देहरादून: उत्तराखंड की राजनीति में अब तक हुई चार चुनावी जंग में बीजेपी-कांग्रेस में मुकाबला दो-दो बार हार-जीत यानी बराबरी का रहा है। लेकिन 2014 के बाद 2019 में फिर पाँचों सांसद जीताकर बीजेपी ने राष्ट्रीय लड़ाई को लेकर बढ़त बना ली है। 2012 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी मुख्यमंत्री के चेहरे की हार के चलते 31-32 की जंग में पिछड़कर हार जरूर गई थी लेकिन पहाड़ पॉलिटिक्स में कमल कुनबे की हैसियत हमेशा मजबूत रही है। ये अलग बात है कि बार-बार मुख्यमंत्री बदलने से लेकर दिल्ली दरबार की शह पर नए-नए कैंप खड़े कर पार्टी खुद अपना कबाड़ा भी करती रही। लेकिन अब जो रहा है वह न केवल भाजपाई काडर के कॉन्फ़िडेंस को तोड़ रहा है बल्कि लगातार मेहनत कर रहे नेताओं-विधायकों के हौसले भी हिला रहा है।
18 मार्च 2016 की कांग्रेसी टूट और 2017 के संग्राम से पहले जुटे तमाम बागी नेताओं को एडजेस्ट करते-करते बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व ने डबल इंजन सरकार में अपने ही काडर की हालत ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ जैसी कर डाली है। 2022 की चुनावी बैटल से पहले अब जो हो बीजेपी कर रही वह न केवल उसके 60 प्लस के उसके दावे की हवा निकाल रहा बल्कि पार्टी काडर को मैसेज दे रहा कि आगे भी अगर सरकार बन गई तो उसे दरी बिछाने और खाँटी विधायकों को धक्के खाने से ज्यादा कुछ नहीं मिलने वाला है।
आखिर मोदी-शाह के इस ‘मजबूत बीजेपी-मजबूत नेतृत्व’ के नारे ने अंदर ही अंदर पार्टी को कितना खोखला बनाना शुरू कर दिया है। घर बैठे कार्यकर्ता को छोड़िए बीजेपी के एक नहीं अनेक नेता दबी जुबान और नाम न सामने रखने की शर्त पर खुलकर दर्द बयां कर रहे हैं। पार्टी के खाँटी नेताओं को लगने लगा है कि पहले ही सरकार में आधी हिस्सेदारी कांग्रेस से आए बाग़ियों की थी अब चुनाव में उतरती पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व नए सिरे से पॉलिटिकल कमिटमेंट कर रहा है। कांग्रेस विधायक राजकुमार आ चुके हैं, दो निर्दलीय प्रीतम सिंह पंवार और राम सिंह कैड़ा भी एंट्री पा चुके हैं। भले तीनों की एंट्री के बाद पुरोला, धनौल्टी, यमुनोत्री से लेकर भीमताल तक बीजेपी में बवाल मच रहा हो लेकिन पार्टी नए कमिटमेंट करने के लिएबातचीत के कई बैकडोर चैनल खोल चुकी है।
दरअसल पिछले दिनों की घटनाओं के मद्देनज़र प्रदेश बीजेपी के कई नेताओं को लग रहा कि आखिर 60 प्लस के नारे का सहारा लेकर बाहर से सहारा खोजने की कसरत बंद होनी चाहिए। लेकिन यशपाल आर्य और उनके पुत्र संजीव आर्य के झटके से आहत बीजेपी हाईकमान अब और ताकत के साथ कांग्रेसी कैंप पर धावा बोलने की रणनीति बना रहा है। इस कड़ी में दशहरा पर वज़नदार विधायक को तोड़ने का उसकी तैयारी तो फिलहाल धरी नजर आ रही लेकिन आर्य पिता-पुत्र के साथ घर वापसी करने राहुल गांधी के घर तक पहुंच गए विधायक उमेश शर्मा काऊ को वापस बुलाकर बीजेपी ने डैमेज कंट्रोल जरूर कर लिया है।
