ADDA AMALYSIS: उत्तराखंड की राजनीति में पूर्व कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत अपने समर्थकों के बीच ‘शेर ए गढ़वाल’ के रूप में जाने जाते रहे हैं और ऐसे कई मौके आए जब हरक की हुंकार ने पहाड़ पॉलिटिक्स पर बड़ा फर्क डाला। 18 मार्च 2016 की कांग्रेस में हुई नौ विधायकों की बगावत के राजनीतिक आर्किटेक्ट पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के साथ हरक सिंह रावत ही थे। हरीश रावत को स्टिंग के डंक ने काटा तो उस खेल के एक किरदार भी हरक ही थी।
इसीलिए उत्तराखंड की राजनीति में कहा जाने लगा कि हरक से पड़ता है फर्क! शायद इसी सुनहरे ख़्वाब को लेकर हरक सिंह रावत ठीक 2022 के चुनाव से पहले सत्ताधारी भाजपा से कांग्रेस पहुँचे। लेकिन बाइस बैटल के नतीजों ने साबित कर दिया कि वो गुजरे दिनों की बात हुई जब हरक के मूवमेंट से सियासत पर फर्क पड़ता था।
बाइस बैटल में भाजपा ने सत्ता में वापसी कर ‘बारी-बारी भागीदारी’ का मिथक तो तोड़ा ही, हरक सिंह रावत की उस राजनीतिक हसरत को भी स्वाहा कर दिया जिसके तहत वे अपनी पुत्रवधू को राजनीति के रणक्षेत्र में जीत के साथ एंट्री दिलाना चाह रहे थे।
रही सही कसर कांग्रेस आलाकमान ने पूरी कर दी जब भाजपा से पांच साल मंत्रीपद का सुख भोगकर आए दलित चेहरे यशपाल आर्य को तो नेता प्रतिपक्ष बनाकर तोहफा दे दिया लेकिन तरसते रह हए हरक सिंह रावत! विधानसभा चुनाव में हार गणेश गोदियाल की अध्यक्ष की कुर्सी गई इसने तो प्रीतम सिंह को सुकून दिया लेकिन नेता प्रतिपक्ष पद की फिर से चाहत पाले चकराता के चाणक्य के साथ उस वक्त ‘खेला’ हो गया जब चंद दिनों पहले भाजपा में पांच साल सत्ता में रहकर आए यशपाल आर्य को ही कांग्रेस कैंप से भाजपा को घेरने का मौका दे दिया गया।
यह प्रीतम सिंह के लिए तो किसी बड़े सियासी झटके से कम नहीं ही था, भला हरक सिंह रावत को भी कहां रास आने वाला था! आखिर एनडी तिवारी के शिष्य रहे आर्य कांग्रेस में दोबारा लौटे तो हरदा के मुरीद होकर लौटे। लिहाजा प्रीतम कैंप के लिए यह और कोढ़ में खाज वाली स्थिति हो चली। लेकिन हार के जख्म इतने गहरे थे कि हरदा और प्रीतम कैंप को लेकर लगा 2024 को लेकर पेशबंदी करने के लिए मैदान में उतरने में!
सिटिंग सीएम रहते ऊधमसिंहनगर की किच्छा सीट और हरिद्वार जिले की हरिद्वार ग्रामीण सीट हारे हरदा के लिए बाइट बैटल भी बहुत दुखदाई रही। कहां तो वे राहुल गांधी के दरबार से कैपेन कमेटी के अगुवा बनकर कांग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी ताजपोशी तय मानकर चल रहे थे और कहां कांग्रेस निपट ही गई लगे हाथ हरदा भी लालकुआं के सियासी भँवर में बुरी तरह से शिकस्त खा बैठे। लेकिन राजनीति में भला ठहरता कौन है और फिर हरदा तो वह फ़ीनिक्स बर्ड हैं जो अपनी एशेज़ से फिर खड़ा होने का करिश्मा दोहराते रहे हैं।
शायद इसी सुनहरे सपने को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत 2024 में भी 2009 दोहराने की हसरत लिए हरिद्वार के सियासी अखाड़े में ताल ठोकने का मन बना चुके हैं। लेकिन प्रीतम कैंप को भला यह कैसे ना नागवार गुजरे। धामी सरकार के 100 दिनों में चुप्पी साधे रहे हरक सिंह रावत की अचानक बढ़ी सरगर्मी को प्रीतम कैंप का नया सियासी दांव समझना भूल नहीं होगा।
हरक सिंह रावत के घर पर प्रीतम सिंह, भुवन कापड़ी, विजयपाल सजवाण से लेकर कई नेताओं का जुटना और फिर अगले दिन हरिद्वार में स्वामी ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मचारी के आश्रम में प्रीतम-हरक का पहुंचना बताता है कि 2024 की चुनौती से पहले हरिद्वार लोकसभा सीट से कौन ताल ठोकेगा इसे लेकर हरदा और प्रीतम कैंप जोर आजमाइश कर लेना चाहते हैं। हरक ने देहरादून की बैठक के बाद विपक्ष के कमजोर, निष्क्रिय और ख़ामोशी ओढ़े होने का बयान देकर नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य को निशाने पर लिया, तो अगले दिन हरिद्वार से हरदा पर हमला बोलकर लोकसभा चुनाव को लेकर अपनी हसरत का इज़हार कर दिया। फिलहाल हरक सिंह हालत हरिद्वार या पौड़ी संसदीय सीट को लेकर दावेदारी पेश कर रहे हैं लेकिन उनका असल मकसद हरीश रावत की लोकसभा की लड़ाई में उतरने की हसरत पर पानी फेरना है।
लेकिन क्या घाट घाट का सियासी पानी पी-पीकर हरक सिंह रावत अब इस स्थिति में हैं भी कि वे बारगेन कर सकें!
