Dinesh Agarwal joins BJP: “सांप गुजर गया और वे लकीर पीटते रहे..!” उत्तराखंड कांग्रेस की दिनेश अग्रवाल ने कुछ ऐसी ही स्थिति बना दी है। वरना न प्रीतम सिंह ने कसर रखी और न मान मनौव्वल में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत पीछे रहे। लेकिन दिनेश अग्रवाल ने अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन ली थी और जिस दौर ए सियासत में नेता न इनकी सुन रहे न उनकी बस अंतरात्मा की आवाज पर फैसले ले रहे तब भला दिनेश अग्रवाल कितने दिन और अपनी अंतरात्मा की आवाज को अनसुना कर आत्मा को कष्टप्रद हालात से दो चार होने देते। फिर अपनी राजनीति न सही बेटे के कारोबारी हितों को रक्षा करने के लिए ही सही अगर पाला करना पड़ रहा था तो वे पीछे क्यों रहते! फिर कांग्रेसी दावा करते रहे कि अग्रवाल को मना लिया गया है और अब वे कहीं नहीं जाएंगे। मानो हरदा और प्रीतम उनको किसी खूंटे से बांध आए हों।
फिर भले वे हरदा की सियासी किचन कैबिनेट के अनमोल नगीने ही क्यों न रहे हों! फिर भला हरदा को हरिद्वार लोकसभा सीट पर बेटे की राजनीतिक लॉन्चिंग में धर्मपुर में दिनेश अग्रवाल की सख्त सरकार महसूस हो रही हो, जब एक बार जाने का मन हो चला तब मान मनौव्वल पर वक्त जाया करना फिजूल था। वैसे भी मीडिया ने हो हल्ला मचाकर दिनेश अग्रवाल की अंतरात्मा की आवाज को हफ्तेभर लेट करा दिया था।
आज आखिरकार दिनेश अग्रवाल ने बीजेपी का पटका पहनकर सियासत की ढलान अवस्था में कारोबारी साम्राज्य सुरक्षित रखने का रास्ता खोल लिया है। फिर जब हरदा को हर मुमकिन हक है कि वे लोकतंत्र बचाने के विपक्षी दलों की चीत्कार के बीच अपने पुत्र की राजनीति को चुनावी चक्के लगाकर दौड़ा दें तब भला दिनेश अग्रवाल क्योंकर पीछे रहें! इसलिए बीती शाम कांग्रेस को टाटा बाय बाय बोलकर अगर आज सुबह दिनेश अग्रवाल बीजेपी के हो लिए तो कौनसा पहाड़ टूट पड़ा! आखिर राजनीति में जनहित का मुखौटा पहनकर स्वहित सर्वोत्तम माना जाता है तब भला अपनों को बचाकर खुद बचने का दिनेश अग्रवाल का दांव गलत कैसे?
किसी कांग्रेसी ने नाम न लेने की शर्त पर ठीक ही कहा कि जब हरीश रावत को हर मुमकिन हक है कि वे अपने बेटे को चुनावी अखाड़े में उतरकर उनका राजनीतिक भविष्य संवारें,तब अपने और बेटे के कारोबारी हितों की रक्षा करने से दिनेश अग्रवाल को क्यों रोका जाए भला! आखिर कांग्रेस ने तीन बार विधायक और कैबिनेट मंत्री ही तो बनाया था उसके बाद तो पंजे के निशान पर लड़ने का नतीजा ये मिला कि चुनाव दर चुनाव शिकस्त ही खाने को मिली।
अलबत्ता इससे अच्छा तो राज्य बनने से पहले बिना कांग्रेस की मदद के लड़कर जमानत जब्त कराना बेहतर रहा था! आखिर कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होकर भी दिनेश अग्रवाल को न मेयर बना सकी न 2017 और 2022 में विधानसभा ही दाखिल करा पाई।
ऊपर से बीजेपी विधायक विनोद चमोली सियासी अंगद का ऐसा पांव जमाकर धर्मपुर में खड़े हो गए हैं कि अग्रवाल से उगलते बन रहा था न निगलते! ऐसे में किसी ने ठीक ही कहा कि अपनी सियासत न बचे तो न बचे कम से कम बेटे का कारोबार ही फलता फूलता रहे तो पिता के नाते संतोष मिलता रहेगा। वैसे भी कभी कांग्रेस के अच्छे दिन आयेंगे (जो अभी तो निकट भविष्य में दिख नहीं रहे) तब दिनेश अग्रवाल और उनके सरीखे पाला बदल करने वालों को कौन बीजेपी में बांधकर रख पाएगा!
