ADDA IN-DEPTH सियासी मिथकों का बेताल भूत सीएम धामी के कंधों पर सवार, कहीं हार की हैट्रिक का डर, कहीं जीत दोहराने की फ़िक्र

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देहरादून (UTTARAKHAND ASSEMBLY ELECTION 2022): इन दिनों उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में कड़ाके की ठंड और बर्फ़बारी से हाल बुरा है तो मैदानी हिस्से में हाड़ कंपा देने वाली ठंड के साथ कोहरे की मार भी दिखाई दे रही। लेकिन ठंड और कोहरे के बीच चुनावी गर्माहट अलाव का काम कर रही है तो मिथकों की रोशनी में नतीजों का कोहरा छंटता दिख रहा है। तो आज बात पहाड़ पॉलिटिक्स के इन्हीं मिथकों की जो राजनीति के अतीत का सहारा लेकर भविष्य का किनारा पता लगाने में मदददार साबित होते हैं।


अब जब बाइस बैटल को लेकर भाजपा और कांग्रेस की तरफ से सभी 70 सीटों पर लड़ाका मैदान में उतर चुके हैं और बसपा, आप, यूकेडी से लेकर बागी चुनावी हूंकार भर रहे हैं लेकिन शीशे की तरह साफ दिख रहा है कि इस बार भी असल मुकाबला सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी कांग्रेस में ही हो रहा है। जाहिर है आमने-सामने के इस मुकाबले का मिथक ही युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के लिए पहला और सबसे बड़ा मिथकीय चक्रव्यूह बना रहा है।

सरकार मतलब बारी-बारी भागीदारी!

हिमालयी राज्य की सभी 70 सीटों पर 14 फरवरी को वोटिंग होनी है और 2002 के पहले विधानसभा चुनाव से लेकर 2017 के चौथे चुनाव तक यह मिथक दोहराया जाता रहा है कि एक बार कांग्रेस की सरकार तो अगली बार भाजपा की सरकार। 2002 में कांग्रेस, 2007 में भाजपा, 2012 में कांग्रेस तो 2017 में फिर भाजपा की सरकार। यानी इस मिथक का मतलब है इस बार विपक्ष में बैठी कांग्रेस के सत्ता में लौटने की बारी है। जाहिर है अपनी अगुआई में भाजपा की तरफ से चुनावी जंग लड़ रहे युवा मुख्यमंत्री धामी को बारी-बारी भागीदारी के मिथक का बेताल भूत खूब परेशान कर रहा होगा।

सिटिंग सीएम मतलब न बन जाए अबके हार की हैट्रिक !

पहाड़ पॉलिटिक्स में बन रहा यह मिथक खटीमा से चुनावी जंग लड़ रहे युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की रातों की नींद उड़ा रहा होगा। हालाँकि मोदी मैजिक के सहारे ‘सिटिंग सीएम यानी हार की लटकती तलवार’ के मिथक को तोड़ने का हौसला भी धामी जुटाने की कोशिश कर रहे होंगे लेकिन राज्यों में फीके पड़ते मोदी मैजिक के आंकड़े और उत्तराखंड के पिछले दो चुनाव नतीजे देखकर दिल बैठ जा रहा होगा। 2017 के विधानसभा चुनाव में जमीनी पकड़ रखने वाले हरीश रावत को सिटिंग सीएम होते हुए दो-दो सीटों से करारी हार झेलनी पड़ी थी और हरदा ने खंडूरी के इतिहास को दोहरा दिया था। खंडूरी उस दौर में सीएम रहते कोटद्वार से हार गए जब भाजपा ने उनको चुनावी चेहरा बनाकर ‘खंडूरी है जरूरी’ का नारा बुलंद कर रखा था।

अब सियासी गलियारे में इसे लेकर अकसर बात होती रहती है कि क्या युवा सीएम धामी इस मिथक को तोड़ देंगे या फिर 2022 का चुनाव बनेगा सिटिंग सीएम की हार की हैट्रिक का गवाह? इस मामले में धामी के राजनीतिक गुरु महाराष्ट्र राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी हल्की से उम्मीद बँधाते हैं, इस आंकड़े के जरिए कि वे अंतरिम सरकार के सीएम रहते 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में कपकोट सीट फ़तह कर पाए थे।

जब-जब चेहरे पर चुनाव लड़ा तब-तब सत्ताधारी दल की हार हुई


उत्तराखंड की राजनीति का यह भी एक मिथक ही है कि जब-जब सीएम चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ा गया तब-तब सत्ताधारी दल की लुटिया डूब गई। राज्य बनाने वाली भाजपा सरकार के मुखिया भगतदा भले ख़ुद 2002 के पहले चुनाव में जीत गए लेकिन पार्टी की करारी हार हुई। एनडी तिवारी पांच साल सीएम रहे लेकिन 2007 में चुनाव से दूर रहे लेकिन सत्ता भाजपा को मिली। 2012 में ‘खंडूरी है ज़रूरी’ यानी जनरल बीसी खंडूरी के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया लेकिन भाजपा को हार मिली। 2017 में हरीश रावत को चेहरा बनाकर कांग्रेस ने ‘सबकी चाहत हरीश रावत’ का नारा बुलंद किया लेकिन कांग्रेस की बुरी गत हुई और पार्टी महज़ 11 पर सिमट गई। अब धामी सीएम का चेहरा हैं और भाजपा का नारा है, ‘उत्तराखंड की पुकार मोदी-धामी सरकार’ । क्या इस मिथक को तोड़ने में युवा सीएम धामी भाग्यशाली साबित होंगे!

