
- The ace Mountaineer, the first woman who scaled Mount Everest and Mount Makalu in a span of just 16 days, dies in Avalanche in Uttarkashi on Tuesday.
दृष्टिकोण (पंकज कुशवाल): एक दिन मेरे मोबाइल पर एक फोन आया, दूसरी तरफ से एक लड़की ने खुद का नाम सविता कंसवाल बताया और देहरादून में मिलने का समय मांगा। मैंने उन्हें विधायक हास्टल स्थित स्व. गोपाल सिंह रावत जी के कार्यालय में मिलने को बुला लिया। दोपहर बाद आई सविता ने बताया कि वह एवरेस्ट जाना चाहती है और इसके लिए जरूरी संसाधन जुटाने के लिए वह तत्कालीन विधायक स्व. गोपाल सिंह रावत जी से सहायता चाहती है। विधायक स्व. गोपाल सिंह रावत जी के साथ हमारी घंटे भर बातचीत होती रही। हम उसके हौंसले के कायल हो चुके थे लेकिन सहायता करने के नाम पर हम खाली हाथ थे। एवरेस्ट आरोहण हो या कोई अन्य पर्वतारोहण, राज्य सरकार सीधे तौर पर मदद तो नहीं करती है लेकिन हां कुछ निजी एजेंसी अभियान को स्पांसर जरूर करती हैं।
विधायक जी ने अपने स्तर से हर संभव मदद का आश्वासन दिया और इसके लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री को भी तत्काल पत्र लिखकर सविता कंसवाल के एवरेस्ट अभियान के लिए सहायता देने की मांग की।
खैर, सविता वह अभियान कुछ तकनीकी कारणों से पूरा नहीं कर पाई लेकिन उसी दौरान सविता ने एक अन्य चोंटी पर अपने कदमों के निशान छोड़ दिए थे।
बावजूद इसके सविता दुनिया की सबसे उंची चोंटी पर अपने कदमों के निशान छोड़े बगैर कहां मानने वाली थी। इस साल सूचना मिली कि सविता के एवरेस्ट अभियान को एवरेस्ट पर पहली भारतीय महिला पर्वतारोही के तौर पर फतह हासिल कर चुकी उत्तरकाशी की एक और बेटी बछेंद्री पाल का साथ मिल गया।
टाटा एडवेंचर फाउंडेशन के तहत सविता का यह सपना पूरा होने वाला था। मई में एक दिन खबर आई कि लौंथू्र गांव की बेहद गरीब घर की बेटी सविता ने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट को छू लिया है और इसी के साथ वह दुनिया में सबसे ऊपर अपने करियर के मुकाम पर खड़ी हो चुकी थी।
23 साल की सविता अपनी चार बहनों में सबसे छोटी थी। अपने बुजुर्ग माता-पिता की उम्मीदों का इकलौता सहारा सविता ने इस साल 12 मई को सुबह नौ बजे जब दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर अपने कदम रखे थे तो उसके बुजुर्ग माता पिता के साथ पूरा जनपद खुशी से झूम उठा था।
महज 23 साल की उम्र में एवरेस्ट से पहले सविता दुनिया की चौथी सबसे ऊंची और मुश्किल चोटी माउंट ल्होत्से पर भी अपने कदमों के निशान छोड़कर आ चुकी थी। शायद उसे जल्दी थी, तभी वह जल्दी जल्दी दुनिया के शीर्ष कहे जाने वाली चोटियों पर अपने पैरों के निशान छोड़ जाना चाहती थी।
एवरेस्ट फतह कर लौटने के बाद वह नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में एक प्रशिक्षक के तौर पर जुड़ गई थी। अपनी उम्र से दोगुने उम्र के पर्वतारोहण के शौकीनों को वह बर्फ के पहाड़ों पर जानलेवा मुश्किलों को पार करना सिखाती थी। लेकिन मंगलवार की सुबह द्रौपदी का डांडा का सफल आरोहण कर जब वह प्रशिक्षणार्थियों के साथ लौट रही थी तो हिमालय की यह बेटी हमेशा हमेशा के लिए हिमालय में ही समा गई।
वह हिमालय सी ही थी…. उत्तरकाशी की बेटी को नमन।
सविता, तुम अपने जैसी उन हजारों लड़कियों को प्रेरणा देती रहोगी जिनके लिए जेंडर, आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति हमेशा रोड़ा बनकर खड़े हो जाते हैं लेकिन वह इन बाधाओं से कहां डरती हैं, उसे तो दुनिया की सबसे ऊंची चोटियों को छूना है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं।)