इन दिनों सुनने को मिल रहा है कि कोई सरकार सवा सौ करोड़ लोगों को डॉक्टर और अस्पताल मुहैया नहीं करा सकती, ये नया विमर्श है। नई वैचारिकी है। जिन लोगों ने यह तर्क गढ़ा है, उन्हें पता है कि वे क्या कहना चाह रहे हैं। मकसद स्पष्ट है कि सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है, सरकार के भरोसे नहीं रहना है। अब इस प्रायोजित-वक्तव्य के साथ तथ्यों को जोड़ कर देखिए तो पता चलेगा की लोग उस चीज की मांग ही नहीं कर रहे हैं जो उपलब्ध नहीं है। पीड़ित लोगों की सीधी-सी मांग है कि जो कुछ उपलब्ध है या आसानी से उपलब्ध कराया जा सकता है, वह मिलना चाहिए। अफसोस ये कि वह मिल नहीं रहा है।
पूरे देश में मार्च के आखिर से मेडिकल सुविधाओं को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। क्या यह सिस्टम की विफलता नहीं है, क्या किसी को इस विफलता की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए, क्या कोई इस अराजकता का जिम्मेदार नहीं है ? इन सब सवालों का जवाब ‘हां’ में दिया जा सकता है। लेकिन जिम्मेदार व्यक्ति, व्यवस्था और तंत्र को चिन्हित करने के अंतर्निहित खतरे बहुत बड़े हैं। सात साल पहले केंद्र में भाजपा के सत्तारोहण के बाद चाहे फर्जी गैस कनेक्शन के मामले हो या फर्जी राशन कार्ड के, सरकार ने नई टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से इन सारी चीजों पर बड़े पैमाने पर रोक लगाने का दावा किया था। आखिर, वही टेक्नोलॉजी आज विफल क्यों हो गई ? कोई एक ऐसा केंद्रीकृत वर्चुअल प्लेटफार्म हमारे सामने क्यों नहीं आ पाया जिसके जरिए देश में मौजूद मेडिकल सुविधाओं को उन लोगों को मुहैया करा सकें, जो मर्माहत करने वाली गुहार लगा रहे हैं।
सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश में इस वक्त 37.06 लाख एक्टिव मरीज हैं। सारे एक्सपोर्ट कह रहे हैं इनमें से केवल 10 फीसद लोगों को ही हॉस्पिटल की जरूरत पड़ रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि अस्पतालों में साढ़े तीन लाख के आसपास बेड उपलब्ध हों तो फिर कोई मरीज ऐसा नहीं होगा जिसे हॉस्पिटल में एडमिशन ना मिले। इसी तरह बताया जा रहा है कि कुल मरीजों में से लगभग 1 फीसद को वेंटिलेटर की आवश्यकता पड़ रही है। इस पैमाने पर औसत 35 हजार वेंटिलेटर की आवश्यकता होनी चाहिए। अब उन आंकड़ों को देखिए जो देश में मेडिकल सुविधाओं के बारे में बताते हैं कि अप्रैल के आखिर तक देश के सरकारी एवं निजी अस्पतालों में सभी श्रेणी के मिलाकर तीन लाख 60 हजार से ज्यादा बेड उपलब्ध है। इनमें से वेंटिलेटर वाले बेड की संख्या 33 हजार से ज्यादा है। और इस अवधि में अस्थायी अस्पताल और बेड लगातार बढ़ाये जा रहे हैं। अब मरीजों की संख्या और इन सुविधाओं की तुलना कर लीजिए तो फिर उस तरह का हाहाकार नहीं दिखना चाहिए जो कि देखने में आ रहा है!
इसका सीधा मतलब यह है कि देश में मेडिकल सुविधाओं को जरूरतमंद लोगों को उपलब्ध कराने के लिए इस वक्त जिस सिस्टम की जरूरत थी, वह सिस्टम काम नहीं कर रहा है। उस सिस्टम की मौत हो गई है।उपर्युक्त आंकड़े बता रहे हैं कि देश में अस्पताल भी हैं, अस्पतालों में बेड भी हैं और डॉक्टर-नर्स भी हैं। लेकिन दुःखद यह है कि जिन्हें इनकी जरूरत है, वे मारे-मारे बारे घूम रहे हैं। अब सवाल यह है कि उस केंद्रीकृत प्रौद्योगिकी का विकास किसे करना था, जिसके जरिए इन दुर्लभ संसाधनों को सही लोगों को उपलब्ध कराया जा सके। जिस देश के टेक्नोक्रेट्स का सिलिकॉन वैली में डंका बजता हो, जो देश दुनिया के लगभग एक चौथाई टेक्नोक्रेट पैदा करता हो, उस देश में एक ऐसी व्यवस्था पैदा नहीं हो पाई जो पीड़ित लोगों को रियल-टाइम में मदद पहुंचा सके। यह अपने आप में चिंताजनक है और शर्मनाक भी है।
