देहरादून ( पवन लालचंद):
इसे आप भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का संकेतक भी मान सकते हैं कि यहाँ चुनावी बिसात पर एक राज्य का मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री को भी मात दे सकता है. या फिर इसे यूँ करके भी समझ सकते हैं कि भारतीय संघीय ढाँचे की नींव का ईंट-गारा इतना गाढ़ा और चिकनाई युक्त है कि यहाँ प्रधानमंत्री मोदी जैसा मौजूदा राजनीतिक क्षितिज का सबसे चमकदार चेहरा भी व्हीलचेयर पर बैठी एक घायल महिला नेत्री के साथ ‘खेला’ में धूल-धूसरित होकर दिल्ली लौट आता है. ये मीडिया द्वारा गढ़ दी गई उस ‘चाणक्य छवि’ को असंख्य दरारें दे डालने वाला नतीजा भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा, जो जय श्रीराम के नारे के सहारे राज्य दर राज्य और चुनाव दर चुनाव ध्रुवीकरण का पांसा फेंककर हर बाजी में जीत का पत्ता अपनी जेब में लेकर धूमने का गुरुर पाले घूम रही थी.
ऐसा नहीं है कि मोदी के करिश्मे और शाह के चुनावी ‘चाणक्य’ दांव पिछले सात सालों में उलटे न पड़े हों. इस राजनीतिक द्वय को पहली झटका तो 2014 में देश का तख़्त हासिल करने के बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल और बिहार में लालू-नीतीश की जुगलबंदी ने दे दिया था लेकिन दो मई को जो बंगाल में हुआ है वो सात सालों में सबसे अलहदा है. दरअसल, दो मई के बंगाल नतीजों ने भारतीय राजनीतिक पटल पर दर्ज होते उस दावे को हिलाकर रख दिया है जिसके तहत ये प्रचारित किया जाने लगा कि अब भारतीय राजनीति अब मोदी नाम के इर्द-गिर्द सिमट चुकी है और आन वाले कई वर्षों तक सियासी पहिया यहीं धँसा रहने वाला है. ममता बनर्जी ने अपनी व्हीलचेयर से मोदी विजय रथ को ऐसा झटका दिया है कि सँभलने में बड़ा वक़्त लगेगा. वक़्त ज्यादा न मोदी के पास है न उनके चाणक्य शाह के पास. खासतौर पर बंगाल ने शाह के राजनीतिक व्याकरण को पूरी तरह चौपट साबित कर दिया है जिसमें ध्रुवीकरण दांव से मनमुताबिक नतीजे पाने का पहाड़ा 2014 के बाद से दोहराया जाता रहा है.
ये हो नहीं सकता कि बीजेपी और संघ, चूंकि कांग्रेस और राहुल गांधी फ़्लॉप साबित हुए इसलिए जैसे कांग्रेस ममता की जीत में मोदी की हार में लोटपोट हुए जा रही, वैसा की स्टैंड अख़्तियार करेगी और यहाँ हार में भी कांग्रेस मुक्त भारत वाला राग छेड़कर चैन की नींद सो जाएगी. और न ही बीजेपी तीन से सत्तर पार सीटों की दलील देकर जश्न मनाएगी बल्कि बीजेपी में फीकी होती मोदी की चुनावी चमक पर हलके ही सही चर्चा तेज होने लगेगी. इसलिये भले दो मई के बाद बीजेपी में एक दम से मोदी विरोध शुरू होने का आकलन बेमानी साबित होगा लेकिन ये जरूर है कि वो धारणा और मजबूत होगी कि राष्ट्रीय चुनाव में सूनामी पैदा करने वाला मोदी फेस क्षेत्रीय लड़ाई में किसी भी क्षत्रप के हाथों का शिकार बन सकता है.
बंगाल चुनाव की पूरी पटकथा खुद बीजेपी ने मोदी बनाम ममता रखी ताकि मुख्यमंत्री को उसी के गढ़ में भ्रष्टाचार, कुशासन और परिवारवादी साबित कर प्रधानमंत्री के सुशासन, विकासपरक और फ़क़ीराना अंदाज से सोनार बांग्ला का सियासी स्वप्न बुना जा सके. मोदी के मैदान में उतरने से पहले जय श्री राम का नारा बुलंद कर ममता को अक्लियतपरत साबित करने का ध्रुवीकरण दांव ‘चाणक्य’ शाह खेल चुके थे. यानी पूरी तरह दो सौ पार के नारे की नींव तैयार थी अब बस प्रधानमंत्री के नेतृत्व में रैलियों का रैला कर धावा बोलने की देर थी. 62 दिन के चुनाव अभियान का फायदा भी बीजेपी को मिलेगा ये सोचा गया क्योंकि उसके पास चुनावी जंग की नेता-काडर की ऐसी मशीनरी है कि उसके सामने विरोधियो के देखते देखते छक्के छूट जाते हैं. लेकिन दूसरे छोर पर अकेले डटी मजबूत जीवट और जूनून वाली नेता ममता बनर्जी के ‘खेला होबे’ ने बीजेपी के करिश्माई नेतृत्व के आभामंडल और चुनावी ‘चाणक्य चतुराई’ वाले दंभ को एक झटके में खंडित कर डाला.
अब मुद्दा ये नहीं कि बीजेपी और संघ में मोदी-शाह के बंगाल दु:स्वप्न के बाद कैसा विचार-मंथन शुरू होता है, असल तथ्य ये स्थापित हो रहा कि सामने से कांग्रेस से टक्कर न रहे तो न मोदी अपराजेय हैं और न शाह का रणनीतिक कौशल ही अभेद्ध ! ममता ने बंगाल बैटल जीतकर गैर-कांग्रेसी विपक्षी ताक़तों को ये अवसर दिया है वे मोदी-शाह के सियासी डर के साये से खुद को मुक्त करें. यूपी में 2019 से पहले इसी सियासी डर के चलते एकजुट हुए और फिर उसी कारण जुदा भी हो गए अखिलेश यादव और मायावती उम्मीद है बंगाल में ममता की हैट्रिक से कुछ हिम्मत हासिल कर पा रहे हों! आखिर बंगाल फ़तह न कर पाने के बाद हताश हसरतें अब यूपी को बचाये रखने के लिए सेनाएँ तैयार करने में जुट गई होंगी.