देहरादून: याद कीजिए एक दशक पहले का वक्त, जब उत्तराखंड की तीसरी विधानसभा को लेकर हुए चुनाव के नतीजे आ गए थे और भाजपा-कांग्रेस 31-32 के फेर में उलझ गई थी। तभी खबर आती है कि टिहरी से निर्दलीय चुनाव जीतकर आए दिनेश धनै तब सीएम रेस में शुमार विजय बहुगुणा की गाड़ी में बैठकर दस जनपथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात कर आए थे। इसके बाद सत्ता की बनती नई तस्वीर में देवप्रयाग से निर्दलीय चुनाव जीतकर आए मंत्री प्रसाद नैथानी, लालकुआं से निर्दलीय जीते हरिश्चन्द्र दुर्गापाल भी नजर आने लगे। देखते ही देखते सरकार की इस फोटो फ्रेम में बसपा के चुनाव जीतकर आए तीन विधायक और यमुनोत्री विधायक प्रीतम पंवार भी फिट हो गए। निर्दलीयों और बसपा विधायकों ने PDF बनाकर कांग्रेस सरकार में पांच साल सत्ता में हिस्सेदारी पाई।
अब जब 10 मार्च को चुनाव नतीजे आएंगे और भाजपा से लेकर कांग्रेस तक सरकार बनाने के दावे जरूर किए जा रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि दोनों ही दलों के रणनीतिकारों की नजर बसपा, यूकेडी, उजपा और मजबूत लड़े निर्दलीय प्रत्याशियों पर है। रणनीति यही है कि अगर किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिले तो बसपा या निर्दलीयों में जो भी जीतेगा उसे अपने पाले में लाने की पटकथा तैयार रहे। बाइस बैटल में भाजपा-कांग्रेस से बगावत कर चुनाव लड़े कई निर्दलीय अच्छे खासे वोट पाते दिख रहे हैं लिहाजा दोनों दलों की पहली कोशिश तो अपने इन्हीं रूठे नेताओं से संपर्क बनाए रखने की है।
वोटिंग हो चुकी है लिहाजा चर्चाओं में जिन निर्दलीयों का नाम जीत के लिहाज से मजबूत माना जा रहा है, उनमें यमुनोत्री से कांग्रेस से बगावत कर निर्दलीय लड़े संजय डोभाल, केदारनाथ से निर्दलीय कुलदीप रावत, देवप्रयाग से यूकेडी प्रत्याशी दिवाकर भट्ट, रुद्रपुर से भाजपा के दो बार के विधायक राजकुमार ठुकराल को भी जिताऊ निर्दलीय प्रत्याशियों की सूची में शुमार किया जा रहा है। जबकि खानपुर में निर्दलीय उमेश कुमार को भी बसपा-भाजपा के साथ चुनावी लड़ाई में बताया जा रहा है। जबकि टिहरी में अपनी पार्टी बनाकर चुनाव लड़ रहे दिनेश धनै भी जीत के साथ 2012 की तर्ज पर किंग मेकर बनने को आतुर बताए जा रहे।
इतना ही नहीं भाजपा और कांग्रेस रणनीतिकार बसपा की परफ़ॉर्मेंस को लेकर भी सजग बने हुए हैं। 2017 के चुनाव में शून्य पर ढेर हुई बसपा का खाता इस बार खुलने के आसार हैं। बसपा हरिद्वार की चार सीटों लक्सर, खानपुर, मंगलौर, भगवानपुर और यूएसनगर की सितारगंज सीट पर नारायण पाल के आने के बाद फाइट में आ चुकी है। लिहाजा बसपा के दमदार प्रत्याशियों पर भी भाजपा-कांग्रेस रणनीतिकारों की नजर है।
वैसे एक राजनीतिक तथ्य यह भी है कि 2002 के पहले विधासनभा चुनाव से लेकर 2007 और 2012 तक चुनाव जीतते आए तीन-तीन निर्दलीय विधायक सत्ताधारी दल की आँखों के तारे बनकर रहे। लेकिन 2017 में सूबे में मोदी सूनामी चली तो चुनाव जीतकर विधानसभा पहुँचे दो निर्दलीय विधायकों की वो सियासी हैसियत नहीं रह पाई। चुनाव आते-आते दोनों निर्दलीय प्रीतम सिंह पंवार और राम सिंह कैड़ा भाजपा में शामिल हो गए।
जाहिर है अगर भाजपा का ‘अबकी बार 60 पार’ नारा फ़्लॉप साबित हुए और हरदा से प्रीतम तक कांग्रेस के 45 से 48 सीट जीतने के दावे भी धरे रह गए तो सत्ता की चाबी लेकर निर्दलीय फिर सबसे आगे दिखाई देंगे। लेकिन अगर भाजपा या कांग्रेस में किसी को भी स्पष्ट बहुमत मिल जाता है तब जीतने के बाद भी बसपा और निर्दलीय पिछले पांच वर्षों की तरह हाशिए पर ही दिखेंगे। फिलहाल वोट ईवीएम में सीलबंद हैं लिहाजा सियासी गलियारे में दमदार बागी दुलारे ही नजर आ रहे।