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काउंटिंग काउनडाउन शुरू, किसे मिलेगी कुर्सी? क्या चुनौतियों से चौतरफा घिरे धामी भाजपा आलाकमान तक अपनी राजनीतिक क्षमताओं का संदेश पहुंचाने में कामयाब रहे?

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देहरादून: 10 मार्च को उत्तराखंड विधानसभा चुनाव नतीजे आएंगे और ये नतीजे न केवल नई सरकार की तस्वीर साफ करेंगे बल्कि कई नेताओं के राजनीतिक भविष्य का फैसला भी कर देंगे। खास तौर पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के राजनीतिक जीवन की सबसे कठिन परीक्षा साबित होंगे इस बार के चुनाव नतीजे। आज बात पूर्व मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की करते हैं।

दरअसल, 2017 से 2022 तक चली डबल इंजन सरकार में भाजपा नेतृत्व ने उतराखंड पर पांच सालों में तीन-तीन चेहरे थोपे। पहले चार साल में नौ दिन कम वक्त तक त्रिवेंद्र सिंह रावत और उसके बाद बमुश्किल चार महीने तीरथ सिंह रावत और गुज़रे साल जुलाई में पुष्कर सिंह धामी को सरकार की कमान सौंपी गई। लेकिन तीनों मुख्यमंत्रियों में अगर तुलनात्मक तौर पर देखा जाए तो आख़िरी दौर में बेहद कम वक्त मिलने के कारण ‘नाइट वॉचमैन’ बताए जा रहे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भाजपा की राजनीति के लिहाज से सबसे बेहतर साबित हुए दिखते हैं। धामी न केवल टीएसआर राज में रूठे विधायकों-कार्यकर्ताओं का गुस्सा शांत कराने में कामयाब रहे बल्कि तीरथ राज में मुख्यमंत्री के ऊटपटांगा बयानों से बने निगेटिव माहौल की यादें मिटाने में भी कामयाब रहे। लेकिन सीएम के तौर पर धामी की भी अपनी सीमाएं थी लिहाजा नतीजों से पहले चुनौती भाजपा के सामने भी है तो इनसे अछूतों मुख्यमंत्री खुद भी नहीं हैं।

चौतरफा चुनौतियों से घिरे धामी दिखा पाएंगे धमक?

धामी ने मुख्यमंत्री के नाते सहज और सुलभ होकर माहौल बदलने के प्रयास खूब किए। फिर भले पूरी तरह समाधान न निकले हों लेकिन धामी ने नाराज चल रहे सरकारी कार्मिकों की शिकायतें सुनने ज़हमत उठाई। राजनीतिक फ्रंट पर पार्टी विधायकों, पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का दर्द हल्का करने की कोशिश की। लेकिन इन सबसे क्या धामी की चुनावी जीत लायक धमक बनी, यह बड़ा सवाल है?

जिस तरह से धामी ने 6-7 महीने सरकार चलाई उससे ऐसा लगता है कि भले आर्य पिता-पुत्र और हरक सिंह रावत भाजपा छोड़कर कांग्रेस में घर वापसी कर गए हों लेकिन पार्टी में कांग्रेसी गोत्र के नेताओं की बड़ी टूट नहीं हो पाई जिसकी टीएसआर राज में बातें होने लगी थी। दूसरा, धामी ने ‘खंडूरी है जरूरी’ नारे की तर्ज पर न सही लेकिन कई फैसले पलटकर नकारात्मक माहौल बदलने को खूब पसीना बहाया। लेकिन सीएम के नाते धामी के सामने चुनौतियां भी कम नहीं रही हैं।

सबसे बड़ी चुनौती तो धामी के लिए यही है कि वे खटीमा में चुनावी जीत की हैट्रिक लगाएं। प्रचार के आखिरी दौर में प्रियंका गांधी को खटीमा में उतारकर धामी की घेराबंदी कांग्रेस की तरफ से तो की ही गई है लेकिन इस सीट पर भितरघात की चर्चाएं थम नहीं रही हैं। यानी ‘उत्तराखंड में सिटिंग सीएम चुनाव नहीं जीत पाता है’, वाले मिथक को तोड़ने की चुनौती से सीएम धामी को भी जूझना होगा।

अपनी सीट जीतने के साथ ही सूबे में पार्टी की जीत कैसे हो यह भी धामी के लिए पहाड़ जैसी चुनौती हैं क्योंकि 2012 में ‘खंडूरी है जरूरी’ नारे के बावजूद भाजपा अपने सीएम की हार के साथ ही जंग हार जाती है। लिहाजा अब धामी के सामने इस मिथक को तोड़ने की चुनौती होगी। अगर भाजपा को 2014, 2017 और 2019 की तर्ज पर मोदी मैजिक का सहारा मिला तो जीत का सेहरा प्रधानमंत्री मोदी के बाद पुष्कर सिंह धामी के सिर ही सजना तय है। लेकिन अगर हार होती है तो गाज पुष्कर सिंह धामी की बजाय प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक और पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत पर ही गिरने के अधिक आसार हैं।

ऐसा इसलिए कि भाजपा के भीतर यह धारणा दिल्ली तक बन रही है कि धामी को जिस तरह से स्लॉग ऑवर्स में उतारा गया उस लिहाज से उनका प्रदर्शन ठीक ही रहा है। यही वजह है कि अगर धामी खुद चुनाव जीत जाते हैं और भाजपा सबसे बड़े दल के तौर पर उबरती है तो सरकार उन्हीं की अगुआई में बनेगी। लेकिन अगर भाजपा बहुमत और सरकार गठन की रेस से बाहर हो जाती है तब भी धामी को अहम दायित्व देकर पार्टी उनकी राजनीतिक पारी आगे बढ़ाएगी। चर्चा यहाँ तक है कि अगर भाजपा बाइस बैटल हार जाती है तो मोदी-शाह चौबीस का चक्रव्यूह फतह करने को छत्तीसगढ़ मॉडल अपना कर ‘ऑल सिटिंग एमपी चेंज’ वाला दांव भी खेल सकते हैं और उस हालात में नए चेहरों के तौर पर धामी के लिए नैनीताल में नई संभावना बन सकती हैं। वैसे हरिद्वार में ऐसी ही आस त्रिवेंद्र सिंह रावत को भी नजर आ रही है।

जाहिर है 10 मार्च का दम देखने के बाद भाजपा की राजनीति में बड़े बदलाव तय हैं और हार में या जीत में धामी को अभी से सियासी पिक्चर से ग़ायब करना जल्दबाज़ी होगी!

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