गंगोत्री से लेकर पुरोला, बदरीनाथ, रामनगर और रानीखेत के मिथक टूटेंगे?

जो गंगोत्री जीता उसी के दल की सरकार बनी! यह मिथक 1958 के चुनाव से लेकर अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद हुए पिछसे चार चुनावों में सटीक साबित हुआ है। 2002 में विजयपाल सजवाण जीते तो कांग्रेस की सरकार बन गई, 2007 में गोपाल रावत जीतकर विधानसभा पहुँचे और भाजपा की सरकार बन गई।2012 में सजवाण और 2017 में गोपाल जीते और क्रमश: कांग्रेस और भाजपा की सरकारें बनी। अब गोपाल रावत नहीं रहे इसलिए भाजपा नए चेहरे के साथ गंगोत्री की जंग में सजवाण से मुकाबला करने उतरी है, इसी मिथक से सत्ता हासिल करने की चाहत में आम आदमी पार्टी भी कर्नल अजय कोठियाल को लेकर चुनाव लड़ रही। लेकिन क्या मिथक इस बार बरक़रार रहेगा या टूट जाएगा?

ऐसे ही मिथक चार चुनाव में बनते गए वो ये कि जो पुरोला और रानीखेत हार जाएगा उसी प्रत्याशी के दल की सूबे में सरकार बन जाएगी। 2002 से लेकर 2017 तक यही मिथक बनता गया है। 2007 में करन माहरा कांग्रेस के टिकट पर जीते तो सरकार भाजपा की बन गई। 2012 में अजय भट्ट की जीत और सरकार कांग्रेस की बन गई। 2017 में अजय भट्ट को हराकर करन माहरा विधानसभा पहुँचे तो कांग्रेस विपक्ष और सत्ता में भाजपा पहुंच गई।

यह भी मिथक है कि रामनगर और बदरीनाथ जो जीते उनके दल की सूबे में सरकार बनेगी। बदरीनाथ से 2002 में अनुसूइया प्रसाद मैखुरी जीते, कांग्रेस की सरकार बनी। 2007 में केदार सिंह फोनिया की जीत से भाजपा की सरकार बन गई। 2012 में राजेंद्र सिंह भंडारी जीते और सरकार काग्रेस की बनी। 2017 में महेन्द्र भट्ट की जीत ने भाजपा सरकार का मार्ग प्रशस्त किया।
रामनगर में भी जीत के साथ सरकार बनने का मिथक मजबूत होता गया है। 2002 में कांग्रेस प्रत्याशी जीता तो सरकार भी कांग्रेस की बनी। 2007 में दीवान सिंह बिष्ट की जीत ने भाजपा की सरकार बनवाई। 2012 में अमृता रावत जीतीं, सरकार कांग्रेस की बन गई और 2017 में दीवान सिंह बिष्ट की जीत के साथ भाजपा की सरकार बन गई।

शिक्षा मंत्रियों की हार का मिथक, किसान आंदोलन की तपिश में झुलसते अरविंद पांडे तोड़ पाएंगे?

पहाड़ पॉलिटिक्स में शिक्षा मंत्री जो बना उसकी चुनाव में हार सुनिश्चित होने का मिथक भी रोचक है। राज्य बनने पर अंतरिम सरकार के शिक्षा मंत्री तीरथ सिंह रावत की हार से लेकर 2002 की सरकार के शिक्षा मंत्री नरेंद्र सिंह भंडारी, 2007 में भाजपा सरकार में बने दो-दो शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह बिष्ट और खजान दास चुनाव परीक्षा में फेल हो गए तो 2012 में मंत्री प्रसाद नैथानी शिक्षा मंत्री बनकर हार का प्रसाद पा गए। अब किसान आंदोलन से खासा प्रभावित रहे ऊधमसिंहनगर जिले की गदरपुर सीट पर सूबे के शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे की परीक्षा होने जा रही है।

जाहिर है युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के कंधों पर बैठे सियासी मिथकों के ये बेताल भूत चुनौतियों के नए-नए प्रश्न रोज खड़े कर रहे होंगे। असल पता 10 मार्च को ही चल पाएगा कि मिथकों के चक्रव्यूह से धामी पार निकल पाए या क़ैद होकर रह गए!


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