देहरादून: UNIFORM CIVIL CODE यानी समान नागरिक संहिता। उत्तराखंड की धामी सरकार 2.0 ने अपनी पहली ही कैबिनेट में UCC लागू करने का फैसला किया है। इसे लेकर एक उच्च स्तरीय समिति बनाई जाएगी जिसमें विधि विशेषज्ञ, जनप्रतिनिधि और बुद्धिजीवियों से लेकर तमाम स्टेकहोल्डर्स शामिल होंगे। यूं तो यह मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का 14 फरवरी को विधानसभा चुनाव के लिए होने वाली वोटिंग से ठीक पहले प्रचार के आखिरी दिन 12 फरवरी को किया गया चुनावी वादा था. । इसके तहत सरकार बनते ही पहली ही कैबिनेट बैठक में यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड पर फैसला लेने का वादा किया गया था। धामी ने वादा किया था कि UCC प हाई पॉवर कमेटी बनाएंगे और गुरुवार को इस वादे को पूरा करने के लिए बड़ा फैसला ले लिया गया।
जाहिर है सत्ताधारी दल का अपने किसी चुनावी वादे पर अमल करना लोकतंत्र की मजबूती का सुखद संकेतक होता है। लेकिन क्या समान नागरिक संहिता का मसला मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी या उत्तराखंड सरकार के अधिकार क्षेत्र में है भी? अगर राज्य सरकार इस पर सक्षम हो सकती है तो फिर भाजपा के विधानसभा चुनाव 2022 के विजय डॉक्यूमेंट में इतना अहम और संवेदनशील मुद्दा जगह क्यों नहीं पाता है? जबकि भाजपा ने तो 1989 के लोकसभा चुनाव में ही समान नागरिक संहिता (UCC) का मुद्दा उठा लिया था। यहां तक कि भाजपा ने 2019 के पिछले लोकसभा चुनाव में भी समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा दोहराया है। फिर उत्तराखंड चुनाव में उतरते पार्टी अपने विजय डॉक्यूमेंट (Manifesto) में इसे शामिल क्यों नहीं कर पाई?
वह भी तब जब दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक समान नागरिक संहिता को लेकर केन्द्र सरकार पर प्रयास न करने की तोहमत लगाते नाराज़गी जता चुके। पिछले साल ही जुलाई में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी समान नागरिक संहिता ( UNIFORM CIVIL CODE) लागू करने के लिए केन्द्र सरकार को ज़रूरी क़दम उठाने को कहा था। ज़ाहिर है मसला बेहद गम्भीर है लेकिन इस पर अब तक मोदी सरकार का रुख़ ढीला-ढाला या कहिए टाल-मटोल वाला रहा है। ऐसे में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धानी का मोदी सरकार से भी आगे बढ़कर समान नागरिक संहिता को लेकर एक्शन में आना काबिलेगौर है। यानी पड़ताल कर ली जाए कि आख़िर किसी राज्य सरकार के हिस्से समान नागरिक संहिता का भविष्य कितना और क्या है?
समान नागरिक संहिता ( Uniform Civil Code) ?
बहुत आसान भाषा में समझा जाए तो समान नागरिक संहिता का मतलब है सभी धर्मों-वर्गों के लिए एक जैसा क़ानून। अभी तक देश में तमाम धर्मों के अपने व्यक्तिगत क़ानून ( Personal Law) वजूद में हैं। बार-बार अदालतें भी कह रही हैं कि जाति, धर्म और समुदाय से ऊपर उठ रहे देश भारत में समान नागरिक संहिता समय की मांग (Need of the hour) है। समान नागरिक संहिता का अर्थ है कि धर्म और वर्ग से ऊपर उठकर पूरे देश में एक समान कानून लागू करना है।
समान समान नागरिक संहिता लागू हो गई तो क्या होगा?
