- 47 विधायकों के बावजूद हारे धामी को सीएम बनाने का क्या होगा संदेश?
देहरादून: याद कीजिए पिछले साल अक्तूबर का महीना जब ऋषिकेश एम्स में ऑक्सीजन प्लांट का उद्घाटन करने पहुँचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंच से न केवल दो बार मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की पीठ थपथपाई बल्कि उनकी जमकर तारीफ भी की। फिर वो तस्वीर देखिए जब नवंबर में कपाट बंद होने से एक दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी बाबा केदारनाथ धाम पहुँचे और बाबा के प्रांगण से प्रधानमंत्री ने धामी की धमक बढ़ाने को फिर उनकी पीठ ठोकी। इसके बाद दिसंबर में चुनाव आचार संहिता लगने से पहले देहरादून परेड मैदान में प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की पीठ थपथपाई।
इसके बाद तो मानो एक सिलसिला चल निकला और कभी रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सीएम धामी को सियासत के ट्वेंटी-20 का धाकड़ बल्लेबाज़ ‘धौनी’ करार दिया तो गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा तक सभी केन्द्रीय नेताओं ने तमाम मंचों से धामी की जमकर तारीफ की। यहाँ तक कि भाजपा ने अपने चुनाव अभियान का नारा भी ‘उतराखंड की पुकार, अबकी बार मोदी-धामी सरकार’ दिया। लेकिन बावजूद इसके खटीमा की जनता ने पुष्कर सिंह धामी को चुनाव में हरा दिया।
कांटे के मुकाबले में चंद वोट या हजार-पाँच सौ वोटों की हार होती तो भी इसे पचाया जा सकता था। लेकिन सीएम रहते धामी की कई हजार वोटों से हुई हार ने सूबे में भाजपा के खेवनहार होने के उनके दावे को एक गहरी चोट पहुचाई है। वरना तो अगर धामी जीत गए होते तो उनकी अगुआई में पार्टी की प्रचंड फतह का सेहरा उन्हीं के सिर सजता लेकिन अब भाजपा कॉरिडोर्स में ही सवाल उठ रहे कि आखिर जब 2017 की तरह ही प्रचंड वेग से मोदी लहर उत्तराखंड में चली तब खटीमा में वोटर्स खासतौर पर महिला, फौजी और पहाड़ी मूल के वोटर्स ने ही क्यों धामी को चुनावी जंग में ढेर हो जाने दिया?
अब अगर इसे टीम धामी भीतरघात का परिणाम बताकर विक्टिम कार्ड खोलना चाह रही तो इस तथ्य को कैसे झुठलाया जाएगा कि अकेले सीएम धामी ही नहीं बल्कि उनके सबसे करीबी मंत्री स्वामी यतीश्वरानंद भी चुनाव हार गए। स्वामी इस बार अकेले चुनाव हारने वाले मंत्री रहे जबकि उत्तराखंड में चुनाव दर चुनाव दो तिहाई से मंत्रियों के हारने का ट्रैंड रहा है। इतना ही नहीं धामी के करीबी विधायक संजय गुप्ता और राजेश शुक्ला भी हार गए।
क्या ये तमाम फैक्टर धामी की मुख्यमंत्री की दौड़ में बाधक बनेंगे? क्या 47 विधायकों का प्रचंड बहुमत पाकर भाजपा आलाकमान खाकर मोदी-शाह हार बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी से नवाज नई परिपाटी शुरू करेंगे? क्या सतपाल महाराज इस बार भी भाजपा में बकौल उन्हीं के ‘पत्तल’ उठाते रह जाएंगे और क्या डॉ धन सिंह रावत इस बार भी दौड़ में ही दिखेंगे? मदन कौशिक भी प्रदेश अध्यक्ष के नाते पार्टी की बड़ी जीत के बाद सीएम रेस के एक मजबूत दावेदार हो गए हैं।
हालांकि धामी समर्थक ममता बनर्जी का हार के बाद भी सीएम बनने का उदाहरण देकर भी दावेदारी मजबूत बता रहे लेकिन टीएमसी की इकलौती नेता और चेहरा ममता ही हैं जिनके दम पर पार्टी ने पश्चिम बंगाल जीता। यहां हालात कतई क्षेत्रीय पार्टी के अनुसरण की नौबत वाले नहीं दिखते, जब प्रेम कुमार धूमल जैसे पॉपुलर चेहरे को हार के बाद घर बैठना पड़ गया था तब धामी का दावा कितना दमदार है इसका परीक्षण आने वाले दिनों में होना शेष है।
यह सही है कि धामी के सीएम बनने के बाद भाजपा के खिलाफ बनते माहौल में सुधार हुआ लेकिन चुनाव नतीजे बताते हैं कि जीत का सारा खेल मोदी मैजिक के सहारे ही हो पाया है। उस पर धामी की करारी हार ने उनके रास्ते में सबसे बड़ा गड्ढा कर दिया वरना उनकी ताजपोशी को लेकर रत्तीभर भी ‘इफ़ एंड बट’ न होते।