दिल्ली/देहरादून: जी हाँ यह बदली हुई भाजपा है! यहाँ फैसले लेने और नेताओं के अर्श से फ़र्श का सफर तय करने में पलक झपकने जितना समय ही लगता है। वो दौर हवा हुआ जब मोदी-शाह रिजीम में ‘जिसे कुर्सी पर बिठाया उसे फिर हटाया नहीं जाएगा’ वाला फ़ॉर्मूला चलता था। उसी दौर में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में त्रिवेंद्र सिंह रावत तमाम विवादों-आरोपों के बावजूद चार साल तक सत्ता पर क़ाबिज़ रहते हैं लेकिन शीर्ष नेतृत्व पर सोच बदली तो तीरथ सिंह रावत को कुर्सी पर बिठाने और हटाने में चार माह भी नहीं लगे। अब त्रिपुरा के मुख्यमंत्री पद से बिप्लब देब को हटाकर माणिक साहा की ताजपोशी ने फिर इसी दोहरा दिया है। साफ है मोदी-शाह अब मिशन 2024 फतह करने के लिए निकल पड़े हैं और इस बीच होने वाले राज्यों के विधानसभा चुनावों मे जीत पक्की करने में जिसकी भी क़ुर्बानी देनी पड़ेगी दे दी जाएगी।
दरअसल, 2014 से मोदी-शाह दौर की भाजपा का फोकस रहा है कि 50 फीसदी प्लस वोट शेयर पर क़ब्ज़ा मजबूत किया जाए। इसी सोच ने पार्टी के जनाधार में पीछे सात-आठ सालों में बड़ा इज़ाफ़ा किया है लेकिन 2024 को लेकर जिस तरह से कांग्रेस से इतर विपक्षी ताक़तें हुंकार भर रही हैं, उस चुनौती के मद्देनज़र मोदी-शाह को राज्यों में कमजोर पड़ना किसी क़ीमत पर गंवारा नहीं होगा। यही वजह है कि चुनावी राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर भाजपा आलाकमान ताबड़तोड़ फैसले ले रहा है। त्रिपुरा में चेंज के बाद अब दूसरे चुनावी राज्यों को लेकर चर्चाएं तेज हो गई हैं।
दरअसल, पांच राज्यों के चुनावों से पहले जिस तरह से मोदी-शाह ने उत्तराखंड में चेहरा बदलकर पुष्कर सिंह धामी को आगे किया और पार्टी के फैसले पर जनता ने जीत की मुहर लगा दी उसके बाद अब पार्टी परफ़ॉर्मेंस में पिछड़ने वाले अपने मुख्यमंत्रियों को बदलने में हिचकेगी नहीं। मोदी-शाह की चाहत है कि राज्यों का नेतृत्व न केवल बेदाग़ छवि के साथ जनता में दमदार मौजूदगी दर्ज कराता रहे बल्कि पार्टी काडर्स और विधायकों के साथ संवादहीनता भी उत्पन्न न होने दे।
चुनाव से ठीक आठ महीने पहले धामी को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाने का जो फ़ार्मूला हिट हुआ उसे त्रिपुरा में पार्टी के भीतर और जनता में पनपते आक्रोश को शांत करने के लिए दोहरा दिया गया है। त्रिपुरा चुनाव में भी आठ-नौ माह का वक्त बचा है और पार्टी उत्तराखंड की तर्ज पर जोखिम मोल लेने से नहीं हिचकी है बल्कि इसे इस तरह कहा जाए कि पिछले 11-12 महीनों में भाजपा नेतृत्व ने पांच मुख्यमंत्री बदलकर अपने नए और बदले तेवरों का अहसास करा दिया है।
हिमाचल प्रदेश में इस साल विधानसभा चुनाव हैं और भाजपा नेतृत्व उपचुनावों में पार्टी की हार हो पचा नहीं पा रहा है। लिहाजा मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर खतरे की जग में तो काफी पहले से हैं लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के गृहप्रदेश में पेंच कई स्तरों पर उलझे हुए हैं। एक और भाजपा शासित राज्य कर्नाटक जहां बीएस येदियुरप्पा को हटाकर लाए गए मुख्यमंत्री बोम्मई भी सेंटल होते नहीं दिख रहे हैं। जबकि मध्यप्रदेश में ‘मामा’ शिवराज सिंह चौहान की अगुआई में ही अगला चुनाव भाजपा लड़ेगी या नये चेहरे को आगे किया जायेगा इसे लेकर भी चर्चाएं फिर जोर पकड़ने लगी हैं। भले हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर फिलहाल सुरक्षित दिख रहे हों लेकिन मोदी-शाह परफ़ॉर्मेंस को लेकर बेहद गंभीरता से तमाम राज्यों की मॉनिटरिंग करा रहे हैं।
साफ है पार्टी के भीतर के झगड़ों से लेकर जनता में कनेक्ट बनाकर रिजल्ट देने वाले मुख्यमंत्री ही लंबी रेस के घोड़े साबित होंगे। वरना किसे पता जो आज खुद को सुरक्षित माने बैठा हो कल वही अपने राज्य में अगला बिप्लब देब साबित हो जाए।