अगर नहीं तो क्या यह उनका चाय की प्याली में उठाया जा रहा तूफान है? या फिर पहाड़ पॉलिटिक्स पर फर्क डालने लायक ऊर्जा हरक में शेष बची है? आखिर ईडी और सीबीआई के इस दौर में हरक सिंह रावत कितना दूर तक जाकर डबल इंजन सरकार पर हमला बोल सकते हैं, यह बहुत आसानी से समझ आ सकता है।
वैसे भी देहरादून की डिफेंस कॉलोनी के अपने घर से निकलकर सामने ही ठहरे महाराष्ट्र राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से गुपचुप मिलकर आ जाना हरक सिंह रालक की फर्क डालने वाली राजनीतिक ज्वाला पर पड़ते ठंडे पानी सरीखा सच है। आखिर सूबे की राजनीति की समझ रखने वालों में यह किसे नहीं पता कि भगतदा इस वक्त कितनी पॉवरफुल फ़ॉर्म में सियासी बैटिंग कर रहे हैं! उधर, उद्धव ठाकरे जा चुके और एकसाथ शिंदे के साथ भाजपा महाराष्ट्र में सरकार बना चुकी है, तो इधर भगतदा के शिष्य पुष्कर सिंह धामी उत्तराखंड की सत्ता के दोबारा सिरमौर बन चुके हैं।
ऐसे में हरक सिंह का चुपके चुपके भगतदा से मिलना कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ने को लेकर उनकी तैयारी और गंभीरता का खुलासा करने को काफी है। तो क्या हरक सिंह रावत दोबारा सक्रिय होकर एक और राजनीतिक पारी खेलने का मन बना चुके हैं और प्रीतम सिंह के साथ मिलकर हरीश रावत से निपट लेना चाह रहे हैं। दरअसल, हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर ही दो ऐसे जिले रहे, जहां बाइस बैटल में वोट और सीट के लिहाज से कांग्रेस भाजपा पर भारी पड़ी। हरक जानते हैं कि 2009 में हरदा को हरिद्वार से ही राजनीतिक संजीवनी मिली थी वरना अपने गृह जिले अल्मोड़ा में तो हार दर हार ने हरदा को हार’दा बना डाला था।
2019 में हरदा चुनावी जंग के आखिरी दौर में हरिद्वार छोड़कर नैनीताल-ऊधमसिंहनगर भागे थे लेकिन मोदी सुनामी में वे सबसे बड़े अंतर के साथ भगतदा के हटने के बाद राजनीतिक लड्डू समझ रहे अजय भट्ट से हार गए थे। अब बाइस बैटल जीतकर अनुपमा रावत ने अपने पिता की 2017 की हार का स्वामी यतीश्वरानंद से हिसाब चुकता कर लिया है और इसी जिले से कांग्रेस के पांच विधायक जीतकर आए हैं। यह समीकरण प्रीतम कैंप को भी बखूबी समझ आ रहा लिहाजा हरक सिंह रावत को मैदान में उतारा है ताकि हरदा अगर चुनाव लड़ें भी तो उनको लालकुआं जिस नैनीताल ऊधमसिंहनगर लोकसभा सीट में आता है वहीं से मोर्चा संभालने के लिए रोक दिया जाए।
बहरहाल अब तक दो बार भाजपा और एक-एक बार बसपा और कांग्रेस छोड़ चुके हरक सिंह रावत क्या वाकई सियासत के वह ‘शेर ए गढ़वाल’ बचे भी हैं कि उनकी धमक दिल्ली दरबार तक होगी? फिर आलाकमान किसी भी तरफ का हो, क्या हरक को लेकर नरमी बरतेगा? या फिर मोदी मैजिक के इस दौर में हरक सिंह रावत का हल्ला चाय की प्याले का तूफान बनकर रह जाएगा? अभी इंतजार करना होगा।