अगर देश में समान नागरिक संहिता लागू हो जाएगी तो इससे पूरे देश में विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे सामाजिक मुद्दे सभी एक समान कानून के तहत आ जाएंगे। यानी धार्मिक पहचान या धर्म के आधार पर अलग कोर्ट या अलग व्यवस्था समाप्त हो जाएगी।
क्या कहता है संविधान का अनुच्छेद 44 ?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत राज्य को उचित समय आने पर सभी धर्मों लिए ‘समान नागरिक संहिता’ बनाने का निर्देश मिलता है। यहाँ राज्य का अर्थ केन्द्र और राज्य से समझा जा सकता हैं।
केन्द्र या राज्य कौन ला सकता है Uniform Civil Code?
इस बहस में संविधान और विधि-विशेषज्ञ बंटे नज़र आते हैं। संविधान के एक्सपर्ट और लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचारी कहते हैं कि केन्द्र और राज्य दोनों को समान नागरिक संहिता जैसा क़ानून लाने का अधिकार है क्योंकि विवाद, तलाक़, उत्तराधिकार और प्रॉपर्टी का अधिकार जैसे मामले संविधान की समवर्ती सूची में आते हैं।
जबकि सु्प्रीम कोर्ट के एडवोकेट विराग गुप्ता तर्क देते हैं कि उत्तराखंड या कोई भी राज्य सरकार समान नागरिक संहिता को क़ानूनी तरीक़े से अपने यहां लागू नहीं कर सकती है क्योंकि अनुच्छेद 44 राज्य को समान नागरिक संहिता लागू करने की छूट देता है ते अनुच्छेद 12 के तहत ‘राज्य’ का अर्थ केन्द्र और राज्य सरकार दोनों का समाहित होना है। एडवोकेट गुप्ता कहते हैं कि समान नागरिक संहिता को सिर्फ़ और सिर्फ़ संसद के माध्यम से ही लागू किया जा सकता है। उनका तर्क है कि संविधान ने क़ानून बनाने की शक्ति तो केन्द्र और राज्य दोनों को दी है लेकिन पर्सनल लॉ के मामले में राज्य सरकार के हाथ बंधे हैं। लिहाज़ा अगर उत्तराखंड या कोई अन्य राज्य सरकार अगर पर्सनल लॉ में संशोधन या समान नागरिक संहिता जैसा क़ानूनी क़दम उठाने की कोशिश करती है तो उस हालात में क़ानून की वैधता को अदालत में चुनौती मिल सकती है।
पूर्व केन्द्रीय क़ानून सचिव पीके मल्होत्रा भी मानते हैं कि यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड जैसा क़ानून संसद के रास्ते केन्द्र सरकार ही ला सकती हैं। जबकि आचारी तर्क देते हैं कि कोई भी राज्य विधानसभा अपने यहाँ रहने वाले समुदाय के लिए ऐसा क़ानून बना सकती है क्योंकि स्थानीय विविधताओं को राज्य सरकार द्वारा बनाए क़ानून से मान्यता मिल सकती है।
क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू का UCC को लेकर पत्र
हाल में देश के क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने भाजपा सांसद निशिकांत दुबे को लिखे पत्र में कहा था कि समान नागरिक संहिता के विषय के महत्व और इससे जुड़ी संवेदनशीलता और विभिन्न समुदायों को नियंत्रित करने वाले पर्सनल लॉ से जुड़े प्रावधानों के गहन अध्ययन की ज़रूरत के मद्देनज़र इससे संबंधित मुद्दों की जांच और सिफ़ारिश करने का प्रस्ताव 21वें विधि आयोग को भेजा था। अब यह अलहदा है कि 21वें विधि आयोग का कार्यकाल 31 अगस्त 2018 को ही समाप्त हो गया। लिहाज़ा अब मामले को 22वें विधि आयोग को सौंपा जा सकता है। ज्ञात हो कि भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने एक दिसंबर 2021 को पत्र लिखा था जिसका जवाब क़ानून मंत्री रिजिजू ने 31 जनवरी 2022 को दिया।
यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड की आवश्यकता क्यों?
