देहरादून (@pawan_lalchand): ये मोदी-शाह दौर की सर्वशक्तिमान बीजेपी को हो क्या गया है? 2014 में मोदी देश की बागडोर अपने हाथ में लेते हैं और फिर बीजेपी पर अमित शाह का वर्चस्व स्थापित होता है तो दिल्ली के पॉवर कॉरिडोर्स से एक ही स्ट्रॉन्ग मैसेज निकलता है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने एक बार अगर किसी को राज्य की कमान सौंप दी तो फिर दलीय दबाव कितना बनाया जाए या विरोधी हल्ला जितना चाहें काटें फैसले पलटा नहीं करते। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर और महाराष्ट्र में देवेन्द्र फड़नवीस से लेकर झारखंड में रघुबर दास इसी बिसात पर पांच-पांच साल सत्ता चला ले जाते हैं।
गुज़रे दौर की बात हुई 2019 में भले मोदी और ज्यादा ताकतवर होकर दिल्ली तख़्त पर बैठे हों लेकिन राज्यों में सियासी गढ़ लुटने का भय सताने लगा हो या पार्टी से लेकर संघ का अंदरुनी दबाव मजबूर करने लगा हो अब मुख्यमंत्री ताश के पत्तों की तर्ज पर फेंटे जाने लगे हैं। तभी तो उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में चार महीने में तीन मुख्यमंत्री बदल दिए जाते हैं। असम में जीत का सेहरा जिसके सिर था उसी सोनोवाल से कुर्सी लेकर सरमा को सौंप दी जाती है। कर्नाटक में जिस यदियुरप्पा को मोदी-शाह लेकर आते हैं उनको भारी मन से जाना पड़ता है। और अब गुजरात में मोदी-शाह ने विजय रुपाणी को भी चलता कर दिया है। सवाल है कि ये मोदी-शाह की बदली सियासी रणनीति का हिस्सा है कि चुनाव जहां आने लगें वहाँ चेहरा बदलकर नाराजगी को रफ़ूचक्कर कर दिया जाए! या फिर दिल्ली तख़्त पर मोदी के रहते राज्यों में पार्टी को 2014 के बाद मिले उभार के अब सिकुड़ने का डर घर कर गया है?
वैसे BJP में मुख्यमंत्री बदलने का चलन सिर्फ मोदी-शाह दौर की देन नहीं है बल्कि वाजपेयी-आडवाणी दौर में भी राज्यों में चेहरा बदलने के एक्सपेरिमेंट हुए। याद पड़ता है कि मुख्यमंत्री बदलने का पहला एक्सपेरिमेंट Delhi में किया गया था। 1993 में दिल्ली में बीजेपी ने मदन लाल खुराना की अगुआई में सरकार बनाई थी लेकिन जैन हवाला कांड में नाम आने पर खुराना को कुर्सी छोड़नी पड़ी थी और साहिब सिंह वर्मा को दूसरा सीएम बनाया गया। किन्हीं वजहों से साहिब सिंह भी चलता कर दिए गए और सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाकर BJP चुनाव में कूदी। लेकिन प्याज के आँसू जनता ने पार्टी को ऐसा रुलाया कि दिल्ली में दोबारा सरकार का सपना सिर्फ सपना बनकर ही रह गया है।
बीजेपी ने मध्यप्रदेश में 2003 में सत्ता हासिल की तो मुख्यमंत्री उमा भारती बनी पर जल्द ही उनको कुर्सी छोड़नी पड़ी और बाबू लाल गौर सीएम बने लेकिन चुनाव से पहले तीसरे सीएम शिवराज सिंह चौहान बनाए गए।
मध्यप्रदेश से पहले अटल-आडवाणी दौर की बीजेपी नवोदित राज्य उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलने का एक्सपेरिमेंट अंतरिम सरकार में ही कर चुकी, जब पहले सीएम नित्यानंद स्वामी बनाए गए लेकिन चुनाव से पहले सत्ता भगत सिंह कोश्यारी को सौंप दी गई। फिर 2007 में भी खंडूरी-निशंक-खंडूरी के बीच कुर्सी की अदला-बदली होती रही। लेकिन उत्तराखंड को जिस तरह से शक्तिशाली मोदी-शाह दौर में बीजेपी की पॉलिटिकल लेबोरेटरी बनाया गया है ऐसा पहले कभी किसी राज्य में नहीं हुआ। मार्च 2021 में त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद से हटाया जाता है और जिन तीरथ सिंह रावत की ताजपोशी की जाती हैं, उनको महज 115 दिन में हटा दिया जाता है। इस तरह जुलाई आते-आते उत्तराखंड को प्रचंड बहुमत के बावजूद तीसरे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी मिल जाते हैं।
हाल में कर्नाटक में भी बीजेपी ने नेतृत्व परिवर्तन किया और बीएस येदियुरप्पा से कुर्सी छीनकर बीएस बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया है।
जाहिर है मोदी-शाह दौर की सर्वशक्तिमान बीजेपी भी राज्यों में अपने नेतृत्व को लेकर आत्मविश्वास से लबरेज़ नजर नहीं आती है। इसकी अनेक वजहें होंगी जिन पर बीजेपी, संघ से लेकर मोदी-शाह मंथन कर रहे होगे लेकिन एक बड़ी वजह तो दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ नजर आ रही है और वह है मुख्यमंत्री के चुनाव में विधायकों की राय बेमानी करते हुए दिल्ली दरबार की ओर से पैराशूट मुख्यमंत्री थोपा जाना, जिसे बाद में हर छोटे-बड़े काम के लिए दिल्ली का मुँह तकना पड़ना है. नतीजा यह कि न सशक्त छवि बन पाती है और ना ही जनता में परफॉर्मर सरकार जैसा प्रभाव पैदा हो पाता है। लिहाजा जैसे ही चुनाव करीब आने लगते हैं इन दिल्ली दरबार के कृपापात्र चेहरों की चमक फीकी दिखाई देने लगती है और मजबूरन पीछा छुड़ाना पड़ता है।