आदमी पहचान कर न्याय,यह तो अनोखी बात है मी लॉर्ड !
चमोली/देहरादून( इंद्रेश मैखुरी): सुनते आए थे कि कानून की नजरों में सब समान होते हैं. लेकिन 14 जुलाई 2021 को एक जनहित याचिका को खारिज करने के लिए उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएस चौहान और न्यायमूर्ति आलोक वर्मा की खंडपीठ ने जो तर्क दिये, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायालय में सार्वजनिक मसलों पर न्याय की गुहार लगाने के लिए पहले हैसियत और पहचान सिद्ध करनी होगी.
07 फरवरी 2021 को आई जल प्रलय के चलते ऋषि गंगा जल विद्युत परियोजना और तपोवन विष्णुगाड़ परियोजना में जो तबाही मची, उससे दो सौ से अधिक लोगों की जान चली गयी. पहले दिन से स्पष्ट था कि उक्त परियोजनाओं में ऐसी आपदाओं के बचाव की कोई व्यवस्था नहीं थी. एनटीपीसी जैसी बड़ी कंपनी जो 520 मेगावाट की तपोवन विष्णुगाड़ परियोजना बना रही है, उसकी साइट पर एक अदद साइरन तक नहीं था, जो किसी खतरे की चेतावनी दे सकता.किसी आपदा की दशा में कोई आपातकालीन इंतजाम नहीं था. सुरंग के भीतर काम करने वालों को किसी संभावित खतरे से बचाने के लिए कोई आपातकालीन निकास और अन्य व्यवस्था नहीं थी. इसके चलते तथा बचाव कार्यों में ठोस कार्यवाही के बजाय खबर बनाने पर अधिक ध्यान देने के चलते, जिन लोगों को बचाया भी जा सकता था, वे भी नहीं बचाए जा सके.
होना तो यह चाहिए था कि सरकार और कानून इस जानलेवा लापरवाही के लिए परियोजना निर्माता कंपनियों पर कठोर कार्यवाही करता और यह सुनिश्चित किया जाता कि भविष्य में इस तरह की लापरवाही का शिकार लोगों को न होना पड़े. लेकिन ऐसा करने में न सरकार ने और ना ही किसी अन्य ने कोई रुचि दिखाई.
बल्कि इसके ठीक उलट जब परियोजना से होने वाले विनाश के लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्यवाही की मांग के लिए जोशीमठ के पाँच लोग उच्च न्यायालय, नैनीताल गए तो न्यायालय ने न केवल उनकी जनहित याचिका खारिज कर दी, बल्कि प्रत्येक याचिकाकर्ता पर दस-दस हजार रुपये का जुर्माना लगा दिया.
याचिका खारिज करने और जुर्माना लगाने की वजह पढ़ कर आप सिर ही धुन सकते हैं ! मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएस चौहान और न्यायमूर्ति आलोक वर्मा की खंडपीठ ने लिखा कि याचिका कर्ताओं ने याचिका में स्वयं को सामाजिक कार्यकर्ता बताया है, पर इस बात का कोई सबूत नहीं है, जो यह सिद्ध कर सके कि वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं. ऐसा कौन सा कानून है मी लॉर्ड, जो यह कहता हो कि न्यायालय में आने वाले को अपनी पीड़ा से पहले अपनी हैसियत सिद्ध करनी होगी ? माना कि वह व्यक्ति कोई नहीं तो क्या उसकी पीड़ा या तर्कसंगत बात नहीं सुनी जाएगी ? क्या सामाजिक कार्यकर्ता ऐसा पद है, जिसका कहीं कोई नियुक्ति पत्र मिलता है, जो याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में नहीं लगाया था ?
अपने फैसले में मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएस चौहान और न्यायमूर्ति आलोक वर्मा ने याचिकाकर्ताओं का विवरण देने के लिए जो शब्दावली प्रयोग की है, उससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि विद्वान न्यायमूर्तियों को न केवल याचिकाकर्ताओं के सामाजिक कार्यकर्ता होने पर बल्कि उनके रैणी और जोशीमठ क्षेत्र के निवासी होने पर संदेह है. विद्वान न्यायाधीशों ने लिखा है- “Petitioner Nos.1, 2 and 3 claim to be the residents of Village Raini (Palla), District Chamoli, and Petitioner Nos.4 and 5 claim to be the residents of Joshimath, District Chamoli.”
इसका अर्थ है कि याचिकाकर्ताओं का दावा है कि वे रैणी और जोशीमठ के निवासी हैं. क्या अदालत उनके इस दावे से संतुष्ट नहीं है जबकि याचिका में उनके आधार कार्ड भी लगे हैं ? वास्तविकता तो यह है कि उनका दावा भर नहीं है, वे जोशीमठ क्षेत्र के वाशिंदे हैं, यह तो उस क्षेत्र में कोई भी बता देगा. लेकिन अदालत को उनके निवास क्षेत्र को ही संदेह वाली भाषा में वर्णित करने की आवश्यकता क्यूँ पड़ी ? इसी संदेह वाली भाषा- “They further claim to be “social activists” (वे आगे सामाजिक कार्यकर्ता होने का दावा करते हैं)- का प्रयोग अदालत ने उनकी याचिका को खारिज करने के लिए किया.
