दृष्टिकोण (इंद्रेश मैखुरी): उत्तराखंड सरकार ने भू-कानून के मामले में एक कमेटी बनाई है। सेवानिवृत्त आईएएस और उत्तराखंड के पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार इस कमेटी के अध्यक्ष बनाए गए हैं। कमेटी ने जनता से इस मामले में सुझाव मांगे थे और 31 अक्टूबर 2021 को सुझाव देने की अंतिम तारीख थी। कमेटी को आखिरी तारीख पर सुझाव ईमेल कर दिये हैं। अपनी बात लिखने में अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव और भाकपा(माले) की केंद्रीय कमेटी के सदस्य कॉमरेड पुरुषोत्तम शर्मा के लेखों का संदर्भ के तौर पर प्रयोग किया। उत्तराखंड की कृषि और कृषि क़ानूनों को लेकर कॉमरेड पुरुषोत्तम शर्मा का व्यापक अध्ययन है।
कमेटी को सुझाव मेल करने के बावजूद हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि कमेटी से इस मसले पर कुछ ठोस किए जाने की उम्मीद बेमानी है। इसके कई कारण हैं। यह सामान्य बात है कि जब किसी मसले को टालना होता है तो उसके लिए कमेटी बनाई जाती है।
जब देहरादून को स्थायी तौर पर अस्थायी राजधानी बनाना था तो यह फैसला किसी कमेटी ने नहीं लिया। लेकिन गैरसैण को प्रदेश की स्थायी राजधानी बनाने का फैसला ना लेना पड़े, इस मामले को टाला जा सके, इसके लिए पहले नित्यानंद स्वामी ने और फिर एनडी तिवारी ने दीक्षित आयोग का झुनझुना प्रदेश को थमाया।
उत्तराखंड में 2018 में जब त्रिवेंद्र रावत ने मुख्यमंत्री रहते हुए ज़मीनों की बेरोक-टोक बिक्री का कानून विधानसभा से पास करवाया तो कोई कमेटी नहीं बनाई। 2021 में विभिन्न वजहों से जब इस मसले पर भाजपा सरकार ने कमेटी बनाई तो यह स्पष्ट है कि विधानसभा में पारित कानून को कोई कमेटी नहीं बादल सकती।
भू-कानून के मामले में एक लोकप्रिय मांग यह है कि हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर कानून बने। सरकार द्वारा बनाई गयी कमेटी के अध्यक्ष पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार हैं। कमेटी का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद अखबारों में उनका बयान छपा कि हिमाचल के कानून का भी अध्ययन किया जाएगा। रोचक बात यह है कि सुभाष कुमार स्वयं हिमाचल के वाशिंदे हैं। पूरा जीवन आईएएस रहने के बाद अब इस पोस्ट रिटायरमेंट असाइंमेंट में उन्हें हिमाचल प्रदेश का भू कानून पढ़ने जैसा दुष्कर कार्य करना पड़ेगा, यह बड़ी नाइंसाफी है, सुभाष कुमार साहब के साथ !
इस वक्तव्य से भी कमेटी की गंभीरता का अंदाजा लग ही जाता है !
इस संदर्भ में यह भी गौरतलब है जिस भाजपा ने 2018 में ज़मीनों की बेरोक-टोक बिक्री का कानून पास किया, वही 2021 में भू-कानून के लिए अभियान चलाते हुए भी दिखने की कोशिश करती रही। इसके पीछे उनका मंतव्य इस मसले को भी अपने सांप्रदायिक विभाजन के औज़ार के रूप में इस्तेमाल करना था। लेकिन उत्तराखंड के जो संघर्षशील लोग हैं, उनके लिए भू-कानून का मसला जल-जंगल-जमीन पर जनता के अधिकार के व्यापक एजेंडे का हिस्सा है।
उत्तराखंड की भाजपा सरकार और उसके तीसरे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को चाहिए कि वे कमेटी-कमेटी खेलना बंद करें और सबसे पहले भूमि कानून में 2018 का संशोधन रद्द करें। चूंकि 29-30 नवंबर को सरकार ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र का ऐलान किया है तो इस सत्र में जन-भावनाओं के अनुरूप भू कानून सरकार पास करे।
(लेखक एक्टिविस्ट एवं सीपीआई(एमएल) के गढ़वाल सचिव हैं। विचार निजी हैं।)