सेलकु पर्व: प्रकृति, देवताओं और इंसानों का साझा उत्सव, चले आइए रैथल गांव 15 सितंबर को अनूठा फूलोत्सव कर रहा आपका इंतजार

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सर्दियों में फूल सूखने से पहले उंचे बुग्यालों में उगने वाले फूलों को देवताओं को चढ़ाकर उसे लेते हैं प्रसादस्वरूप

पूरी रात पर लोक नृत्य रासौं तांदी में झूमते रहते हैं ग्रामीण, अगले दिन अपने आराध्य देव समेश्वर से लेते हैं सुख समृद्धि का आशीर्वाद
दयारा बुग्याल के आधार शिविर गांव रैथल में 15 सितंबर को इस अनूठे फूलोत्सव का आयोजन होना है। आप भी चले आइए।

उत्तरकाशी (पंकज कुशवाल): हिमालयवासियों का कुदरत से अनूठा संबंध है। यहां हर ऋतुओं के आगमन का स्वागत हर्षोल्लास से किया जाता है और अमुक ऋतु की विदाई भी जश्न के साथ ही की जाती है। सर्दियों की दस्तक का स्वागत और हरियाली को विदाई देने का ऐसा ही अनूठा त्यौहार है सेलकु। पहाड़ों में एक कहावत है कि हरियाली मैदान से शुरू होती है और सूखापन बुग्यालों से। बुग्यालों के आधार शिविर गांवों में अनूठी परंपरा है कि जब सर्दियां अपनी दस्तक देने लगती है और पहाड़ बुग्याल अपनी हरी रंगत छोड़ पीले दिखने शुरू होते हैं तो ठीक इन दिनों के बीच ही ग्रामीण उंचे बुग्यालों में उगने वाले रंग बिरंगे फूलों को तोड़कर गांव तक लाते हैं और उसे अपने आराध्य देवताओं को अर्पित करते हैं। यह सिर्फ फूल अर्पित करने भर की रस्मअदाईगी नहीं होती है बल्कि पूरे दिन व रात भर पारंपरिक लोक नृत्यों, देव नृत्यों, लोक देवताओं के आर्शीवाद का एक महाउत्सव होता है।


उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद की टकनौर और नाल्ड कठूड़ घाटी के गांवों में मनाया जाने वाला यह उत्सव ‘सेलकु’ पर्व के नाम से जाना जाता है। मां गंगा के शीतकालीन प्रवास मुखबा, पर्यटन का बड़ा केंद्र बनकर उभर रहे रहे रैथल गांव, गोरसाली, सारी, सौरा, स्यावा, जखोल गांव में अब सितंबर महीने के दूसरे सप्ताह से शुरू होने वाले हरियाली को अलविदा कहने के जश्न में रंग जाएंगे।


मानसून के दौरान हरे भरे बुग्याल और पहाड़ मानसून की विदाई के साथ ही हरी रंगत छोड़ने लगते हैं और इनमें पीलापन आना शुरू होता है। यह संकेत होता है कि अब सर्दियां शुरू हो गई है और अगले साल मानसून की दस्तक तक यह पीलापन ही बुग्यालों की नियति होगा। मानसूनी बरसात के दौरान बुग्यालों में विभिन्न प्रजातियों के रंग बिरंगे फूल खिल जाते हैं, देवताओं का फूल माना जाने वाला ब्रह्मकल से लेकर कई ऐसे फूल जिनके नाम शायद ही कोई जाने। इन फूलों के सूखने की बेला आने से पहले ग्रामीण कुछ फूलों को बेहद आस्था और संयम के साथ तोड़कर गांव में मंदिर के चौक तक पहुंचाते है। यह बेहद पवित्र कार्य होता है। फूल तोड़ने से मतलब फूलों का नुकसान करना नहीं होता।

मंदिर प्रांगण में फूलों की चादर बिछाकर गांव के आराध्य देवता की देव डोली इस फूलों की चादर से उपर गुजरती है और उसके बाद लोग इन फूलों को प्रसाद स्वरूप उठाते हैं। इसके बाद शुरू होता है पारंपरिक रासौं तांदी का दौर। पहली रात को तो पूरी रात भर युवक युवतियां, महिलाएं पुरूष पारंपरिक नृत्य तांदी में मशगूल होते हैं। तुकबंदी कर गाए जाने वाले गीतों पर पूरी रात भर तांदी नृत्य जारी रहते हैं तो अगले दिन क्षेत्र के ईष्ट देवता समेश्वर अपने प्रतिनिधि पर अवतरित होते हैं फरसे यानि तेज धार वाली कुल्हाड़ी पर चलते हैं। इन कुल्हाड़ियों के उपर चलते हुए समेश्वर लोगों की समस्याओं को सुनते उनके निदान के तरीके बताते हैं।


देवताओं, कुदरत और आम आदमी के अनूठे मेल के इस महोत्सव को शब्दों को पिरोना आसान नहीं है। बस इसे महसूस किया जा सकता है।


आपके पास समय है तो चले आइए इस बार टकनौर, नाल्ड कठूड़ क्षेत्र में आयोजित होने वाले सेलकू पर्व में। सितंबर पहले हफ्ते से शुरू होने वाला यह जश्न सितंबर महीने के तीसरे सप्ताह तक गांव दर गांव चलता है।
दयारा बुग्याल के आधार शिविर गांव रैथल में 15 सितंबर को इस अनूठे फूलोत्सव का आयोजन होना है। आप भी चले आइए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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