Your column (डॉ सुशील उपाध्याय): एनआईआरएफ यानी नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क-2024 की रिपोर्ट आ गई है। उत्तराखंड को एक बार फिर निराशा का सामना करना पड़ा है। एनआईआरएफ ने उच्च शिक्षा की 14 श्रेणियों में देश के करीब डेढ़ हजार उच्च शिक्षा संस्थानों (सरकारी, प्राइवेट एवं एडेड आदि, सभी को मिलाकर) को उनकी उत्कृष्टता के आधार पर रैंकिंग प्रदान की है। इन डेढ़ हजार में उत्तराखंड के केवल आठ संस्थान शामिल हैं। प्रतिशत की दृष्टि से देखें तो यह रैंक हासिल करने वाले कुल संस्थानों का करीब आधा प्रतिशत है। ये संख्या कई कारणों से चिंताजनक है।
पहला कारण, उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थापना के मामले में उत्तराखंड राष्ट्रीय औसत से बहुत आगे है। पूरे देश में करीब दस लाख की आबादी पर एक विश्वविद्यालय स्थापित है, जबकि उत्तराखंड का औसत तीन लाख की आबादी पर एक विश्वविद्यालय का है।
बात साफ है, आबादी के मानक पर उत्तराखंड में राष्ट्रीय औसत की तुलना में तीन गुना विश्वविद्यालय संचालित हो रहे हैं। राष्ट्रीय औसत के दृष्टिगत कॉलेजों का आंकड़ा भी डेढ़ गुना है।
स्पष्ट है कि संख्यात्मक वृद्धि के लिहाज से उत्तराखंड ने उल्लेखनीय कार्य किया है, लेकिन गुणात्मक पैमाने पर उच्च शिक्षा (मेडिकल, इंजीनियरिंग, लॉ, एग्रीकल्चर-हॉर्टिकल्चर, मैनेजमेंट, फार्मेसी, आर्किटेक्चर-प्लानिंग, ओपन-डिस्टैंस, स्किल एजुकेशन, डेंटल) की स्थिति चिंताजनक है।
जिन लोगों की आंकड़ों में रुचि है वे एक आसान निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि संस्थानों (सभी प्रकार के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों) की संख्या की दृष्टि से उत्तराखंड के आठ को नहीं, बल्कि लगभग 50 संस्थानों को रैंक मिलना चाहिए था।
चिंता की दूसरी बात यह है कि इन आठ संस्थानों में उत्तराखंड के केवल दो सरकारी विश्वविद्यालयों का नाम सम्मिलित है-जीबी पंत कृषि प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय और कुमाऊं विश्वविद्यालय का फार्मेसी विभाग।
छह अन्य संस्थानों में तीन केंद्रीय संस्थान (आईआईटी रुड़की, एम्स ऋषिकेश और आईआईएम काशीपुर) शामिल हैं। तीन प्राइवेट संस्थानों (ग्राफिक एरा यूनिवर्सिटी, पेट्रोलियम यूनिवर्सिटी और डीआईटी यूनिवर्सिटी का फार्मेसी विभाग) ने प्रदेश की लाज बचाने में सहयोग किया है।
पिछले साल भी इन्हीं संस्थानों ने उत्तराखंड को चर्चा में बनाए-बचाए रखा था। इन आठ संस्थानों में सबसे उल्लेखनीय उपलब्धियां आईआईटी रुड़की को मिली हैं। इस संस्थान ने ओवर ऑल श्रेणी के अलावा रिसर्च, इंजीनियरिंग, इनोवेशन, मैनेजमेंट स्टडीज और आर्किटेक्चर-प्लानिंग की श्रेणियों में भी रैंक प्राप्त किया है। आर्किटेक्चर-प्लानिंग में ये संस्थान देश में पहले नंबर पर है।
इसके अलावा दो निजी विश्वविद्यालयों, ग्राफिक एरा और पेट्रोलियम यूनिवर्सिटी के बीच की प्रतिस्पर्धा की बदौलत भी कुछ राहत भरी स्थितियां पैदा हुई हैं। ये दोनों संस्थाएं ओवर ऑल श्रेणी, यूनिवर्सिटी कैटेगरी, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट स्टडीज में रैंक हासिल कर सकी हैं।
यदि आईआईटी रुड़की और उपर्युक्त दोनों प्राइवेट विश्वविद्यालयों को निकाल दें तो उच्च शिक्षा में प्रदेश की स्थिति केवल चिंताजनक ही नहीं, बल्कि गंभीर दिखाई देगी। इन तीनों को किनारे करके उत्तराखंड के पास केवल एक नाम दिखाई देगा, वो है- जीबी पंत कृषि प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, जिसे यूनिवर्सिटी कैटेगरी, एग्रीकल्चर और स्टेट पब्लिक यूनिवर्सिटी की श्रेणी में रैंक मिल सका है। (इस यूनिवर्सिटी को एग्रीकल्चर में देश की टॉप 10 में शामिल किया गया है)।
