देहरादून( पवन लालचंद): चार राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश के विधानसभा चुनाव नतीजे आ चुके हैं. तमाम ताकत झोंकने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को सत्ता से नहीं हटा पाए. उलटे दीदी ने और ताकतवर होकर बंगाल में सत्ता की हैट्रिक लगा दी है. 2019 में पहले से ज्यादा ताकतवर होकर लौटे मोदी-शाह पांच राज्यों के रण में बीजेपी के हिस्से नए प्रदेश के तौर पर सिर्फ केन्द्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी को ही जोड़ पाए हैं. अब पुड्डुचेरी में गठबंधन सरकार हिस्सा बीजेपी भी होगी. हाँ, असम बचाकर बीजेपी बंगाल में जो बुरी गत हुई है उसका ग़म भुलाने का बहाना खोज सकती है.
इस सबसे इतर सबसे ज्यादा अजब नजारा कांग्रेसी कॉरिडोर्स में दिखलाई दे रहा है. कांग्रेस बंगाल में बीजेपी पर ममता की जीत को लेकर यूँ इतराती दिख रही है, मानो बंगाल का ‘खेला होबे’ सिर्फ बीजेपी के साथ हुआ हो. शुरुआत खुद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्विट कर की जिसमें उन्होंने ममता दीदी को बीजेपी पर फतह को लिए खुश होकर बधाई दी है. बीजेपी पर दीदी को बधाई उस दल का नेता बांट रहा है जो दल एक चुनाव पहले 44 सीटों के साथ बंगाल का मुख्य विपक्षी दल हुआ करता था और आज आर्यभट्ट के शून्य की खोज करके बैठा है.
आज बंगाल मोदी बनाम दीदी में बंट चुका और इस जंग में एक मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को मात दे दी लेकिन बीजेपी की हार में कांग्रेस किस तरह के आनंद का आधार खोज ले रही है. क्या बंगाल में पिछले चुनाव में मिली तीन सीटों से इस बार सत्तर सीट पार चली गई बीजेपी सत्ता हासिल नहीं कर पाई, इतने भर पर इतराने का दिल चाहता है! अगर हाँ तो राहुलजी, आप पूरी कांग्रेस संग इतराइए, झूमिए लेकिन ये बताते जाइये इसका सियासी फायदा आपको कब और किस चुनाव में मिलेगा?
क्योंकि बंगाल को बीजेपी और तृणमूल का अखाड़ा मानकर आप आँखें बंद करने का दावा करना चाह रहे हैं तो ठीक चुनाव से पहले सीपीएम के साथ मिलकर फुरफुरा शरीफ़ के पीरज़ादा अब्बास सिद्दीक़ी की शरण में जाना आपकी कौनसी बेचैनी का परिणाम थी.
फिर भी बंगाल में बीजेपी की हार का हर्ष मना लेंगे तो असम और केरल में हार के बेताल से अपनी पीठ कैसे छुड़ा पाएंगे. असम में सोनोवाल सरकार से नाराजगी, एनआरसी पर बीजेपी के फेल्योर और बदरूद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ को गले लगाकर भी कांग्रेस सत्ता से कोसों दूर क्यों रह गई, ये प्रश्न आपके मन-मस्तिष्क को कब मथेगा?
फिर केरल को लेकर भी तो जश्न मना लीजिए, आखिर बीजेपी का हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण कार्ड वहाँ भी तो नहीं चला. बीजेपी ने लव जिहाद से लेकर सबरीमाला जैसे मुद्दे अपनी चुनावी हांडी में खूब चढ़ाए पर उसकी सत्ता की खिचड़ी पकना तो दूर इस बार राज्य में उसका खाता तक नहीं खुल पाया. इतने भर से तो राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस को मुदित हो जाना चाहिए! या फिर इस पर आत्ममंथन शुरू करेंगे कि आखिर केरल में सारी ताकत झोंकने के बावजूद खुद राहुल गांधी कैसे फेल हो गए. ये पूरे 50 साल बाद हुआ है जब केरल में किसी दल और मुख्यमंत्री ने सत्ता विरोधी लहर को परास्त कर दोबारा सत्ता में वापसी की है. वो भी तब जब खुद राहुल गांधी वायनाड से सांसद हैं और दो साल पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में 20 में 19 सांसद भी जीते थे. यानी राहुल गांधी की तमाम कोशिशों के बावजूद मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के मुक़ाबले न कांग्रेस नेतृत्व दे पाई न नीतियां.
तमिलनाडु में जरूर स्टालिन की चमकदार जीत को अपनी जीत मानकर कांग्रेस ख़ुशफ़हमी पाले रह सकती हैं लेकिन दक्षिण भारत के इकलौते राज्य यानी केन्द्रशासित प्रदेश पुड्डुचेरी में भी अब वो सत्ता गंवा चुकी है. जाहिर है पांच राज्यों की चुनावी जंग में सबसे ज्यादा घाटा कांग्रेस को ही हुआ है, कहां तो वह केरल में खुद को सत्ता पाने के करीब देख रही थी, असम में उलटफेर करने का दम भर रही थी और बंगाल मे लेफ़्ट के साथ मिलकर त्रिकोणीय मुक़ाबले की पटकथा लिखना चाह रही थी जिसके लिए उसने पीरज़ादा अब्बास सिद्दीक़ी के दल से हाथ मिलाकर सांप्रदायिक राजनीति में खुद को शामिल होना तक गंवारा कर लिया. वह कांग्रेस आज दीदी की जीत पर इतराए तो इसे आत्मघाती कदम न समझा जाए तो क्या समझा जाए.
वैसे अगर सियासी दुश्मन की हार में जीत खोजना ही मौजूदा दौर में कांग्रेस की अंतिम राजनीति और रणनीति ठहरी तो फिर तय कर लीजिए कि अगले साल यूपी में बीजेपी और सपा की जंग में किस कोने खड़े होकर इतराना है! ये सवाल यूपी में भाग-दौड़ करती दिख रही प्रियंका गांधी वाड्रा समय रहते राहुल गांधी से पूछ लें तो और बेहतर हो.