- भूपेश उपाध्याय ले गए कैलाश विजयवर्गीय से दिल्ली मिलाने तो जैसे-तैसे हो पाई भाजपा में एंट्री
देहरादून: अरविंद केजरीवाल की अंगुली पकड़कर ‘उत्तराखंड नवनिर्माण’ के लिए आम आदमी पार्टी का झंडा उठाकर सियासत का पहाड़ चढ़ने निकले 2 बार के माउंट एवरेस्ट फतह करने वाले कर्नल अजय कोठियाल सालभर में पहली चुनावी शिकस्त खाते ही हांफने लगे और सत्ताधारी भाजपा के दरवाजे पहुंचकर सरेंडर कर गए हैं।
12-13 महीने की अपनी इस पहली ही राजनीतिक इंनिंग्स में सेना में रहते अपने शौर्य का लोहा मना चुके कर्नल इस तरह धड़ाम होकर सत्ता से समझौता करने को मजबूर हो गए यह देखकर सियासत के कुछ जानकारों को उन और उनके सलाहकारों पर तरस आ रहा तो कई इसे कोठियाल की सुविधाजीवी सियासत को तरसती फितरत करार दे रहे हैं। वरना जिन बड़े दावों का ढिंढोरा पीटते कर्नल कोठियाल ने केजरीवाल की झाड़ू उठायी थी उससे इतना जल्दी न त्याग देते!
दरअसल कर्नल जैसे चेहरे सियासत को लड्डू समझकर बैठे होते हैं और उनको गुमान होने लगता है कि उनके भीतर भी एक बदलाव का नायक बैठा है जो सत्ता की पगडंडियों पर निकला तो देखते ही देखते सियासत का चमकीला सितारा बन बैठेगा। इसकी एक वजह अनिल कपूर की नायक फ़िल्म को अति बार देख लेने का साइड इफ़ेक्ट भी हो सकता है।
यह तो गनीमत हो कि कर्नल के आम आदमी पार्टी में सहयोगी रहे भूपेश उपाध्याय की भाजपाई दिग्गज कैलाश विजयवर्गीय से पुरानी दोस्ती ठहरी कि उन्होंने दिल्ली ले जाकर मुलाकात करा दी। कैलाश विजयवर्गीय ने ही मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से फोन पर बातचीत कर कर्नल की उनसे मुलाकात फिक्स कराई और इस तरह जैसे तैसे कर्नल को नया राजनीतिक ठिकाना नसीब हो गया। बकौल कर्नल कैलाश विजयवर्गीय ने भूपेश को डांटा कि कर्नल नहीं वे तो राजनीतिक रूप से समझदार थे फिर कैसे AAP में जा फंसे। बक़ौल कर्नल विजवर्गीय ने जब उन्हें कहा कि कर्नल साहब देर मत करो भाजपा जॉइन करो तो मानो यह उनके लिए टर्निंग पॉइंट था और इसके बाद वे भाजपा में शामिल हो जाते हैं।
कल्पना करिए किस तरह की स्थिति में कर्नल अजय कोठियाल पहुंच गए और येन केन प्रकारेण भाजपा में एंट्री के लिए वे दिल्ली-देहरादून एक किए पड़े थे। जिन्हें उत्तराखंड के नायक के तौर पर पेश कर आम आदमी पार्टी ने गली मोहल्ले से लेकर तमाम हाइवे के होर्डिंग्स रंग डाले थे वे कर्नल हार के एक थपेड़े के बाद इतना बेचैन हो गए कि 22 साल की व्यवस्था बदलने के अपने ही दावों और वादों पर एक कदम चलने का हौसला तक नहीं जुटा सके।
अगर ऐसा नहीं होता तो अपने मन के मुद्दों, अपने चेहरे पर चुनावी बिसात के बावजूद न आम आदमी पार्टी की बुरी हार और न अपनी पसंद की सीट पर पहले चुनाव में जमानत ज़ब्त होते ही कर्नल मैदान छोड़कर भाग खड़े होते।
कर्नल में संघर्ष का माद्दा होता तो वे चुनावी हार को जनता का जनादेश मानकर सड़क पर संघर्ष की उम्मीद को ताकत देते फिर भले अपनी एक राजनीतिक जमीन तैयार कर किसी दल का रुख करते। लेकिन कर्नल ने संघर्ष के कठिन रास्ते को अपनाने की बजाय सत्ता के सामने सरेंडर होकर सुविधा का मार्ग चुनना बेहतर समझा। ज़ाहिर है इसका उन्हें पूरा हक भी है कि वे किस सियासी रास्ते जाना चाहें।
बशर्ते इतना ज़रूर याद रखें, ‘समंदर से दोस्ती करते दरिया अपने होने का गुमान छोड़ दे।’
भाजपा में शामिल होते-होते कर्नल कोठियाल को माइक के लिए सब्र रखने का संदेश देकर मदन कौशिक ने भाजपाई सियासत का पहला ककहरा पहले ही दिन सिखा दिया है।