- ढाई दशक बाद गांधी परिवार से अमेठी में चुनावी ताल के लिए कोई नहीं
- कांग्रेस ने गांधी परिवार के वफादार किशोरी लाल शर्मा को अमेठी में स्मृति के सामने उतारा
- राहुल गांधी का मंच से नारा- डरो मत!, मैदान में खुद कर गए पलायन!
- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का राहुल गांधी पर तीखा तंज- ‘डरो मत, भागो मत!’
Dehradun: डरो मत, भागो मत! जी हां राहुल गांधी के अमेठी छोड़कर रायबरेली से चुनावी ताल ठोकने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का पहला हमला कुछ इसी अंदाज में हुआ है। पश्चिम बंगाल से चुनावी हुंकार भरते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीखा तंज कहते हुए कहा,” मैंने पहले ही ये बता दिया था कि शहजादे वायनाड में हार के डर से अपने लिए दूसरी सीट खोज रहे हैं। अब इन्हें अमेठी से भागकर रायबरेली सीट चुननी पड़ी है। ये लोग घूम-घूम कर सबको कहते हैं- डरो मत! मैं भी आज उन्हें कहता हूं और जी भर कर कहता हूं- अरे, डरो मत! भागो मत!”
जाहिर है विपक्षी नेताओं की तिल भर कमजोरी को ताड़ बनाकर चुनावी फायदा उठाने में माहिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भला क्यों चूकेंगे अमेठी छोड़कर रायबरेली पहुंचने की राहुल गांधी की उजागर हुई इस सियासी कमजोरी पर! यह कोई छोटी राजनीतिक घटना नहीं कि 1999 से लगातार जिस अमेठी सीट पर पहले सोनिया गांधी और फिर तीन चुनाव जीतने और 2019 में हारने तक गांधी परिवार की उपस्थिति अपने इस गढ़ में बनी हुई थी। लेकिन इस बार स्मृति ईरानी के सामने राहुल गांधी ने चुनावी ताल ठोकने की बजाय 2004 से जिस सीट पर मां सोनिया गांधी जीतती आ रही वहां उतरना बेहतर समझा। यानी 25 साल बाद अमेठी में गांधी परिवार कोई चेहरा चुनावी मैदान में नहीं होगा बल्कि उनका वफादार किशोरी लाल शर्मा कांग्रेस का झंडा थामे स्मृति ईरानी से लोहा लेगा। ये वहीं केएल शर्मा हैं जिनको 1983 में राजीव गांधी अपने साथ लेकर अमेठी पहुंचे थे और फिर शर्मा वहीं के होकर रह गए। मूलत: पंजाब के लुधियाना के रहने वाले केएल शर्मा सालों से गांधी परिवार के प्रतिनिधि के तौर पर अमेठी में डटे हुए हैं लेकिन चुनावी लड़ाई में वे लखनऊ से लेकर दिल्ली तक काबिज ताकतवर बीजेपी और उसको मजबूत प्रत्याशी स्मृति ईरानी से मुकाबला कर पाएंगे यह उम्मीद गांधी परिवार और कांग्रेस को तो हो सकती है, बाकी शायद ही किसी को हो!
एक तरफ खुद राहुल गांधी अपनी रैलियों के हर मंच पर सबसे पहले और सबसे ज्यादा मजबूती के साथ यही कहते सुनाई देते हैं कि डरो मत! प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से डरो मत बल्कि मजबूती से लड़ो! फिर ऐसा क्या हुआ कि अमेठी और रायबरेली में नामांकन के आखिरी दिन तक कांग्रेस सस्पेंस बनाकर रखती है जबकि बीजेपी 2 मई को ही दिनेश प्रताप सिंह को फिर से अपना उम्मीदवार घोषित कर देती है।
राहुल गांधी ने अमेठी को छोड़कर रायबरेली चुनकर अपने लिए भले एक सुरक्षित गढ़ खोजा हो लेकिन अमेठी से पलायन और प्रियंका गांधी वाड्रा को भी चुनावी मैदान में उतरने से रोककर पार्टी कार्यकर्ताओं में कोई उम्मीद का संचार नहीं किया बल्कि निराश ही किया है। अगर प्रियंका गांधी ही अमेठी से उतर गई होती तो वहां का सियासी नजर और पार्टी कैडर का जोश अलग ही दिखाई दे जाता। संभव है कि राहुल गांधी के सलाहकारों ने सुझाया हो कि क्यों न अमेठी में अपने किसी विश्वासपात्र को उतारकर इस सीट पर संभावित सियासी पारे को गरमाने से ही रोक दिया जाए। लेकिन इस खेल में बीजेपी को नतीजों से पहले ही बढ़त मिल गई है और बंगाल पहुंचे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीखा तंज कसकर पार्टी के हमलावर नेताओं प्रवक्ताओं को लाइन भी थमा दी है जिस पर अब लगातार मनोवैज्ञानिक वारफेयर दिखाई देगा।
राहुल गांधी अमेठी से लड़ जाते फिर नतीजे चाहे जो रहे होते लेकिन अगले पांच चरणों के लिए डरो मत! का नैरेटिव जमीन पर सेट करने के कांग्रेस को मदद मिलती। अब साफ दिखाई दे रहा कि लाख डरो मत का नारा राहुल गांधी दे रहे हों लेकिन अमेठी को पिच पर उतरकर बैटिंग करने में डर उनको भी लगा!