जानकार सूत्रों ने काऊ का पूरा क़िस्सा THE NEWS ADDA को बताया है। हुआ यूँ कि काफी समय से अपनी उपेक्षा का आरोप लगाते हुए बागी तेवर दिखा रहे विधायक उमेश काऊ सोमवार को प्रीतम सिंह, रंजीत रावत व प्रभारी देवेंद्र यादव संग राहुल गांधी के 12 तुग़लक़ लेन आवास पहुंच गए। इन नेताओं के साथ काऊ भी राहुल गांधी के दफ्तर में बैठे इंतजार कर रहे थे। इसी बीच वहाँ पहुँच गए हरीश रावत और गणेश गोदियाल। रावत से दुआ-सलाम में गर्मजोशी न पाकर पहले से अनमने काऊ और टेंशन में आ गए। उधर हरदा और प्रभारी देवेन्द्र यादव राहुल गांधी से मिलने अंदर घुसे और इधर काऊ के मोबाइल की घंटी बजती है।
जानकार सूत्र का दावा है कि यह फोन किसी और का नहीं बल्कि पूर्व सीएम विजय बहुगुणा था। बहुगुणा से बात करते टॉयलेट के लिए निकले काऊ राहुल गांधी के घर से निकलकर तुग़लक़ लेन चौक पहुंच चुके थे। वहाँ सामने बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक और राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी मौजूद थे और इस तरह काऊ राहुल गांधी के अँगना की घास में चंद पलों की चहलक़दमी कर फिर कमल कुनबे में लौट आए। लेकिन इस बीच चली भारी राजनीतिक दबाव और गिव एंड टेक पंलिटिक्स में काऊ को आर्य के जाने से खाली मंत्री पद तक ऑफ़र हो चुका था! अब अगर ऐसा होता है तो यह देखना दिलचस्प होगा कि चंदनराम दास से लेकर खजानदास जैसे दलित विधायकों का गला अनुशासन की उसी घुट्टी से घोंटकर यशपाल आर्य के खाली मंत्रीपद पर उमेश शर्मा काऊ की ताजपोशी कैसे होती है! जाहिर मजबूत बीजेपी की मजबूती का यह उदाहरण भी मिसाल होगा, इसे देखने को नेता-कैडर तैयार बैठे हैं।
आखिर काऊ मंत्री बनने के बाद जहां नया और ऊँचा सियासी रुतबा हासिल कर जाएंगे, वहीं क्या पता भविष्य में फिर बन बदलेगा तो विधायक की बजाय अबके मंत्री बनकर सियासी मोल-भाव करने का अवसर भी हाथ में होगा! आखिर सत्ता के गोंद से कितना भी कांग्रेसी गोत्र नेताओं को बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व अपने साथ चिपकाने की कोशिश करे. कांग्रेस-बीजेपी दोनों जुदा कल्चर और कार्य-संस्कृति वाले दल ठहरे। लिहाजा दलबदल होकर भी दिल बदल जाएंगे ऐसा देखने को सालों का इंतजार करना होगा और एकाध को छोड़कर शायद ही कोई इस पैमाने पर खरा उतर पाएगा। बाहर आए नेता और बीजेपी काडर में एक दीवार साफ दिखती है इसे सत्ता से भले गिराने की कोशिश पौने पांच साल से होती आ रही हो। आर्य इस पर मुहर लगा चुके हैं, कुछ जवाब जल्द और आने को बेक़रार हैं।
सवाल है कि क्या बाहरियों को वर्चस्व देने के चलते पहले से हताश काडर ऐसे किसी नए उदाहरण को पचा पाएगा? कहीं ऐसा न हो कि चुनावी सीजन में ऐसे फैसलों का सबक सिखाने का इरादा पाल बैठे! क्योंकि एक खबर यह भी है कि ऊधमसिंहनगर में जहां एक तरफ यशपाल आर्य के कांग्रेस में आने पर मिठाइयाँ बंटी हैं तो दूसरी तरफ बीजेपी से जाने पर कार्यकर्ताओं ने मिठाइयाँ बाँटकर अपनी खुशी का इज़हार भी कर दिया है।