- यशपाल आर्य को नेता प्रतिपक्ष बनाकर दलित वोटबैंक साधे रखने का दांव
दिल्ली/देहरादून: पहाड़ पॉलिटिक्स में कांग्रेस 2014 से लगातार चुनावी शिकस्त खा रही है लेकिन नेताओं की ‘हार में भी रार’ थमती नहीं दिख रही है। अब सियासी गलियारे में खबर दौड़ाई जा रही है कि हरीश धामी, खुशाल सिंह अधिकारी, मदन बिष्ट से लेकर कई विधायक नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष पद पर नई ताजपोशी से इतने आहत हैं कि पालाबदल कर भाजपा भी जा सकते हैं। कहा तो यहाँ तक जा रहा कि 19 में से 10 विधायक नाराज होकर पाला बदल सकते हैं। गोया भाजपा में जाते ही 10 के 10 कैबिनेट मंत्री पद पा जायेंगे और मोदी-शाह से लेकर धामी-कौशिक पलक पाँवड़े बिछाए इंतजार कर रहे कि कब कांग्रेसी विधायक आएं और उनके समर्थन से 47 के बहुमत की मजबूत सरकार को नई मजबूती मिले।
हकीकत यह है कि 2017 की मोदी आँधी को दोबारा पांच साल बाद 2022 में दोहराकर भाजपा यह मैसेज दे चुकी कि अब कांग्रेस उसका रास्ता रोक सके सूबे में इतनी ताकत शायद ही जल्दी से बंटोर पाए। जिसे यकीन न हो वे 2024 में लोकसभा की लड़ाई के नतीजे देखने के बाद अपनी राय बदल सकते हैं। आज हालात ऐसे हैं कि भाजपा को भाजपा के भीतर से खतरा पैदा हो जाए तो बात अलग, वरना कांग्रेस को अरसा लगेगा दंगल में दम दिखाने लायक बनने में!
रविवार को कांग्रेस आलाकमान ने विधानसभा चुनाव में हार के बाद नए प्रदेश अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष और उप नेता प्रतिपक्ष का ऐलान किया जिसके बाद से पार्टी में बवाल बेइंतहा मच गया है। प्रीतम कैंप हार के बावजूद नेता प्रतिपक्ष पद चाहता था तो हरदा कैंप की नजर भी प्रदेश अध्यक्ष और CLP नेता पद पर गड़ी थी। लेकिन हरदा को प्रीतम स्वीकार्य नहीं और प्रीतम को रावत के सुझाये नाम नहीं जिसका नतीजा ये रहै कि कांग्रेस नेतृत्व ने भविष्य की राजनीति को देखकर फैसला ले लिया।
कांग्रेस आलाकमान ने रानीखेत से चुनावी हार के बावजूद करन माहरा ( जो हरीश रावत के करीबी रिश्तेदार हैं लेकिन दोनों नेताओं के रिश्तों में मधुर नहीं बताए जाते हैं) को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भविष्य की राजनीति का साफ संदेश दे दिया। जाहिर है यह हरीश रावत के लिये ‘न उगलते बन रहा न निगलते बन रहा’ वाली स्थिति है। कहने को करन माहरा की प्रीतम सिंह से फिलहाल छन रही लेकिन नेता प्रतिपक्ष पद यशपाल आर्य को चले जाने से प्रीतम के समीकरण भी गड़बड़ा गए। आर्य भले चुनाव से कुछ माह पहले भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आए हों लेकिन उनके नाम सबसे लंबे वक्त तक सात साल प्रदेश अध्यक्ष रहने का रिकॉर्ड है। यानी दलित चेहरे आर्य की कांग्रेस में अपनी पैठ है और बहुत लंबे वक्त तक न उनको हरदा की दरकार न प्रीतम का इंतजार!
यूं तो फिलहाल आर्य हरदा के करीब हैं और सीएम पुष्कर सिंह धामी को तमाम साम दाम दंड भेद के बावजूद धूल चटाकर विधानसभा पहुँचे उपनेता विपक्ष भुवन कापड़ी प्रीतम के करीब माना जाते हैं। लेकिन सियासत में करन-कापड़ी को आगे कर पार्टी ने नए दौर की सियासत में खुद को जवाँ दिखाने का दांव खेला है। जाहिर है इसे पचाना हरदा-प्रीतम यानी दोनों स्थापित कैंपों के लिए सहज नहीं रहने वाला है। इसीलिए कभी प्रीतम गुटबाजी के इल्ज़ाम पर विधायकी छोड़ने की धमकी दे रहे तो कभी हरदा अपने करीबी विधायकों को आगे कर अपना दर्द ए दिल बयां कर रहे। लेकिन क्या कांग्रेस नेतृत्व प्रेशर पॉलिटिक्स के इस दांव से चेक-मेट होने वाला है?
कम से कम एआईसीसी के जानकार सूत्रों ने THE NEWS ADDA पर खुलासा किया है कि कांग्रेस आलाकमान हरदा-प्रीतम के बीच पार्टी को और फुटबॉल नहीं बने रहन देना चाहता है। यही वजह है कि पार्टी ने नई नियुक्तियों पर फैसला खूब सोच-समझकर लिया है और तमाम दबाव की राजनीति के बावजूद फैसला पलटने का आसार न के बराबर हैं। हालाँकि सियासत में सबकुछ संभव भी है और जायज भी, इसी मंत्र को लेकर असंतुष्ट विधायक तमाम पैंतरे आज़मा रहे हैं। लेकिन प्रेशर पॉलिटिक्स में पार्टी आलाकमान सरेंडर करें इसकी गुंजाइश न को बराबर ही है। वैसे भी राहुल गांधी को लेकर यह बात कही जाती है कि प्रेशर में लेकर उनसे फैसले करा लेना संभव नहीं।
जाहिर है यह बात बखूबी प्रीतम भी जानते हैं और हरदा भी। संभव है कि मौजूदा प्रेशर पॉलिटिक्स के जरिए एआईसीसी में नई पोस्टिंग को लेकर मैनेजिंग हो रही हो क्योंकि हरदा और प्रीतम दोनों ही चाहेंगे कि 2024 से लेकर 2027 में खुद को राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी में कोई अहम भूमिका मिलना जरूरी है। वैसे भविष्य में इतना जरूर संभव है कि कुमाऊं के दो कांग्रेसी विधायक अपने कारोबारी हितों की रक्षा के लिए पाला बदल कर जाएं! सवाल है कि क्या 10 का दम दिखाने की मुहिम से अपने हित साधने का दांव उन्हीं का तो नहीं?