ढाई दशक पहले सोनिया गांधी ने 1999 का अपना पहला चुनाव अमेठी से ही लड़ा था और फिर 2004 में अमेठी से राहुल गांधी की राजनीतिक लॉन्चिंग पैड तैयार कराकर सोनिया गांधी रायबरेली शिफ्ट हो गई जहां से वे 2019 में भी जब देश में मोदी लहर दौड़ रही थी तब भी एक लाख 70 हजार से ज्यादा वोटों से जीतकर संसद पहुंचती हैं। हालांकि अब राजस्थान से राज्यसभा के लिए चुनी गई सोनिया गांधी ने रायबरेली की राजनीतिक जमीन राहुल गांधी को सौंप दी है।
अमेठी में गांधी परिवार की तरफ से सबसे पहले संजय गांधी ने 1977 में चुनावी ताल ठोकी थी लेकिन वे आपातकाल के गुस्से का शिकार होकर अमेठी हार बैठते हैं और 1980 में जनता सरकार के पत्तन के बाद हुए चुनाव में अमेठी से जीत कर संसद पहुंचे थे। लेकिन संजय गांधी एक विमान हादसे में जान गंवा देते हैं तब 1984,1989 और 1991 में राजीव गांधी अमेठी से लगातार चुनाव जीतकर संसद पहुंचते हैं। 1991 में तामील विद्रोही लिट्टे के मानव बम हमले में राजीव गांधी की हत्या होने के बाद उनके बेहद करीबी मित्र कैप्टन सतीश शर्मा अमेठी से उपचुनाव जीतते हैं। कैप्टन सतीश शर्मा 1996 में भी अमेठी से चुनाव जीतते हैं लेकिन 1998 में बीजेपी प्रत्याशी संजय सिंह उनको हरा देते हैं। उसके बाद गांधी परिवार के इस गढ़ में सोनिया गांधी दाखिल होती हैं और 1999 में सीट कांग्रेस जीत जाती है।
सवाल सिर्फ कांग्रेस के हताश और निराश कार्यकर्ताओं खासकर उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में निस्तेज कांग्रेस में जान फूंकने का है जिसके लिए राहुल गांधी ने दो दो लंबी यात्राएं भी कर ली हैं। लेकिन अमेठी में हार जीत के गणित में उलझने की बजाय अगर राहुल गांधी स्मृति ईरानी के खिलाफ ताल ठोकते तो जमीन पर उन्हीं का “डरो मत” मैसेज मजबूत होता लेकिन ऐसा न करके राहुल गांधी ने जमीनी मुकाबले के साथ साथ साइक्लोजिकल वारफेयर में बीजेपी रणनीतिकारों को हमलावर होने मौका थमा दिया।
यही जमीन पर दिखती कांग्रेस की कमजोरी राज्य दर राज्य दिग्गज नेताओं को चुनावी जंग के मैदान में बीजेपी को ललकारने की बजाय दुबके रहने को विवश कर दे रही। बात उत्तराखंड की ही कर लीजिए जहां पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत से लेकर नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह से लेकर प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा जैसे दिग्गज नेता हैं। लेकिन चुनाव में उतारा जाता है हरीश रावत की बजाय उनके बेटे वीरेंद्र रावत, प्रकाश जोशी, जोत सिंह गुनसोला, प्रदीप टम्टा और गणेश गोदियाल को। इन पांचों नेताओं में अकेले गणेश गोदियाल बीजेपी पर हमलावर होकर चुनावी जंग लड़ते दिखाई दिए। वरना बेटे वीरेंद्र रावत की जीत के लिए हरदा का सारा गुणा गणित मुस्लिम और दलित वोटों के समीकरण पर टिकता दिखाई दे रहा है। अल्मोड़ा, नैनीताल और टिहरी में भी कांग्रेस कमजोर प्रत्याशी उतारकर चुनावी चमत्कार से अधिक किसी तरह को उम्मीदें नहीं रख रही है।
बहरहाल जब राहुल गांधी को अमेठी से चुनाव लड़ने में डर लगता है तब भला तमाम राज्यों में हरीश रावत जैसे क्षत्रपों के चुनावी अखाड़े में उतरने से परहेज करने पर क्या ही अचरज और अफसोस किया जाए!