विभिन्न धर्मों के अलग क़ानूनों से न्यायपालिका पर बोझ बढ़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इससे निजात मिलेगी और वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द आने की उम्मीद जगेगी।
विवाह, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में बिना धर्म का भेद किए सबके लिए एक समान कानून होगा। फ़िलहाल हर धर्म के मामलों का निपटारा पर्सनल लॉ यानी व्यक्तिगत कानूनों के ज़रिए होता है।
समान नागरिक संहिता की मूल अवधारणा यही है कि इससे सभी धर्मों-वर्गों के लिए एक समान कानून होने से राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा।
समान नागरिक संहिता के फ़ायदे ?
कानूनों का सरलीकरण : समान नागरिक संहिता से विवाह, विरासत और उत्तराधिकार सहित विभिन्न मुद्दों से संबंधित जटिल कानून सरल होंगे और बिना धार्मिक भेद किए सभी भारतीयों पर एक समान लागू होंगे।
लैंगिक न्याय : समान नागरिक संहिता लागू होने से व्यक्तिगत कानून यानी पर्सनल लॉ ख़त्म होंगे जिससे ऐसे क़ानूनों में क़ायम लैंगिक पक्षपात की समस्या से भी छुटकारा मिल सकेगा।
महिलाओं और मॉयनॉरिटी को संरक्षण, राष्ट्रीय भावना को बल: यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड का मक़सद महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों से लेकर तमाम संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना भी है और एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को भी बढ़ावा मिलेगा।
धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को मिलेगी ताक़त: ज्ञात है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द अंकित है। साफ है एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य को धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभाजित नियमों के बजाय सभी नागरिकों के लिये एक समान कानून व्यवस्था लागू करनी चाहिए।
समाम नागरिक संहिता के विरोध में तर्क ?
समान नागरिक संहिता के विरोध में दिया जाने वाला पहला तर्क तो यही है कि इसके जरिए सभी धर्मों पर हिन्दू कानून लागू करने की मंशा है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है।
सेक्युलर देश यानी धर्मनिरपेक्ष गणराज्य में लोगों के व्यक्तिगत क़ानूनों यानी पर्सनल लॉ में दखलंदाजी नहीं होना चाहिए। और अगर समान नागरिक संहिता बनती भी है तो धार्मिक स्वतंत्रता का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए।
फ़िलहाल कहां- कहां लागू है समान नागरिक संहिता?
गोवा: भारत की बात करें तो गोवा में 1961 से ही पुर्तगाली सिविल कोड 1867 लागू हैं। यानी गोवा के भारत का हिस्सा बनने से पहले से वहाँ समान नागरिक संहिता लागू है।
जबकि अगर दुनिया की बात करें तो अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की , इंडोनेशिया, सूडान, इजिप्ट जैसे कई देशों में समान नागरिक संहिता लागू की गई है। लेकिन कुछ देशों की समान नागरिक संहिता से मानवाधिकार संगठन सहमत नहीं नज़र आते हैं।
ज़ाहिर है मामला न केवल बेहद पेचीदा है बल्कि संविधान और क़ानून के लिहाज़ से व्यापक अध्ययन और बहस की डिमांड भी करता है। अब धामी सरकार 2.0 समान नागरिक संहिता पर दम दिखाकर आगे ज़रूर बढ़ गई है लेकिन उसे याद रखना होगा कि पांच साल पहले इसी अंदाज में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने ‘सौ दिन में लोकायुक्त’ का वादा निभाने का दावा ठोका था और ज़बरन बिना विपक्ष की माँग के विधानसभा की प्रवर समिति को भेजे लोकायुक्त बिल का हश्र कैसा हुआ सभी को ज्ञात है। उम्मीद है युवा मुख्यमंत्री धामी इस तथ्य से भली-भांति परिचित होंगे!
स्रोत: द हिन्दू, दृष्टि आईएएस, आजतक।