हरदा ने ठीक कहा कांग्रेस सुस्त भी आलसी भी!
पिछले एक पखवाड़े से दिनेश अग्रवाल रूपी चिड़िया कांग्रेसी घोंसले से आज उड़ी कल उड़ी वाली खबरें चौतरफा नुमाया हो रही थी लेकिन पूर्व सीएम हरदा ने उचित फरमाया कि कांग्रेस सुस्त और आलसी हो चुकी है वरना 48 घंटे पहले जिस दिनेश अग्रवाल को उत्तराखंड में चुनाव प्रचार की बागडोर संभालने के खातिर स्टार प्रचारक न बनाया गया होता! और स्टार प्रचारक बनाने के दो दिन बाद जब भगवा पटका पहनकर दिनेश अग्रवाल बीजेपी दफ्तर में विक्ट्री साइन बना रहे तब छह साल के लिए निष्कासन आदेश पर स्याही और कागज बर्बाद न किया होता।
उत्तराखंड कांग्रेस का हाल देखिए कि संगठन उपाध्यक्ष मथुरादत्त जोशी कह रहे हैं कि दिनेश अग्रवाल लंबे समय से पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त थे इसलिए पार्टी नेतृत्व ने उन पर अनुशासन का डंडा चलाया है। अब कोई यह कतई न पूछे कि लंबे समय से पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त दिनेज अग्रवाल को कुछ ही घंटों पहले तैयार होकर आई स्टार प्रचारकों की लिस्ट में 37 वें नंबर पर किसने सुशोभित कराया था? अब कुछ बिलबिलाए कांग्रेसी हरदा को ढांढस बंधा रहे कि धर्मपुर में आपका झंडा ने झुकने देंगे भले आपके खासमखास दिनेश अग्रवाल सियासत के अंधड़ में सूखे पत्ते की मानिंद रफू-चक्कर हो लिए।
वैसे भी अभी कांग्रेस के कितने और स्टार कैंपेनर प्रतिपक्ष के मंच पर मिमियाते दिखेंगे कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन एकाध की मान मनौव्वल कुछ उसी अंदाज में हो रही जैसी हफ्तेभर पहले दिनेश अग्रवाल की हो रही थी। वैसे इस दौर ए सियासत में जिसे जाना है वो हर हाल में जाकर रहेगा, फिर भी शायद सियासत में धैर्य शीलता की नई परिभाषा गढ़ने को निकल पड़े प्रीतम सिंह प्रयास करने से नहीं चूकना चाहते हैं!
हरदा जानते हैं मान मनौव्वल का अब वक्त कहां रहा इसलिए वीरेंद्र रावत के रथ को हांकते हुए वे लगातार गुनगुना रहे ‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी यूं ही कोई बेवफा नहीं होता’! सियासत के इस खेल को जनता भी देख रही और आए दिन ‘अच्छे दिनों’ की तलाश में बरसों पुराना घरौंदा छोड़कर आ रहे नए परिंदों के लिए कुर्सी मेज सजाता बीजेपी कार्यकर्ता भी देख रहा है।सवाल है कि क्या कोई कुछ महसूस भी कर पा रहा या सिर्फ मूकदर्शक बनने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं बचा?