देहरादून: चिपको आंदोलन महज पेड़ बचाने की लड़ाई भर नहीं था बल्कि ये आंदोलन प्रतीक था प्रकृति से खोए साहचर्य को पुनर्जीवित कर जीवन के विकास का सच्चा पथ प्राप्त करना। ऐसा पथ जहां मानव विकास तो है लेकिन प्रकृति की छांव छूटे बिना। इसी चिपको आंदोलन के प्रणेता विश्वविख्यात पर्यावरणविद् पद्मविभूषण और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुंदरलाल बहुगुणा शुक्रवार को प्रकृति की गोद में समाने अनंत यात्रा पर निकल गए। 94 वर्षीय स्वर्गीय बहुगुणा का जाना शोक के एक सागर में डुबोकर चला गया है। मात्र 13 वर्ष की आयु में आजादी के आंदोलन में कूदे बहुगुणा पर जीवन में आए इस बदलाव की पहली छाप अमर शहीद श्रीदेव सुमन की रही जिनकी प्रेरणा ने उनको अंग्रेज़ी हुकूमत से लेकर टिहरी रियासत के खिलाफ आंदोलन में कूद पड़ने का हौसला दिया। स्वर्गीय बहुगुणा को एक बार बाल्यावस्था में संघर्ष की जो लत लगी तो ताउम्र फिर छूट न सकी। इसी जन संघर्ष की भावना के चलते वे 1981 में पेड़ों के कटान पर रोक की मांग को लेकर पद्मश्री लेने से मना कर देते हैं। फिर शराबबंदी, टिहरी बाँध के विरोध में 1986 में लंबा संघर्ष और 74 दिन की भूख हड़ताल और गांधीजी के सत्याग्रह का रास्ता अपनाकर सरकारों की मनमानियों के सामने चट्टान बनकर खड़े होते गए । मंदिरों में अनुसूचित जाति के लोगों के प्रवेश से लेकर बालिकाओं को शिक्षा दिलाने की अलख जगाने तक जन संघर्ष के नाम अपना जीवन समर्पित किया।। स्वर्गीय बहुगुणा को पर्यावरण संरक्षण के लिए आंदोलन करने पर संयुक्त राष्ट्र संघ में बोलने का अवसर भी मिला। वे आम जनमानस को पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरुक करने को उत्तराखंड को पैदल नापते हुए कश्मीर से कोहिमा तक और गंगा संरक्षण के लिए गोमुख से गंगा सागर तट तक साइकिल यात्रा निकालकर पहुँचे। स्वर्गीय बहुगुणा को अनेकों पुरुस्कार मिले जिनमें 1981 में पद्मश्री( लेने से इंकार) से लेकर 2009 में पद्मविभूषण तक शामिल हैं। अब जब प्रकृति के सुंदर लाल अनंत यात्रा पर निकल गए हैं तो इस मानव जाति के लिए पर्यावरण और प्रकृति के साथ तादात्मय स्थापित करने की महान विरासत छोड़कर गए हैं जहां से आने वाली चुनौतियों के समाधान समय-समय पर निकलते रहेंगे। स्वर्गीय बहुगुणा को श्रृद्धासुमन अर्पित करने वालों का ताँता लगा रहा!
The News अड्डा एक प्रयास है बिना किसी पूर्वाग्रह के बेबाक़ी से ख़बर को ख़बर की तरह कहने का आख़िर खबर जब किसी के लिये अचार और किसी के सामने लाचार बनती दिखे तब कोई तो अड्डा हो जहां से ख़बर का सही रास्ता भी दिखे और विमर्श का मज़बूत मंच भी मिले. आख़िर ख़बर ही जीवन है.