्ते कि कांग्रेस आलाकमान उनकी कलाबाजियां भुलाकर चुनावी दंगल में कूदने का मौका बख्श दे। शायद दिल्ली सोच बदल भी ले लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत जैसे कई खांटी नेता अभी तक 18 मार्च 2016 का जख्म सहलाते सहलाते बीच बीच के खुद ही कुरेद दे रहे ताकि दिल्ली की आंखों को बलबदल का रिसता लहू दिखता रहे।
बहरहाल आज बात दलों के बार बार मुख्यमंत्री बदलने या नेताओं के दलबदल करने को लेकर नहीं बल्कि आज बात हरक सिंह रावत के एक ताजा बयान की करते हैं जिसमें उन्होंने वह कह दिया जिसे कुछ नेता “इधर के भी और उधर के भी” हवा देने में लगे हैं। आखिर अंग्रेज कुछ देकर गए हों न गए हों हमारे राजनेताओं को “बांटों और राज करो” का सबक तो अच्छे से कंठस्थ कराकर गए ही हैं। उत्तराखंड में गढ़वाल और कुमाऊं सियासत का ये ऐसा ककहरा है जिसे जब तब दिल्ली भी इस्तेमाल कर लेता है और प्रदेश के क्षत्रप भी।
सोशल मीडिया चल रहे एक वीडियो में हरक सिंह रावत कहते हैं कुछ लोगों की मानसिकता संकीर्ण हो गई है। कुछ लोगों के दिमाग में ये फितूर है कि चारों धाम केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री धाम एक ही क्षेत्र गढ़वाल क्षेत्र में हैं। हरक सिंह सीधे सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि जानबूझ कर यात्रा को डायवर्ट करने से लोगों में आक्रोश है। चारों धामों के कारोबारी भारी नुकसान में हैं और इसके लिए सरकार जिम्मेदार है। हरक सिंह रावत दिल्ली में केदारनाथ धाम की तर्ज पर मंदिर प्रकरण को लेकर भी धामी सरकार पर निशाना साधते दिखाई देते हैं। हालांकि खुद हरक दावा करते हैं कि वे क्षेत्रवाद के समर्थक नहीं हैं और उन्होंने जिले बनवाते गढ़वाल और कुमाऊं का भेद नहीं किया लेकिन वे चारधाम वर्सेज कुमाऊं के कैंची धाम तथा अन्य धर्मस्थलों की तुलना करते भी नजर आते हैं।
जाहिर है हरक सिंह रावत जैसे वरिष्ठ नेता सामने केदारनाथ उपचुनाव देखकर चारधाम वर्सेज कुमाऊं के धर्म स्थलों की तस्वीर खींचने लगेंगे तो आमजन में तो यह सियासी चिंगारी दावानल बनते कितनी देर लगाएगी? यह गंभीर प्रश्न आज उत्तराखंड के सत्तापक्ष और विपक्ष के समक्ष अनुतरित है। आखिर मात्र 13 जिलों के एक युवा राज्य में सियासत के ऊपरी स्तर पर अगर गढ़वाल बनाम कुमाऊं का मुद्दा ठहरता जायेगा तो इसके परिणाम दूरगामी होंगे। हाई कोर्ट शिफ्टिंग मामले में भी यही बहस छिड़ते छिड़ते सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद थमी थी।
बहरहाल बदरीनाथ और मंगलौर विधानसभा उपचुनाव जीतने के बाद कांग्रेस नेताओं के हौसले बुलंद हैं और इसी लिए केदारनाथ उपचुनाव को लेकर टिकट की मारामारी मचना तय है। उधर चुनाव की तारीखों का ऐलान हो उससे पहले केदार घाटी आपदा की चपेट ने आकर अचेत अवस्था में नजर आ रही है और उठ खड़ा होने के लिए उसे सरकार के साथ साथ चारधाम यात्रा खासकर केदारनाथ धाम की यात्रा के जल्द से जल्द बहाल होने का इंतजार है ताकि छोटे मोटे कामकाजी से होटल, ढाबे, टैक्सी ट्रैवल से लेकर घोड़ा खच्चर वाले आपदा से मिले जख्म से उबर सकें।
इसी बीच चुनाव है तो एक तरह मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी बदरीनाथ और मंगलौर से सबक लेकर नए सिरे से मोर्चाबंदी के लिए खुद फ्रंटफुट पर खेल रहे हैं तो सामने से गणेश गोदियाल ने मोर्चा संभाल रखा है। कुल मिलाकर सियासत बेहद दिलचल्प पड़ाव पर आ चुकी है,जहां धामी वर्सेज गोदियाल जंग में सियासी जमीन बचाने और कब्जाने की पेशबंदी तो दिख ही रही, हरक सिंह रावत जैसे नेताओं के आक्रामक तेवरों की गूंज भी सुनाई दे रही।