हालांकि बहस तो याचिका के गुण-दोष पर होनी चाहिए थी,परंतु जब विद्वान न्यायमूर्तियों ने याचिककर्ताओं की पहचान को याचिका खारिज करने का मुख्य आधार बना दिया तो उस पर भी चर्चा करना आवश्यक हो जाता है.
याचिकाकर्ताओं में से तीन लोग उस रैणी गांव के मूल निवासी हैं, जिस गाँव पर आपदा की इतनी मार पड़ी है कि चिपको आंदोलन के लिए प्रसिद्ध, यह गाँव विस्थापित किए जाने वाले गांवों की सूची में आ गया है. ग्रामसभा की बैठक के प्रस्ताव व सर्वसम्मति से लिये गए निर्णय के आधार पर ही उक्त तीन याचिकाकर्ता न्यायालय गए. तीन में से एक भवान सिंह राणा, वर्तमान में ग्रामसभा के प्रधान हैं. संग्राम सिंह पूर्व क्षेत्र पंचायत सदस्य हैं और पूर्व में ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट के खिलाफ नैनीताल उच्च न्यायालय जा चुके हैं. लेकिन उस समय न्यायालय ने उनकी पहचान पर सवाल खड़ा नहीं किया था. तीसरे सोहन सिंह हैं जो चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी के पोते हैं. इनके अलावा कमल रतूड़ी कांग्रेस के नेता और आन्दोलनकारी हैं. प्रशिक्षित बेरोजगारों के आंदोलन के नेता रहे हैं. जोशीमठ में परियोजनाओं के खिलाफ चले आंदोलन में सदा से सक्रिय रहे हैं.
कॉमरेड अतुल सती, भाकपा(माले) की राज्य कमेटी के सदस्य हैं. छात्र जीवन से आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं. जोशीमठ क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाओं समेत तमाम सवालों पर आंदोलनों के प्रमुख नेता रहे हैं. जोशीमठ में विभिन्न जन आंदोलनों का नेतृत्व करने वाली जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक का दायित्व निभाते रहे हैं. नब्बे के दशक में श्रीनगर(गढ़वाल) से निकलने वाली पत्रिका “शायद संभावना” के संपादक और प्रकाशक रहे हैं. हाल-हाल में ही जोशीमठ में परियोजनाओं से हुई तबाही,विस्थापन, पुनर्वास पर उनके लेख नवभारत टाइम्स से लेकर मूंगबे जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों और पोर्टल्स में छपते रहे हैं. जोशीमठ संबंधी मामलों में देश-दुनिया के पत्रकारों के लिए वे संदर्भ व्यक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं और इस रूप में दुनिया भर की पत्र-पत्रिकाओं में उनका पक्ष प्रकाशित होता रहा है.
जिन याचिकाकर्ताओं के सामाजिक कार्यकर्ता होने पर संदेह करते हुए न्यायालय ने पहली पेशी में उनकी याचिका खारिज कर दी, उनका उक्त परिचय पढ़ कर कोई भी समझ सकता है कि न्यायालय ने उनकी याचिका खारिज करने के लिए जो आधार बनाया उसे तो कम से कम सही नहीं ठहराया जा सकता.
प्रश्न यह भी है कि उक्त जनहित याचिका की पहली पेशी पर ही न्यायालय ने यह निष्कर्ष कैसे निकाला कि कि उक्त याचिकाकर्ता सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हैं और इसलिए पहली पेशी में ही उनकी याचिका खारिज कर दी जानी चाहिए ? यदि याचिकाकर्ताओं से स्वयं को सामाजिक कार्यकर्ता सिद्ध करने की अपेक्षा है तो क्या विद्वान न्यायाधीशों को उनके इरादों पर संशय करने का आधार नहीं सिद्ध करना चाहिए था. दो दशक से लंबे साफ-सुथरे सार्वजनिक जीवन वाले लोगों पर किसी अदृश्य हाथ की कठपुतली होने जैसे टिप्पणी से, उनकी प्रतिष्ठा को जो धक्का पहुंचा है, उसकी भरपाई कौन करेगा ? यदि अदालत उनके सामाजिक कार्यकर्ता होने की ही पुष्टि करना चाहता था तो इसके लिए भी उनसे सवाल किए जा सकते थे, समय दिया जा सकता था.
इस सब के बीच असल सवाल अपनी जगह खड़ा है कि याचिका में जोशीमठ क्षेत्र में हुई तबाही और उसमें जलविद्युत परियोजनाओं की भूमिका को लेकर जो प्रश्न खड़े किए गए हैं, क्या उन्हें याचिकाकर्ताओं की हैसियत के नाम पर किनारे करने की अनुमति दी जानी चाहिए ? क्या जलविद्युत परियोजनाओं को किसी इलाके को तहस-नहस करने की अनुमति इसलिए दी जानी चाहिए कि अदालत में उनकी पहचान स्थापित है और उस विनाश को रोकने की दरख्वास्त करने वालों की अपील इसलिए खारिज कर दी जानी चाहिए कि उनकी पहचान अदालत की निगाह में स्थापित नहीं हो पाई है ?
अन्याय देख कर नहीं बल्कि आदमी पहचान कर न्याय करने का यह फॉर्मूला तो न्यायशास्त्र की नयी व्याख्या है, मीलॉर्ड जिससे हम चमत्कृत हैं, हतप्रभ हैं !
साभार एफबी वॉल
(लेखक एक्टिविस्ट एवं सीपीआई(एमएल) के गढ़वाल सचिव हैं)