इसे और विस्तार से समझें तो साफ है कि राष्ट्रीय स्तर के सबसे बेहतरीन 200 संस्थानों में उत्तराखंड राज्य का अपना कोई भी सरकारी संस्थान शामिल नहीं है। प्रदेश के जिन चार संस्थानों को इस सूची में स्थान मिला है, उसमें आईआईटी रुड़की, एम्स ऋषिकेश भारत सरकार की संस्थाएं हैं जबकि ग्राफिक एरा और पेट्रोलियम यूनिवर्सिटी प्राइवेट संस्थाएं हैं।
तीसरी चिंताजनक बात यह है कि उत्तराखंड में संचालित हो रहे करीब 650 कॉलेजों-संस्थानों (सरकारी, प्राइवेट एवं एडेड) में से एक भी संस्था किसी भी श्रेणी (मेडिकल, इंजीनियरिंग, लॉ, एग्रीकल्चर-हॉर्टिकल्चर, मैनेजमेंट, फार्मेसी, आर्किटेक्चर-प्लानिंग, ओपन-डिस्टैंच, स्किल, डेंटल) में कोई रैंक हासिल नहीं कर सका है।
यहां नैक में ए और ए प्लस ग्रेड हासिल करने वाले कॉलेजों-संस्थानों को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक ही हैं। जब उन्हें नैक में ए या ए प्लस ग्रेड मिला है तो एनआईआरएफ में उन्हें रैंक क्यों नहीं मिल सका ?
वैसे, इन चिंताओं में एक चिंता यह भी है कि सरकार द्वारा संचालित 120 कॉलेजों और सरकार की सहायता पर चलने वाले 21 कॉलेजों में से किसी के भी पास नैक का ए ग्रेड नहीं है। यानी सभी का स्तर औसत या इससे भी नीचे का है।
ऐसे में, इनसे एनआईआरएफ में रैंक की उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही बड़ा सपना होगा।
हद तो यह है कि उत्तराखंड के 34 विश्वविद्यालयों (निजी और सरकारी) में से केवल 10 ने ही नैक से मूल्यांकन कराया है। बाकी के स्तर के बारे में अनुमान लगाना भी मुश्किल है। जब नैक ही नहीं करा रहे हैं तो एनआईआरएफ की रैंक तो बहुत बड़ी बात है।
इस विमर्श में केवल सरकार को दोष देकर बात नहीं बन सकती। यदि सरकार ही जिम्मेदार है तो फिर जीबी पंत कृषि प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय और कुमाऊं विश्वविद्यालय के फार्मेसी विभाग को भी कोई रैंक नहीं मिलना चाहिए।
ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सरकार इन दो संस्थाओं की ही मदद कर रही है और अन्य संस्थाओं के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। सरकार सभी को मदद दे रही है।
यहां सवाल यह है कि मेडिकल, इंजीनियरिंग, लॉ, जनरल हायर एजुकेशन की संस्थाओं के अपने प्रयास किस स्तर के रहे हैं ?
वस्तुतः ज्यादातर संस्थाएं तदर्थवाद का शिकार हैं। विजन और प्लानिंग की बात दूर की कौड़ी है।
चौथी चिंता यह है कि यदि सरकारी कॉलेज और सरकारी विश्वविद्यालय (चाहे वे भारत सरकार के हों या राज्य सरकार के अथवा सरकार द्वारा अनुदानित हों) एनआईआरएफ में रैंक हासिल नहीं करेंगे तो इसका लाभ वे निजी संस्थाएं उठाएंगी जिनका मकसद एजुकेशन बिजनेस से लाभ कमाना है।
जिन निजी विश्वविद्यालयों को एनआईआरएफ की रैंकिंग में स्थान मिला है, उनके यहां बीटेक प्रोग्राम की चार साल की सालाना फीस 5 से 7 लाख रुपये के बीच है, इस फीस में हॉस्टल शामिल नहीं है।
एमबीए प्रोग्राम का फी-स्ट्रक्चर भी लगभग इतना ही है। (अनुमान लगा लीजिए, देश में कितने अभिभावक ऐसे होंगे जो अपने एक बच्चे की इस फीस को चुकाने की स्थिति में होंगे!) जबकि, सरकारी विश्वविद्यालयों में यह फीस एक लाख के आसपास है हॉस्टल के अतिरिक्त)।
फीस के इस अंतर से साफ है कि एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसके लिए सरकारी संस्थान ही अंतिम सपना है। ऐसे में यदि सरकारी एवं सहायातप्राप्त संस्थानों ( कॉलेजों और विश्वविद्यालयों) के एकेडमिक लीडर सुचिंतित और परिणाम केंद्रित पहल नहीं करेंगे तो आगे भी परिणाम निराशाजनक ही रहेगा।