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ADDA ANALYSIS कहीं 22 बैटल में ‘अभिमन्यु’ साबित न हो जाएं पिता की हार का बदला लेने के लिए चुनावी चक्रव्यूह भेदने उतरी दो पूर्व मुख्यमंत्रियों की बेटियां?

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  • बड़ी कठिन डगर है ‘चुनावी पनघट’ की हरिद्वार ग्रामीण से लेकर कोटद्वार तक

देहरादून: उत्तराखंड की सियासत का सबसे बड़ा सूरमा कौन हो इसे लेकर सत्ताधारी भाजपा और कांग्रेस में ज़बरदस्त जंग छिड़ी हुई है। इस जंग में कहीं नेताओं के बेटे ताल ठोक रहे हैं, कहीं बहू सियासत का ककहरा सीखने को तैयार हैं, तो वहीं दो बेटियां भी चुनावी जंग में अपने-अपने पिता की हार का बदला लेने को चुनाव लड़ रही हैं। जी हां, हम बात कर रहे है हरिद्वार ग्रामीण से पहली बार चुनाव लड़ रही पूर्व सीएम और कांग्रेस की कैंपेन कमेटी की चीफ हरीश रावत की बेटी अनुपमा रावत और राजनीति से संन्यास ले चुके पूर्व सीएम जनरल बीसी खंडूरी की बेटी यमकेश्वर विधायक ऋतु खंडूरी।

अब इसे सियासत का अजब संयोग कहेंगे या पिता की हार का बदला चुकाने का मौका कि ऋंतु खंडूरी और अनुपमा रावत को उन्हीं सीटों से चुनाव लड़ाया जा रहा है जहां सं पिछले दो चुनावों में खंडूरी और हरदा को हार का मुँह देखना पड़ा था। लेकिन क्या इन दो बेटियों के लिए अपने-अपने पिता की सियासी हार का बदला चुकाना आसान रहने वाला है या फिर कहीं बाइस बैटल में इन पर ‘अभिमन्यु’ साबित हो जाने का संकट तो नहीं मंडरा रहा! पहले बात जनरल खंडूरी की बेटी ऋतु खंडूरी भूषण के चुनाव मैदान कोटद्वार का।

याद करिए 2012 का विधानसभा चुनाव, जब भाजपा ने ‘खंडूरी है जरूरी’ का नारा बुलंद किया था लेकिन सिटिंग सीएम जनरल बीसी खंडूरी ही खुद कोटद्वार से चुनाव हार गए और इसी के साथ 31-32 की लड़ाई में एक कदम पीछे रहकर भाजपा भी सत्ता खो देती है। तब खंडूरी को स्थानीय स्तर पर बेहद मजबूत कांग्रेस प्रत्याशी सुरेन्द्र सिंह नेगी ने 4623 वोटों से करारा शिकस्त दी थी। खंडूरी को 27,174 और नेगी के 31,797 वोट मिले थे। 2017 की मोदी सूनामी में कांग्रेस से पालाबदल कर भाजपा की तरफ से कोटद्वार किला फतह करने उतरे हरक सिंह रावत ने सुरेन्द्र सिंह नेगी को मात दे दी थी। लेकिन अब बाइस बैटल में हालात ऐसे रहे कि कोटद्वार से हार के डर ने हरक सिंह रावत को कांग्रेस जाने और बहू को टिकट दिला खुद के घर बैठने को मजबूर कर दिया है।

ऐसे हालात में यमकेश्वर से सिटिंग विधायक होकर टिकट गंवा बैठी ऋतु खंडूरी को भाजपा ने ‘पहली बार पौड़ी जिले से किसी भी ब्राह्मण को टिकट न देने’ की तोहमत से बचने को आखिरी दौर में टिकट देकर फंसा दिया है। फंसा इसलिए कहेंगे कि आखिर तक यमकेश्वर से टिकट मांग रही ऋतु खंडूरी को एक दम से कोटद्वार भेजना किसी झटके से कम नहीं। ऐसा इसलिए कि एक तो अब जनरल खंडूरी को चुनाव लड़ाने वाली पुरानी टीम ही कोटद्वार में तितर-बितर हो चुकी है। खुद खंडूरी के करीबी धीरेन्द्र चौहान निर्दलीय चुनावी ताल ठोक रहे हैं। बाकी लोग भी अब उस तरह सक्रिय नहीं कि ऋतु खंडूरी को कोटद्वार में उतरते ही दमदार टीम मिल जाए।

