देहरादून: यह प्रधानमंत्री मोदी का ही मैजिक था कि 2002, 2007 और 2012 के तीन विधानसभा चुनावों में भाजपा-कांग्रेस के बीच करीब 32 फीसदी से 34 फीसदी वोट शेयर के साथ होती रही हार-जीत का फ़ासला 2017 में 46.5 फीसदी बनाम 33.5 फीसदी के तौर पर करीब 13 फीसदी हो गया। इसी मोदी सूनामी ने चुनावी लड़ाई को 31-32 सीटों के खेल से 57-11 सीटों के अंतर तक पहुँचा दिया था। उत्तराखंड में 2017 में भाजपा के पक्ष में यह लहर पैदा हुई मोदी की मेगा रैलियों से, जब प्रधानमंत्री मोदी ने देहरादून, हरिद्वार, श्रीनगर, पिथौरागढ़ से लेकर रुद्रपुर यानी पाँचों लोकसभा क्षेत्रों में ताबड़तोड़ पांच रैलियां कर कांग्रेस के खिलाफ बनी सत्ता विरोधी लहर का भरपूर सियासी फायदा उठाया। लेकिन अब बाजी पलटती दिख रही है क्योंकि हालात बदल चुके हैं।
2017 के सत्ता संग्राम के मुकाबले आज बाइस बैटल में सियासी माहौल पूरी तरह बदला हुआ है। आज न भाजपा के पक्ष में वो सत्रह वाली लहर है और न ही डबल इंजन सरकार के बावजूद कमल कुनबा अपनी पांच बड़ी उपलब्धियां तक गिना पा रहा है। उलटे पांच साल की सत्ता के बाद अधिकतर मंत्रियों से लेकर भाजपाई विधायक स्थानीय स्तर पर ज़बरदस्त एंटी इनकमबेंसी से जूझ रहे हैं। चाहकर भी भाजपा न चुनाव को सांप्रदायिक रंग दे पा रही है और न ही महंगाई, बेरोज़गारी और पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदलने जैसे मुद्दों पर जवाब देते बन रहा है।
इन सबसे ऊपर सत्ताधारी दल के लिए जो सबसे बड़ा संकट पैदा हुआ है वो है प्रधानमंत्री मोदी की मेगा रैलियों का न हो पाना! कहां तो भाजपा रणनीतिकारों ने तय किया था कि फिर से मोदी मैजिक पैदा करने के लिए प्रधानमंत्री की पांचों लोकसभा सीटों के हिसाब से पांच बड़ी रैलियां कराई जाएंगी। लेकिन कोरोना प्रोटोकॉल के चलते बड़ी रैलियों पर रोक है और ऐसा लगता है कि आखिरी दौर में फ़्लोटिंग वोटर्स को मोदी मैजिक के सहारे अपने पाले में झटक लेने का दांव धरा का धरा रह गया है। यह पीएम मोदी पर भाजपा की चुनावी निर्भरता का ही प्रमाण है कि आचार संहिता से पहले लगातार तीन महीनों में प्रधानमंत्री मोदी ऋषिकेश एम्स, केदारनाथ धाम और देहरादून परेड मैदान में तीन बार मेगा शो करने पहुँचे जिसका फायदा भी भाजपा को होता दिखा। लेकिन इसे चुनावी जंग छिड़ने के बाद दोहराने का दांव धरातल पर नहीं उतरने का ख़ामियाज़ा भाजपा को होता दिख रहा है।
कांग्रेस ने राहुल-प्रियंका को देवभूमि दंगल में झोंका
इसके मुकाबले कांग्रेस ने छोटी जनसभाओं में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को उतार दिया है। राहुल गांधी की देहरादून में दिसंबर में हुई शहीद सम्मान रैली के बाद शनिवार को ऊधमसिंहनगर की किच्छा और हरिद्वार की ज्वालापुर सीट पर जनसभा, किसान संवाद और वर्चुअल रैली है। इससे पहले कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने देहरादून में वर्चुअल रैली के जरिए पार्टी का मेनिफेस्टो लॉन्च किया है। कांग्रेस रणनीतिकार अब प्रियंका गांधी की कुमाऊं में जनसभा प्लान कर रहे हैं।
