दृष्टिकोण (पंकज कुशवाल):…तो आखिरकार उत्तराखंड विधानसभा चुनाव का भी हिंदू-मुस्लिम हो ही गया! कल पूरे दिन हरीश रावत की एडिट की गई तस्वीर इंटरनेट पर वायरल हो रही थी। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की फोटो को एडिट कर एक मौलाना का रूप दिया गया था और सहसपुर में मुस्लिम विश्वविद्यालय खोलने संबंधित बयान को खूब वायरल किया जा रहा था।
बताया जा रहा है कि सहसपुर विधानसभा में कांग्रेस पार्टी से दावेदारी कर रहे एक दावेदार अकील अहमद ने सहसपुर में मुस्लिम विश्वविद्यालय खोलने की मांग की थी और इस शर्त पर निर्दलीय के रूप में अपना नामांकन वापस लिया था। बस इस बात को तूल देकर उत्तराखंड विधानसभा चुनाव को भी बाकी देश के चुनावों की तरह हिंदू-मुस्लिम रंग में रंगने का कार्य प्रारंभ हो गया।
उत्तराखंड राज्य जहां हिंदू आबादी 83 फीसदी के करीब है और मुस्लिम आबादी 13 फीसदी के करीब। मुस्लिम आबादी भी हरिद्वार, देहरादून और ऊधमसिंहनगर तक ही फैली है। पहाड़ों में इनकी तादाद कुल आबादी का महज 5 फीसदी भी नहीं है। ऐसे में उत्तराखंड के लोगों को हिंदू-मुस्लिम जैसे मुद्दों से प्रभावित ही नहीं होना चाहिए था। हमारे पास खुद के रोने के अनेक कारण मौजूद हैं।
सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी CMIE की रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में बेरोजगारी का औसत देश के औसत से भी बुरा है। राज्य में करीब एक तिहाई युवा बेरोजगार है और उत्तराखंड में नौकरी मिलने की संभावनाएं भी राष्ट्रीय औसत से काफी कम हैं। उत्तराखंड में रोजगार दर 30.43 फीसदी आँकी गई जो राष्ट्रीय औसत 37.42 फीसदी से काफी कम है और चिन्ताजनक यह है कि जब देश में बेरोज़गारी का हाल साढ़े चार दशक में सबसे खराब है तब राज्य की स्थिति और भी चिन्ताजनक है।
राज्य के रोजगार दफ्तरों में 8 लाख 42 हजार बेरोजगार पंजीकृत हैं। यानी 14 फरवरी को वोट डालने को तैयार 82 लाख वोटर्स में हर 10वां वोटर बेरोजगार घूम रहा है। इनमें भी सबसे अधिक बेरोज़गारी दर 25 से 45 साल के युवाओं में है और यही तबका सबसे बड़ा वोटर भी है। पंजीकृत बेरोज़गारों में से महज 2 से ढाई हजार युवाओं को ही नौकरी मिल पा रही है। जबकि एक सच यह भी है कि बेरोजगार युवाओं का एक्ट बड़ा तबका पंजीकृत भी नहीं है। यानी युवाओं के लिए बेरोजगारी राज्य का सबसे बड़ा मुद्दा है। हिंदू-मुस्लिम से भी कहीं बड़ा! उस पर चर्चा की जाए तो ज्यादा बेहतर होगा। आँखें खोलने को दो दिन पहले छपी हिन्दुस्तान अखबार की दीपक पुरोहित की यह रिपोर्ट काफी है।
उत्तराखंड पर्यटन के क्षेत्र में तमाम संभावनाएं समेटे हुए है। चारधाम यात्रा के अलावा राज्य में शीतकालीन पर्यटन के लिए लाखों पर्यटक हर महीने उमड़ते हैं। पर्यटन की आधारभूत सुविधाओं को दुरुस्त कर पर्यटकों के अनुकूल माहौल बनाने की मांग भी हिंदू-मुस्लिम से ज्यादा जरूरी है।
व्हाट्सएप पर उत्तराखंड चुनाव में हिंदू-मुस्लिम करते सैकड़ों पोस्ट आपकी भी नजरों के सामने से गुजर रही होंगी। यह हिंदू-मुस्लिम वाले मामले सरकारों के लिए राहत भरे होते हैं क्योंकि हिंदू-मुस्लिम मुद्दे पर उलझने वाली जनता रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य, पलायन और महंगाई जैसे मूल सवालों से भटक जाती है।
लिहाजा चुनाव जीतने के बाद सरकार भी बोलती है कि चुनाव से पहले तो ऐसी कोई बात नहीं हुई थी कि नौकरी देंगे, स्वरोजगार बढ़ाने को मौके देंगे, गाँवों को सड़क से जोड़ेंगे, हमने तो कहा था कि बस मुस्लिमों पर नियंत्रण लगाए रखेंगे और वह तो हम कर ही रहे हैं।
देखिए अभी मौका है कि अगले पांच साल आपको किस तरह की सरकार चाहिए इसलिए पार्टियों द्वारा प्रायोजित प्रचार और प्रोपगंडा में फंसने की जगह अपने सवालों के साथ डटे रहिए। पूछिए कि नौकरी कैसे दोगे? पूछिए कि पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए क्या करोगे? अगर वह कहें कि पर्यटन योजनाओं का निर्माण करेंगे तो जरूर पूछिए कि पैसा कहां से लाओगे? पर्यटन विभाग तो सालों से सिर्फ अपने कर्मियों को तनख्वाह देने तक के लिए लायक बजट जुटा पा रहा है!
उनसे पूछिए कि स्कूलों में शिक्षक कैसे लाओगे? उनसे पूछिए कि महंगाई को काबू में कैसे करोगे, कोई तो प्लान होगा, कोई तो एसओपी होगी…?
हां हिंदू-मुस्लिम में फंसोगे तो फिर सवाल पूछने का हक पांच साल के लिए खो दोगे।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं।)