इतना ही नहीं पिछले पांच सालों में कांग्रेस से आए हरक सिंह रावत ने अपनी टीम अपना संगठन फ़ॉर्मूले पर काम किया और इसका ख़ामियाज़ा भाजपा ने मेयर चुनाव में भी भुगता था। इसके अलावा कोटद्वार मेडिकल कॉलेज से लेकर सेंट्रल स्कूल जैसे तमाम चुनावी वादों पर डबल इंजन सरकार में भी हरक के मंत्री होकर खरा न उतर पाने का सियासी ख़ामियाज़ा अब भाजपा प्रत्याशी बनकर आई ऋतु खंडूरी को भुगतना पड़ेगा। ऋतु खंडूरी के खिलाफ एक बात यह भी जाएगी कि यमकेश्वर में उनके ख़िलाफ़ बनी लोकल एंटी इनकमबेंसी, जिसके चलते भाजपा ने सूबे से पैनल में सिंगल नाम जाने के बावजूद दिल्ली से टिकट काट दिया, का नुकसान कोटद्रार में भी हो सकता है। कोटद्वार में यमकेश्वर का वोटर भी रहता है और कोटद्वार का वोटर भी यमकेश्वर के हालात से अनभिज्ञ नहीं है। उसके बाद सामाजिक समीकरण भी अधिक पक्ष में नहीं होंगे। लिहाजा कोटद्वार का किला ऋतु खंडूरी के लिए फतह करना बेहद कठिन है लेकिन बेटी के लिए पिता की सियासी हार का बदला चुकाने का अवसर भी।

वरिष्ठ पत्रकार योगेश कुमार कहते हैं,”चुनावी गणित के लिहाज से सबसे चौकन्ना और चुनावी संसाधनों के लिहाज ये समर्थ समझे जाने वाले नेता हरक सिंह रावत जिस सीट पर चुनावी लड़ाई से बचने के लिए दल बदल जाते हैं, उससे वहां के जमीनी हालात का अंदाज़ा स्वत: ही लगाया जा सकता है। अब भाजपा ने अपने खेमे की सबसे कठिन सीट को बचाने के लिए ऋतु खंडूरी को आखिरी दांव के तौर पर इस्तेमाल किया है।”

अब बात हरिद्वार ग्रामीण सीट से चुनाव लड़ रही पूर्व सीएम और 22 बैटल में कांग्रेस की कैंपेन को लीड कर रहे हरीश रावत की बेटी अनुपमा रावत की। यूँ तो अनुपमा सांगठनिक तौर पर काफी सालों से सक्रिय रही हैं लेकिन चुनावी लड़ाई में दमखम दिखाने का मौका पहली बार मिला है। मौका भी उस सीट से मिला है जहां पिछले चुनाव में चली मोदी सूनामी में सिटिंग सीएम हरदा को किच्छा के साथ-साथ यहां भी करारी हार का सामना करना पड़ा था। हालाँकि 22 बैटल में हालात सत्रह के संग्राम जैसे कतई नहीं हैं, न मोदी लहर दिख रही उलटे पांच साल सत्ता में रहने के बाद उत्तराखंड के चार चुनावों में दिखी सत्ता विरोधी लहर का सामना पाँचवे चुनाव में भाजपा को भी करना पड़ रहा। लेकिन इस सबके बावजूद हरिद्वार ग्रामीण सीट पर अनुपमा रावत की राह आसान कतई नहीं दिख रही है। हम ऐसा कई सियासी वजहों के ठोस आधार के साथ कह रहे हैं।

पहले बात 2017 के संग्राम में हरदा की करारी हार की करते हैं। सीएम रहते यूएसनगर और हरिद्वार की 20 सीटों का समीकरण साधने को किच्छा के अलावा हरिद्वार ग्रामीण से चुनाव लड़ने उतरे हरदा को भाजपा प्रत्याशी स्वामी यतीश्वरानंद ने 12,278 वोटों से करारी हार दी थी। हरदा को 32,686 वोट मिल पाए थे जबकि स्वामी यतीश्वरानंद ने 44,964 वोट हासिल किए थे। अब अनुपमा रावत को इसी सीट पर भाजपा प्रत्याशी कैबिनेट मंत्री स्वामी यतीश्वरानंद को हराने की चुनौती मिली है।

दरअसल कांग्रेस और हरीश रावत का अनुपमा को चुनाव लड़ाते सारा गणित इस बात पर रहा होगा कि बसपा ने इस बार किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट न देकर दर्शन लाल शर्मा को मैदान में उतारा है। लेकिन नामांकन के आखिरी दिन बसपा ने बड़ा उलटफेर करते हुए शर्मा का टिकट काटकर अपने पुराने नेता यूनुस अंसारी का नामांकन करा दिया है। यह अनुपमा रावत की जीत की उम्मीदों के लिए बड़ा झटका साबित हो सकता है।