कोई टेक्नोक्रेट या कोई निजी कंपनी अपने स्तर पर पूरे देश के मेडिकल संसाधनों के प्रबंधन को नहीं संभाल सकती इसलिए इस काम को सरकार के स्तर पर ही कोऑर्डिनेट किया जाना था, जो कि नहीं किया गया। देश के मशहूर चिकित्सक डॉ देवी शेट्टी का एक बयान आया कि अस्पताल और बेड लोगों का इलाज नहीं करते, लोगों का इलाज डॉक्टर करते हैं। इस बयान के संदर्भ में प्रश्न यह है कि क्या भारत में डॉक्टर उपलब्ध नहीं हैं ? भारत सरकार के 31 दिसंबर, 2020 तक के आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में 10 हजार लोगों पर लगभग 10 डॉक्टर उपलब्ध हैं। यह बात सही है कि भारत मे चीन या अमेरिका की तुलना में आबादी के अनुपात के लिहाज से कम डॉक्टर हैं, लेकिन स्थिति इतनी खराब भी नहीं है कि लोगों को डॉक्टर ना मिल पाएं।
मूल बात यह है कि क्या सभी डॉक्टरों को उन जगहों पर लगाने का तंत्र विकसित किया गया है, जहां उनकी सबसे अधिक जरूरत है। यह बात हम सभी को पता है कि भारत दुनिया में सबसे अधिक मेडिकल कॉलेजों वाला देश है। इतना ही नहीं, हम चीन के बाद दुनिया में सबसे अधिक डॉक्टरों वाले दूसरे नंबर के देश हैं। यही स्थिति नर्सिंग स्टाफ की भी है। इस वक्त 25 हजार से ज्यादा युवा एमबीबीएस के अंतिम वर्ष में है। इनमें अन्य पैथियों के डॉक्टर को भी जोड़ लें तो यह संख्या 50000 से ज्यादा हो जाएगी। बीते साल के आंकड़ों को देखिए तो एक लाख 30 हजार से अधिक डॉक्टरों ने पीजी कोर्स में एडमिशन के लिए अप्लाई किया था। यानी ये डॉक्टर अभी अगली पढ़ाई की तैयारी कर रहे हैं। सवाल फिर वही है कि इन कीमती संसाधनों का सही उपयोग कैसे होगा और उस उपयोग के लिए सिस्टम का निर्माण कौन करेगा ?
निःसन्देह इसकी जिम्मेदारी पूरी तरह सरकार पर ही है। बीते साल आरोग्य सेतु नाम से जो बहुप्रचारित ऐप लाया गया था, उसने संक्रमित लोगों की तलाश करने, उनकी जांच कराने, उन्हें ट्रैक करने और इलाज के लिए सही जगह तक पहुंचाने में कितनी मदद की होगी, इसका पता केवल सरकारी तंत्र को ही हो सकता है। ऐसा नहीं है कि कोरोना के इलाज और बचाव के लिए देश मे टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल बिल्कुल किया ही ना गया हो, कुछ राज्यों ने इसे अपने स्तर पर लागू करने की कोशिश की है, लेकिन इसका पूरी तरह लाभ तभी मिल सकता था जब इसे भारत सरकार द्वारा एक केंद्रीकृत रूप में लागू किया जाता। अपने आसपास के लोगों पर निगाह डाल कर देखिए। वे केवल इतना ही तो जानना चाहते हैं कि कोविड की जांच कहां हो रही है, अस्पताल और बेड कहां पर हैं, ऑक्सीजन और दवाएं कहां मिल सकती है ? वे यह उम्मीद और मांग नहीं कर रहे हैं कि सरकार रातो-रात सैंकड़ों अस्पताल बना दे या हजारों डाक्टरों की नियुक्ति कर दे। पीड़ित लोगों की जिंदगी मौजूदा संसाधनों के योजनाबद्ध प्रयोग से भी बच सकती है। जिसके मामले में सरकार और व्यवस्था पूरी तरह फेल हुई है।
यह बात इसलिए भी शर्मनाक है कि जब हम टेक्नोलॉजी और फार्मेसी में खुद को दुनिया का सुपर पावर बताते हैं तो फिर इन्हीं दोनों पैमानों पर हमारा फेल हो जाना भविष्य के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि दुनिया में इस तरह के काम करने की उदाहरण मौजूद ना हों। जर्मनी के बारे में कहा जा रहा है कि उसने अपने मेडिकल डेटाबेस मैनेजमेंट के जरिए ही लोगों को बड़े स्तर पर राहत पहुंचाई। दक्षिण कोरिया ने तो शुरू में ही इसका बहुत प्रभावपूर्ण उपयोग किया। सिंगापुर, न्यूजीलैंड और इंग्लैंड का उदाहरण भी हमारे सामने है। इस वक्त, जिस तरह से लोग सोशल मीडिया पर दवाओं और अस्पतालों के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं, उससे जनभागीदारी की कोई व्यवस्था पैदा हो पाएगी, इसकी संभावना ना के बराबर है। सिस्टम यदि आंकड़े छिपाने और अपना चेहरा चमकाने तक सीमित हो जाए तो फिर लोगों के पास दर-दर भटकने का ही विकल्प बचता है।
साभार डॉ सुशील उपाध्याय फेसबुक वॉल
(डॉ. सुशील उपाध्याय लेखक, शिक्षाविद् और मीडिया विश्लेषक हैं। मीडिया केन्द्रित उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।)