देहरादून: चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने अपनी राजनीति बिसात को नए सिरे बिछाने की कोशिश की है। बीजेपी दलित राष्ट्रपति और राज्यपाल बनाने का दम जरूर भरती है लेकिन वह किसी दलित विधायक को मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है और अब उसकी इस दुखती रग पर चन्नी के बहाने कांग्रेस ने हाथ रख दिया है। साफ है कांग्रेस एक जमाने में अपने परम्परागत दलित वोटबैंक को पाने की कवायद कर रही है और कोई ताज्जुब न हो अगर आने वाले दिनों में पंजाब का प्रभाव कई और राज्यों में कांग्रेस की राजनीति पर पड़ता दिखाई दे!
वैसे इसकी शुरूआत पंजाब के साथ एक और चुनावी राज्य उत्तराखंड से हो चुकी है। कांग्रेस कैंपेन कमेटी के चीफ और पार्टी के मुख्यमंत्री के दावेदारों में सबसे आगे समझे जा रहे पूर्व सीएम हरीश रावत ने देवभूमि में भा दलित चीफ मिनिस्टर देखने की अपनी दिली हसरत का इज़हार कर दिया है। परिवर्तन यात्रा के दूसरे चरण में लक्सर में हरदा ने भावुक अंदाज में कहा,”मैं परमपिता परमेश्वर माँ गंगा सं प्रार्थना करता हूँ कि मेरे जीवन में भी ऐसा क्षण आए जब उत्तराखंड से एक गरीब दलित शिल्पकार के बेटे को इस राज्य की मुख्यमंत्री बनता देख सकूँ।”
हरदा ने कहा कि आज यह मुद्दा नहीं कि कितना दलित हमारे साथ है बल्कि हमें यह देखना है कि कितने वर्षों तक इस वर्ग ने कांग्रेस को केन्द्र से लेकर राज्यों में सरकार बनाने का मौका दिया अब वक्त प्रतिदान करने का है।
हरीश रावत ने अपने इस बयान के ज़रिए एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है। हरिद्वार जिले से लेकर ऊधमसिंहनगर और पर्वतीय जिलों में बड़ी तादाद में दलित वोटर राजनीतिक भविष्य तय करता है। इसी वोटबैंक के ज़रिए बसपा ने उत्तराखंड में काफी समय तक न सिर्फ आठ विधायक तक पाए बल्कि बीजेपी-कांग्रेस के बाद तीसरी वोट शेयर ताकत भी बनी रही है। लेकिन अब बसपा नेतृत्व के राज्य की राजनीति से पीठ फ़ेर लेने का नतीजा है कि इस वोटबैंक में आरएसएस के हिन्दुत्व मंत्र की मदद से बीजेपी ने बड़ी सेंधमारी है।
दरअसल हरीश रावत इसी वोटबैंक को अपने साथ लेकर जीत का समीकरण गढ़ना चाह रहे हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में साढ़े 18 फीसदी आबादी अनुसूचित जाति की है और अकेले हरिद्वार जिले में चार लाख से ज्यादा दलित आबादी है और अगर इसमें देहरादून और ऊधमसिंहनगर जिले जोड़ दें तो यह आबादी करीब नौ लाख( 8.78लाख) हो जाती है। पर्वतीय जिलों में भी 10 लाख से ज्यादा दलित आबादी है जो बताता है कि ब्राह्मण-ठाकुर राजनीति के खाँचे में जीत का सेहरा किस दल या नेता को बंधेगा इसका फैसला दलित वोटर ही करता है।
साफ है हरीश रावत ने पंजाब के नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के बहाने अपना दलित प्रेम जाहिर कर बसपा के छिटकते और बीजेपी से जुड़ते वोटबैंक को अपनी और लामबंद करने का दांव चल दिया है। हरीश रावत ने यह दांव ऐसे समय चला है जब बेबी रानी मौर्य की उत्तराखंड राजभवन से विदाई हो चुकी है और उनकी नियुक्ति के समय बीजेपी ने इसे महिलाओं और दलित वर्ग के प्रति अपने प्रेम का प्रतीक बताकर सियासत चमकाई थी। अब रावत उसी के बरक्स चन्नी के बहाने अपना सियासी दांव खेलकर बीजेपी को असहज कर रहे हैं।
कहने को दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया गया है लेकिन इसका इफ़ेक्ट कैसे अन्य राज्यों में पड़ा है उसके लिए एक उदाहरण पेश करता हू्ं। हरीश रावत के बयान के बाद प्रतिक्रियास्वरूप लेखक ने मंगलवार को एक बीजेपी के दलित विधायक से इस पर टेलिफ़ोन वार्ता की। चन्नी को चीफ मिनिस्टर बनाने के प्रभाव के प्रश्न पर उन्होंने भी एक उदाहरण देते कहा कि मेरी टीम से जुड़े एक दलित कार्यकर्ता ने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि ‘देखो कांग्रेस ने एक दलित को मुख्यमंत्री बना दिया है।’ बीजेपी विधायक ने कहा कि राजनीति में ऐसे फैसलों का असर दूर तक दिखता है।
जाहिर है राजनीति में प्रतिनिधित्व के बावजूद चाहे दलित वर्ग हो या महिला तबका अभी भी हिस्सेदारी उस तरह से न मिल पाने से एक कसक तो गहरे तक अंदर बैठी है ही और अगर कोई इस दुखती रग पर हाथ रखता है तो उसका असर सियासत पर पड़ता तय है। लेकिन सवाल है कि उत्तराखंड के सबसे बड़े दलित चेहरे यशपाल आर्य के बीजेपी में जाने के बाद कांग्रेस में दलित चेहरे के तौर पर राज्यसभा सांसद प्रदीप टम्टा, कार्यकारी अध्यक्ष प्रो जीतराम, नारायण राम आर्य और ममता राकेश ही दिखती हैं। कांग्रेस के सात साल अध्यक्ष रहने के चलते यशपाल आर्य जरूर 2012 में सीएम रेस में थे।
क्या पता हर सियासी दांव में गहरे राजनीतिक निहितार्थ लिए रहने वाले हरदा ने आर्य को भी भविष्य का कोई संदेश देना चाहा हो!