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..तो त्रिवेंद्र सिंह रावत के हिस्से बाइस बैटल में भाजपा की जीत का कितना ‘विष’ आया इसका पता जल्द चलने वाला है!

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देहरादून: Rajya Sabha Election चार जुलाई को जिस राज्यसभा सीट को कांग्रेस सांसद प्रदीप टम्टा खाली कर रहे, दरअसल वह सीट भाजपाई राजनीति में पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के भविष्य के लिहाज से बैरोमीटर साबित होगी। यह सियासत में तेजी से बदलते दौर की बानगी है कि 2017 में सूबे की सत्ता में प्रचंड मोदी लहर पर सवार होकर भाजपा तीन चौथाई बहुमत की सरकार के साथ लौटी तो उसकी अगुआई का जिम्मा तब डार्क हॉर्स समझे जा रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत को सौंप दिया गया। 2014 में यूपी में गृहमंत्री अमित शाह के सह-प्रभारी और फिर झारखंड प्रभारी बनकर टीएसआर मोदी-शाह कैंप में जगह पक्की जरूर कर चुके थे लेकिन सत्रह में सीएम रेस में अजय भट्ट, प्रकाश पंत से लेकर सतपाल महाराज जैसे कई नाम थे लेकिन शाह से करीबी के चलते कमान त्रिवेंद्र पा गए।

फिर वक्त बदला और गंगा में इतना पानी बह गया कि टीएसआर मोदी-शाह की नज़रों से ऐसे उतरे कि अपनी चार साल की सरकार के जश्न की तैयारियां अधूरी छोड़कर नौ दिन पहले ही बीच बजट सत्र कुर्सी से क़ुर्बानी देनी पड़ गई।
टीएसआर -1 गए तो तीरथ सिंह रावत के रूप में टीएसआर-2 आए लेकिन चार माह भी हुए नहीं कि सत्ता गँवा बैठे। लेकिन ठीक चुनाव से पहले सूबे की सरकार के मुखिया बनाए गए पुष्कर सिंह धामी ने सबको साथ लेकर चलने की सोच से पार्टी विधायकों और कार्यकर्ताओं में नई उम्मीद जगाकर मोदी-शाह की चिन्ता को काफी हद तक दूर कर दिया।

उसके बाद तो सत्रह की तर्ज पर मोदी मैजिक पहाड़ पॉलिटिक्स में बाइस में रिपीट हुआ और हारी बाजी जीतकर धामी सियासत के नए बाज़ीगर बनकर उभरे। लेकिन धामी की खटीमा में हार से लेकर कई सीटों पर बाग़ियों के चुनावी ताल ठोकने को भाजपा आलकमान ने कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लिया है। भाजपा की अंदरूनी राजनीति की समझ रखने वाले बताते हैं कि भले भाजपा चुनाव जीतने में कामयाब रही हो लेकिन कई बड़े चेहरों पर बाग़ियों को हवा देने के आरोप लगे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के दामन तक भी ऐसे आरोपों की आँच आई है।

सवाल है कि बाइस बैटल को लेकर हुए सियासी समुद्र मंथन में भाजपा की सत्ता में दोबारा वापसी का ‘अमृत’ अगर अपनी हार के बावजूद सीएम पुष्कर सिंह धामी के हिस्से आया है, तो इस सियासी समुद्र मंथन का ‘विष’ भाजपा में किस-किस को पीना पड़ा है? क्या ‘विष’ का प्याला पाने वालों में आलाकमान की नजर में टीएसआर का नाम भी शुमार है? क्या चार साल सत्ता के शिखर पर रहने के बाद अपने हिस्से आए सियासी ‘विष’ की काट खोज पाए होंगे? क्या ख़फ़ा भाजपा आलाकमान अब टीएसआर
का राजनीतिक वनवास खत्म कराने का मन बना चुका है?

उत्तराखंड की राजनीति में टीएसआर को लेकर उठते ऐसे तमाम सवालों का जवाब यह एक सीट को लेकर होने जा रहा राज्यसभा का चुनाव दे सकता है। अगर टीएसआर राज्यसभा जाने में सफल हो जाते हैं तो इसका मैसेज साफ होगा कि मोदी-शाह के यहां उनकी रि-एंट्री हो चुकी है। लेकिन अगर सूबे से किसी दूसरे चेहरे या फिर किसी केन्द्रीय नेता या मंत्री को एडजेस्ट कर दिया जाता है तो संकेत साफ होगा कि अभी टीएसआर के हिस्से सियासी ‘विष’ ही है।

जाहिर है राज्यसभा या फिर हरिद्वार लोकसभा सीट से संसद पहुँचने को बेताब टीएसआर को भी 31 मई का बेसब्री से इंतजार होगा!

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