डिजिटल दमखम के बावजूद भाजपा को डरा रहा साइलेंट वोटर
एक समय भाजपा रणनीतिकार मान रहे थे कि पार्टी डिजिटल संसाधनों से लैस है लिहाजा उसे कोरोना की तीसरी लहर के चलते बने हालात से फायदा ही होगा। अब यूपी का पता नहीं लेकिन उत्तराखंड में सत्ताधारी दल को सियासी घाटा ही होता दिख रहा है। ऐसा इसलिए दिख रहा क्योंकि भाजपा के पास सूबे में ऐसा कोई क्षत्रप नहीं है जो हरीश रावत से सीधे लोहा ले सके। सिर्फ 2017 जैसा मोदी मैजिक पैदा होता तभी भाजपा हरीश रावत को मात दे सकती थी। पुष्कर सिंह धामी को सीएम बनाकर भाजपा ने युवा दांव जरूर खेला लेकिन न धामी युवाओं में वो धमक गढ़ पाए, न पांच साल से बेरोज़गारी की मार से त्रस्त नौजवान उठ खड़ा होकर उनके पीछे चल पड़ा है। ऐसे में डिजिटल प्रचार हो जरूर रहा लेकिन यह सीधे वोटर्स की बजाय काडर तक ही संदेश बनकर पहुंच पा रहा।
डिजिटल प्रचार की धार पर भी मौसम का मार पड़ रही है। चार फरवरी की प्रधानमंत्री मोदी की वर्चुअल रैली मौसम की भेंट चढ़ चुकी है। इतना ही नहीं चुनावी जंग के लिए बेहद मजबूत मशीनरी लेकर भी भाजपा ने पहले कांग्रेस के मेनिफेस्टो का इंतजार किया और उसके तीन दिन बाद भी पार्टी अपना मेनिफेस्टो लेकर नहीं आती दिख रही है। जबकि यूपी में योगी सरकार ने अपनी उपलब्धियों का दस्तावेज सार्वजनिक कर दिया लेकिन उत्तराखंड में तीन-तीन मुख्यमंत्रियों के बावजूद नेता भरी प्रेस वार्ताओं में पांच उपलब्धियां बताने की बजाय विपक्षी कांग्रेस से ही उसकी उपलब्धियां पूछ रहे।
क्या आखिरी दौर में भाजपा बदल पाएगी फ़्लोटिंग वोटर का मूड ?
इस वक्त युवा सीएम पुष्कर सिंह धामी पार्टी के भीतर ही एक खास तरह के अंदरुनी दांव-पेंच वाले माहौल से घिरे हैं और खतरा खटीमा की उनकी सीट तक पसरा हुआ है। न चुनाव प्रभारी प्रह्लाद जोशी पूर्व में प्रभारी रहे जेपी नड्डा या धर्मेंद्र प्रधान जैसी छाप छोड़ते दिख रहे हैं और न ही प्रदेश के संगठन महामंत्री अजेय कुमार शिवप्रकाश जैसे समीकरण बिठा पा रहे! खंडूरी-कोश्यारी-निशंक के मुकाबले धामी-कौशिक की भी अपनी सीमायें हैं। फिर पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत कहीं मदन कौशिक को अगला मुख्यमंत्री बनाते घूम रहे तो उनके खासमखास मेयर सुनील उनियाल गामा विनोद चमोली में अगले मुख्यमंत्री की छवि खोज रहे।
ऐसे में सवाल सीधा है कि अगर धरातल पर 2017 जैसा मोदी मैजिक नहीं बन रहा तो क्या अकेले डिजिटल प्रचार के बूते भाजपा फ़्लोटिंग वोटर को फिर अपनी तरफ झुकाकर सत्ता में दोबारा वापसी का हसीन ख़्वाब पूरा कर पाएगी?