ज्ञात हो कि 2017 में भी बसपा प्रत्याशी मुकर्रम ने 18,383 वोट लेकर हरीश रावत की हार सुनिश्चित करा दी थी। इस बार भी स्वामी यतीश्वरानंद का दांव यही रहेगा कि मुस्लिम वोट कांग्रेस और बसपा में बंट जाए तथा हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण हो जिसके उनकी राह आसान हो जाए। मुस्लिम वोटों का बँटवारा न हो पाए इसी मकसद से इस बार हरीश रावत ने मुकर्रम और कुछ मुस्लिम नेताओं के पहले ही कांग्रेस ज्वाइन कराई थी लेकिन अब बसपा के आखिरी दौर के दांव ने झटका दे दिया है।

हरिद्वार से वरिष्ठ पत्रकार रत्नमणि डोभाल कहते हैं, “हरीश रावत चुनाव लड़ते तो बात अलग होती लेकिन अब उनकी बेटी अनुपमा रावत मुकाबले में हैं लिहाजा उनके लिए चुनाव जीतना कठिन हो सकता है। हरिद्वार ग्रामीण सीट पर 30 हजार से अधिक अंसारी वोटर हैं और बसपा ने अच्छे खासे दलित वोटर्स वाली सीट पर यूनुस अंसारी जैसे पुराने नेता पर दांव खेलकर मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है और इसका सीधा फायदा भाजपा के प्रत्याशी स्वामी यतीश्वरानंद को मिल सकता है।

दरअसल, अनुपमा रावत की चुनौती सिर्फ मुस्लिम वोटों में बंटवारा भर नहीं है बल्कि उनको भीतरघात से भी खुद को बचाना होगा। सेवा दल से जुड़े रहे जगपाल सैनी जैसे नेता भाजपा में जा चुके हैं और हरदा की बजाय उनकी बेटी के आने से कुछ नेताओं के निष्क्रिय हो जाने की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता हैं। ज्ञात हो कि इस सीट पर कांग्रेस टिकट के 18 दावेदार थे और अब कितने एक्टिव होकर अनुपमा को जिताने निकलते हैं, यह चुनौती भी रहेगी। मो० हारून,हनीफ़ अंसारी और गुरजीत लहरी जैसे दावेदार अनुपमा के लिए कितनी मेहनत करते हैं यह भी देखना होगा।

लक्सर से वरिष्ठ पत्रकार जसवीर सिंह कहते हैं,”जैसे हरिद्वार ग्रामीण सीट पर यूसुफ़ अंसारी के बसपा के टिकट पर आने से अनुपमा रावत की राह कठिन हो गई है, ठीक वैसे ही हाजी तस्लीम के लक्सर सीट पर चंद्रशेखर आजाद की आज समाज पार्टी से नामांकन करा देने से बसपा के मो० शहज़ाद और कांग्रेस के अंतरिक्ष सैनी का खेल बिगाड़ दिया है। अब अगर यह मैसेज मुस्लिम वोटर्स तक पहुँचाने में सफल रहे कि भाजपा को हराने की लड़ाई लक्सर में हाजी तस्लीम और हरिद्वार ग्रामीण से यूसुफ़ अंसारी कमजोर कर रहे हैं, तो इसका फायदा अनुपमा रावत को भी मिल सकता है।”

सवाल है कि क्या यह मैसेज कांग्रेस और हरीश रावत दे पाने में सफल हो पाएंगे क्योंकि यह इतना आसान भी नहीं होने वाला है। खासकर तब जब बसपा इस बार हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर में अपने ‘पुराने कुनबे’ बंटोरकर जीत का खाता खोलने का ख़्वाब देख रही है। पूर्व मंत्री सुरेंद्र राकेश के भाई सुबोध राकेश,मोहम्मद शहज़ाद, पूर्व विधायक हरिदास के बेटे आदित्य और सितारगंज में नारायण पाल को मैदान में उतारकर अपना पुराना सियासी कुनबा दंगल में उतार दिया है।

साफ है बाइस का चुनाव अनुपमा रावत और ऋतु खंडूरी के लिए अपने-अपने पिता की हार का बदला चुकाने का मौका जरूर लेकर आया है लेकिन सियासी समर में ‘अर्जुन’ जैसी लक्ष्यभेदी दृष्टि और रणनीति गढ़ने की पहाड़ जैसी चुनौती भी है, अन्यथा ‘अभिमन्यु’ की तरह चक्रव्यूह में उलझ जाने का जोखिम बरकरार है।

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